झारखंड में हेमंत सोरेन ने ली मुख्यमंत्री पद की शपथ
झामुमो विधायक दल के नेता हेमंत सोरेन शनिवार को राजभवन में हुए एक समारोह में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसके साथ ही वह राज्य के नौवें मुख्यमंत्री बन गए। रा'य की कमान संभालने के बाद वह कैबिनेट की पहली बैठक भी करेंगे।
रांची, जागरण ब्यूरो। झामुमो विधायक दल के नेता हेमंत सोरेन शनिवार को राजभवन में हुए एक समारोह में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इसके साथ ही वह राज्य के नौवें मुख्यमंत्री बन गए। राज्य की कमान संभालने के बाद वह कैबिनेट की पहली बैठक भी करेंगे।
इससे पूर्व राजभवन में शपथ ग्रहण समारोह की तैयारी शुक्रवार को चलती रही। वीआइपी मूवमेंट को देखते हुए यातायात की व्यवस्था की गई है। यातायात डीएसपी ने इसकी निगरानी की। रांची के उपायुक्त भी समारोह के आयोजन की तैयारियों का जायजा लेने पहुंचे। राज्य की गठबंधन सरकार का मुखिया बनने के साथ ही अब झामुमो की कमान भी अप्रत्यक्ष रूप से हेमंत सोरेन के हाथ में होगी। हालांकि, अभी इसकी कोई विधिवत घोषणा नही हुई है, लेकिन मौजूदा परिदृश्य बताता है कि अब झामुमो में अधिकांश फैसले हेमंत सोरेन ही ले रहे हैं।
मुंडा सरकार से समर्थन वापसी के बाद अब कांग्रेस-राजद के सहयोग से सरकार की कमान संभालने का फैसला इसका प्रमाण है। सतही तौर पर झामुमो को राज्य में तीन बार सत्ता पर काबिज होने का मौका मिला। इस दौरान कमान पार्टी प्रमुख शिबू सोरेन के हाथ में रही, लेकिन 11 सितंबर 2010 को सीधे उप मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले हेमंत सोरेन अब झारखंड के मुख्यमंत्री के साथ-साथ झामुमो का भी नया चेहरा होंगे।
एक मायने में उन्हें पार्टी की राजनीतिक विरासत सौंप दी गई है और इस लिहाज से कहा जा सकता है झामुमो के चुनाव चिन्ह तीर-धनुष की कमान अब उन्हीं के हाथों में है। हेमंत के लिए यह टास्क चुनौतियों से भरा हुआ है और उन्हें यह भी साबित करना है कि सिर्फ राजनीतिक विरासत के बूते वह टिके हुए नहीं हैं। सांगठनिक मोर्चे पर उनके पिता शिबू सोरेन झारखंड के सबसे कद्दावर नेता रहे हैं, लेकिन सत्ता के मोर्चे पर उनको हमेशा पटखनी खानी पड़ी।
वह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहते हुए उपचुनाव तक हार गए। हेमंत के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस मिथक को तोड़ने की है कि झामुमो को सरकार चलाने की तकनीक नहीं आती। हालांकि, हेमंत सोरेन सांगठनिक मोर्चे पर खास करामात नहीं कर पाए हैं, लेकिन हाल के महीनों में उन्होंने कुछ कड़े फैसले लिए। इसमें भाजपा की अनदेखी कर रास चुनाव में अपना प्रत्याशी देना, अर्जुन मुंडा सरकार से समर्थन वापस लेना और स्पष्ट तौर पर पार्टी का बिंदुवार एजेंडा सामने रखना शामिल है।
उन्होंने ये तमाम फैसले लेकर यह संकेत देने की कोशिश की है कि वह ढुलमुल तरीके से संगठन चलाने के बजाय अपने एजेंडे को कारगर तौर पर लागू करेंगे। सरकार-संगठन की बागडोर साथ-साथ रहने से उन्हें दो मोर्चे पर जूझना पड़ेगा और यही उनकी पहली चुनौती होगी कि खुद को साबित कर दिखाएं वरना नाकामयाबी का ठीकरा भी उन्हीं के मत्थे फूटेगा।
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