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फ्रेंडशिप डे: भला मैं नाम कैसे लूं अपनी सखी का

जीवन के पचासी वसंत पार कर चुकीं तारा देवी के चेहरे पर इस उम्र में भी गहरे गुलाबी रंग उतर आते हैं, उनकी सबसे दुलारी सखी का नाम पूछने पर। कहती हैं, बालपन में जिसके साथ 'सखियांव धराया' उसका भला नाम लेते हैं क्या? बहुत जोर देने पर वह कुछ ऐसे लजाते हुए अपनी पक्की सहेली कलपौती (कल्पवती) का नाम लेती हैं, गोया सखी का नहीं उनके 'उनका' नाम पूछ लिया गया हो।

By Edited By: Published: Sun, 04 Aug 2013 06:05 AM (IST)Updated: Sun, 04 Aug 2013 06:43 AM (IST)
फ्रेंडशिप डे: भला मैं नाम कैसे लूं अपनी सखी का

वंदना सिंह, वाराणसी। जीवन के पचासी वसंत पार कर चुकीं तारा देवी के चेहरे पर इस उम्र में भी गहरे गुलाबी रंग उतर आते हैं, उनकी सबसे दुलारी सखी का नाम पूछने पर। कहती हैं, बालपन में जिसके साथ 'सखियांव धराया' उसका भला नाम लेते हैं क्या? बहुत जोर देने पर वह कुछ ऐसे लजाते हुए अपनी पक्की सहेली कलपौती (कल्पवती) का नाम लेती हैं, गोया सखी का नहीं उनके 'उनका' नाम पूछ लिया गया हो।

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डुमरांव बाग कॉलोनी (अस्सी) की तारा देवी हैं तो एक आम गृहणी मगर, काशी और यहां के रस्म-रिवाजों को लेकर उनकी समझ और स्मृतियों का समृद्ध खजाना उनकी शख्सियत को खास बना देता है। तारा देवी काशी की उस अनूठी परंपरा की गवाह हैं जब दोस्त बनाने की बाकायदा एक रस्म होती थी। इस को कहते 'सखी धराना'। वे बताती हैं, सखी तो अब रही नहीं पर उसके साथ बिताया हुआ हर पल अब भी ऐसे याद है जैसे मानस के कथा प्रसंग।

सखी की बात करते ही आंखों में अचानक बालपन की शरारतें, किशोरवय की हरारतें कौंध जाती हैं। फ्रेंडशिप-डे के मौके पर नई पीढ़ी के लिए यह खबर रोचक भी हो सकती है और प्रेरक भी।

क्या था सखी धरान

सखी धरान महज एक खेल नहीं था, इससे दो जिंदगियां, दो परिवार जुड़ जाते। इस रस्म में सहेली चुनना होता था। वह सहेली जिससे सुख दुख बांटा करते हों। उसे जीवन भर के लिए प्रगाढ़ बंधन में बांध लेने का जतन ही मकसद था इस रिवाज का। हाथ पकड़ते थे इस संकल्प के साथ कि जीवन भर यह सखियांव निबाहना है। बड़े भी 'सखी धरान' को गंभीरता से लेते।

सखी का हाथ ईश्वर को साक्षी मानकर पकड़ा जाता। लड़कियां सुबह परिवार के साथ मंदिर जातीं और वहां अपनी अंगुलियों को दूसरे की अंगुली से जोड़ा जाता। एक दूसरे का नाम उचारा और साम‌र्थ्य के अनुसार उपहारों का लेन-देन करके एक दूसरे को भर अंकवार बांध लिया। इसके बाद से एक दूसरे का नाम लेने का निषेध था। बस, सखी कहकर ही बुलाना होता। दोस्ती का यह रिवाज अब तो खत्म हो गया है।

तारा देवी कहती हैं कि सुख और दुख वे दोनों मिल कर बांटते। शादी के बाद भी जब कभी वह नइहर आतीं, सखी से मिलने जरूर जातीं। कलपौती के माता-पिता भी उसे बुला लेते, कहते तारा आई है। मेरी सखी मुझसे मिलने दौड़ी चली आती। सखी अब नहीं रही। एक अधूरापन महसूस होता है लेकिन उसकी यादें मेरे साथ हर दम के लिए हैं।

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