सरकार चलाएगी Catch the Rain अभियान, आपका भी इससे जुड़ना है जरूरी, जानें इसके बारे में
पानी बचाना है तो इसमें हम सभी को अपनी भागीदारी निभानी होगी। इसके लिए सभी को जागरुक करना और होने की जरूरत है। अपने मकसद को पूरा करने के लिए सरकार कैच द रेन प्रोग्राम भी चलाने वाली है।
नई दिल्ली (जेएनएन)। भारत दुनिया के उन सौभाग्यशाली देशों में से एक है जिसका अपना एक मानसून चक्र है। वैसे तो सालभर छिट-पुट बारिश होती रहती है, लेकिन हर साल मानसूनी सीजन में इतनी मात्रा में पानी धरती पर बारिश के रूप में आ जाता है कि उसे समाने की जगह नहीं रह जाती है। जून से सितंबर के इन चार महीनों वाले मानसूनी सीजन में ही साल भर की 80 फीसद बारिश हो जाती है। एक तो ज्यादातर जलस्त्रोत खत्म हो गए हैं जो हैं उनका आकार और आयतन सिकुड़ चुका है, लिहाजा इस सीजन में अगर सामान्य मानसून रहा तो सभी तालाब, पोखर, नदी, नाले उफना जाते हैं।
ज्यादातर फर्श के कंक्रीटीकरण होने के कारण बारिश का यह पानी धरती के गर्भ में नहीं जा पाता है। उफनाए नदी-नालों का यह पानी तबाही मचाते हुए अंतत: महासागर में जाकर विलीन हो जाता है और हम हाथ मलते रहते हैं, फिर साल भर शुरू होती है पानी की किल्लत और हमारी मशक्कत। अगर बारिश के इस पानी को हम धरती पर ही रोक लें या धरती की कोख में जाने की व्यवस्था कर दें तो साल भर हमें पानी के लिए किसी और का मुंह नहीं देखना पड़े। वर्षाजल का संग्रहण: जब हम बारिश के पानी को ऐसे बेकार जाने देने की बजाय संग्रह करते हैं तो पूरी प्रक्रिया वर्षाजल संग्रहण कहलाती है।
अप्रैल से जून के बीच केंद्र सरकार इसी प्रक्रिया के तहत लोगों को जागरूक करने के लिए 'कैच द रेन' अभियान चलाने जा रही है। इसमें हम छत पर पड़ने वाली बारिश की बूंदों को नीचे एक टैंक में जमा करते हैं। साफ-सफाई की एहतियात के साथ इसका इस्तेमाल रोजमर्रा की जरूरतों में किया जा सकता है। सबसे आसान और पुराना तरीकाअपनी सालाना पानी की जरूरतों को पूरा करने का यह सबसे आसान और पुराना तरीका है। इस प्रणाली के प्रमाण आज से 12 हजार साल पहले नियोलिथिक (नवपाषाण) काल में भी मिलते हैं जब पहली बार इंसान ने खेती करने की शुरुआत की थी।
ईसा से चार हजार साल पहले सूखी जमीन (असिंचित) पर खेती करने के लिए यही प्रमुख जल प्रबंधन तकनीक थी। बड़े-बड़े हौज (हौदे) बनाकर उसमें जल संग्रह करते थे। वाटरप्रूफ लाइम प्लास्टर से बने हौजों से जल का रिसाव नहीं होता था। आज के सीरिया और उसके आसपास के देशों में ऐसे प्रणाली के साक्ष्य मिले हैं। इजरायल में तो एक पूरी चट्टान को काटकर 1700 घनमीटर की क्षमता का हौज ईसा से 2500 साल पहले तैयार किया गया था। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग समयकाल के दौरान इस प्रणाली के विद्यमान होने के साक्ष्य हैं।
ईसा से 300 साल पहले आज के पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और कच्छ के किसान समुदाय कृषि और अन्य जरूरतों के लिए वर्षाजल संग्रहण प्रणाली का इस्तेमाल करते थे। चोल साम्राज्य में भी इस तकनीक को प्राथमिकता दी गई। तमिलनाडु के तंजावुर स्थित बृहदीश्वर मंदिर का पानी शिवगंगा टैंक में एकत्र किया जाता था। चोल काल के बाद कडलोर जिले में वीरानम टैंक का निर्माण हुआ। 16 किमी लंबे इस टैंक की जल भंडारण क्षमता 4.15 करोड़ घनमी था।
आज की तस्वीर- भूजल स्तर की बिगड़ती तस्वीर से चिंतित वर्षाजल संग्रहण को हर भवन के लिए अनिवार्य बनाने वाला तमिलनाडु देश का पहला राज्य बना। 2011 में शुरू की गई इस परियोजना को राज्य के हर ग्रामीण इलाके में भी लागू किया गया। व्यापक जन जागरूकता अभियान चलाया गया। पांच साल के भीतर ही सकारात्मक नतीजे दिखने शुरू हुए। बाद में सभी राज्य ने इसे आदर्श मॉडल के रूप में अपनाया। चेन्नई का जलस्तर महज पांच साल में 50 फीसद तक बढ़ा और गुणवत्ता में भी उल्लेखनीय सुधार दिखा।