क्या आरक्षण की वर्तमान व्यवस्थाएं पिछले सात दशक में सामाजिक न्याय की स्थापना कर सकी हैं?
किसी गरीब को केवल इसलिए नहीं छोड़ा जा सकता है कि वह सामान्य जाति में जन्मा है। हर वर्ग के गरीबों को सामाजिक न्याय एवं प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। जाति आधारित आरक्षण के अब तक के प्रभाव की समीक्षा करते हुए इसके तार्किक विकल्प की तरफ बढ़ने की आवश्यकता है।
डा अनिल कुमार वर्मा। सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए आरक्षण एक प्रयोग है। संविधान ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए लोकसभा और विधानसभाओं में 10 वर्ष के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी, जिसे हमेशा अगले 10 वर्ष के लिए बढ़ा दिया जाता है। नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में भी शुरुआत से ही आरक्षण दिया गया। 1991 में वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग प्रतिवेदन के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की। मनमोहन सिंह सरकार ने 2006 में मेजर सिन्हो आयोग का गठन किया, जिसे सामान्य वर्ग में आर्थिक पिछड़ेपन का अध्ययन करने का दायित्व सौंपा गया था। इसी को आधार बना मोदी सरकार ने 2019 में संविधान में 103वें संशोधन द्वारा सामान्य वर्ग के गरीबों को 10 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया। इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है।
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विचारार्थ कई मुद्दे हैं, (1) क्या आर्थिक आधार पर आरक्षण संवैधानिक है? (2) क्या आर्थिक आधार पर दिया गया आरक्षण इंदिरा साहनी मुकदमे (1999) में आरक्षण की निर्धारित अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत का उल्लंघन करता है? (3) क्या 50 प्रतिशत आरक्षण संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है? इनसे इतर कुछ प्रश्न हैं, जिनका उत्तर न्यायपालिका को नहीं, समाज को देना होगा। क्या हम संतुष्ट हैं कि सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए आरक्षण अपरिहार्य है? क्या आरक्षण की वर्तमान व्यवस्थाएं पिछले सात दशक में सामाजिक न्याय की स्थापना कर सकी हैं? क्या समाज के गरीब तबके को उसका लाभ मिल सका है? क्या दलितों और पिछड़ों में एक अभिजन वर्ग प्रकट हो गया है, जो अपने ही वर्ग के गरीबों को आगे नहीं आने देना चाहता? भले ही सर्वोच्च- न्यायालय ने पिछड़ों में क्रीमी लेयर का प्रविधान किया है, लेकिन पिछड़ों में अति पिछड़े व गरीब तो अभी भी वहीं खड़े हैं? यही हाल दलितों का भी है। गैर जाटव अति दलितों की स्थिति बदली है क्या? तो क्या आरक्षण का कोई विकल्प है जो सामाजिक न्याय की बेहतर स्थापना कर सके?
पिछले 75 वर्षों में सामाजिक स्तर पर बहुत कुछ बदला है। दलित और पिछड़ा वर्ग के असंख्य सदस्य उच्च पदों पर आसीन, आर्थिक संपन्नता सहित समाज में प्रतिष्ठा से रह रहे हैं। वहीं गरीब वर्ग है, जिसमें सामान्य, पिछड़ा, दलित और मुस्लिम सभी तबके के लोग आते हैं। दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग के गरीबों की यह कहकर उपेक्षा नहीं की जा सकती कि उनको तो जातिगत आरक्षण प्राप्त है ही। प्रश्न है कि आरक्षण प्राप्त होने के बावज़ूद उनको क्या वाकई उसका लाभ मिल पा रहा है? काका कालेलकर आयोग ने जातियों को सामाजिक और शैक्षणिक
पिछड़ेपन का आधार बनाया, लेकिन आर्थिक को भी एक संबद्ध कारक के रूप में मान्यता दी थी। आज जब जाति से अधिक आर्थिक पहलू महत्वपूर्ण हो गया है तब आवश्यकता इस बात की है कि सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ेपन को आर्थिक स्थिति से जोड़ा जाए।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में 21.95 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रतिशत ज्यादा है। संविधान की यह मंशा कदापि नहीं हो सकती कि किसी भी गरीब की इस आधार पर उपेक्षा कर दी जाए कि वह किसी जाति विशेष में जन्मा। हां, यह सुनिश्चित करना आवश्यक होगा कि गरीबी को आधार बना समर्थ और धनी लोग कहीं आरक्षण का लाभ न लेने लगें। कभी समाज में जातिगत सुरक्षा पहली प्राथमिकता हुआ करती थी। आज आर्थिक सुरक्षा प्रथम प्राथमिकता है। अत: समाज, राजनीतिक दलों और संसद को आगे आकर सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ेपन को केवल जाति के आधार पर नहीं, वरन आर्थिक आधार पर भी परिभाषित करना चाहिए, जिससे संविधान के अनुच्छेद 15(4) और अनुच्छेद 16(4) के अंतर्गत सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर पिछड़ों के आरक्षण का लाभ समाज के प्रत्येक वर्ग के गरीबों को मिल सके और सच्चे अर्थों में सामाजिक न्याय की स्थापना हो सके।
[डा अनिल कुमार वर्मा, निदेशक, सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स, कानपुर]