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सरकारी अफसरों ने फर्जीवाड़ा कर बेची ग्वालियर घराने की 314 एकड़ जमीन

जालसाजी 1968 में हुई थी, लिहाजा यह भी नहीं पता कि इनमें से कितने आरोपी अधिकारी अभी जिंदा होंगे?

By Gunateet OjhaEdited By: Published: Fri, 22 Dec 2017 09:03 PM (IST)Updated: Fri, 22 Dec 2017 09:03 PM (IST)
सरकारी अफसरों ने फर्जीवाड़ा कर बेची ग्वालियर घराने की 314 एकड़ जमीन
सरकारी अफसरों ने फर्जीवाड़ा कर बेची ग्वालियर घराने की 314 एकड़ जमीन

नई दिल्ली, प्रेट्र: सरकारी अफसरों ने फर्जीवाड़ा कर ग्वालियर घराने की 314 एकड़ जमीन बेच डाली। 92 साल पुराने जमीन के सौदे में सीबीआइ ने मामला दर्ज कर लिया है, लेकिन एजेंसी को 1968 में हुए घोटाले में शामिल रहे सरकारी अफसरों व बिल्डरों का नाम व पता तक मालूम नहीं है। फिलहाल जांच एजेंसी अंधेरे में तीर चला रही है। मामले में मध्य प्रदेश सरकार के सार्वजनिक उपक्रम पीआइसी (प्राविडेंट इन्वेस्टमेंट कंपनी लि.) व थाणे नगर पालिका का सीधा हाथ है।

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कहानी की शुरुआत तब हुई जब अविभाजित परिवार की तरफ से मथुरादास गोकुलदास ने थाणे जिले के यिउर व माजीवाड़ा राजस्व गांव में स्थित अपनी जमीन ग्वालियर दरबार के पास रहन रख दी। उन्होंने इसकी एवज में राज परिवार से ऋण हासिल किया था। तीन सितंबर 1925 को बांबे के सब रजिस्ट्रार आफिस में दोनों पक्षों में करार किया गया। बिचौलिये फ्रेमरोज एदुलजी दिनशा के जरिये समझौता सिरे चढ़ाया गया। मथुरादास गोकुलदास को ग्वालियर राज्य रेलवे के फंड से ऋण दिया गया।

आजादी के बाद इसका समायोजन भारतीय रेलवे में कर दिया गया। सारी संपत्ति भी केंद्र सरकार के पास स्थानांतरित कर दी गई। उसी दौरान पीआइसी मध्य प्रदेश सरकार की सार्वजनिक उपक्रम की कंपनी बन गई और उसे जिम्मा दिया गया कि केंद्र की तरफ से बांबे, पुणे व थाणे की रहन रखी संपत्तियों की देखरेख का काम करे। गोकुलदास के परिवार की 314 एकड़ जमीन भी इस कार्यवाही का हिस्सा थी। सीबीआइ का आरोप है कि थाणे गांव में स्थित इस जमीन को बिल्डर्स व प्रमोटरों को लंबी अवधि की लीज पर देकर बेच दिया गया। सारे गोलमाल में पीआइसी के अज्ञात अधिकारी शामिल थे।

केंद्र की अनुमति लिए बगैर इन्होंने जमीन को ठिकाने लगा दिया। बिल्डर्स व प्रमोटरों को अनापत्ति प्रमाण पत्र भी दे दिया गया, जिससे जमीन पर वे मनमाफिक तरीके से व्यावसायिक गतिविधि चला सकें। थाणे नगर पालिका से भी प्रमोटरों को हरी झंडी मिल गई। सीबीआइ का कहना है कि 1968 में अज्ञात अधिकारियों से साजिश रचकर अज्ञात प्रमोटरों को फायदा पहुंचाया। सारे मामले में पीआइसी ने न केवल मध्य प्रदेश सरकार बल्कि केंद्र को भी अंधेरे में रखा। सीबीआइ की मुसीबत यह है कि जिन अधिकारियों ने गोलमाल को अंजाम दिया, अभी उनके नाम पते तक उसके पास नहीं हैं। जालसाजी 1968 में हुई थी, लिहाजा यह भी नहीं पता कि इनमें से कितने आरोपी अधिकारी अभी जिंदा होंगे?

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