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सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के अंतर को समान करना नई सरकार की प्रमुख चुनौती

सरकारी स्कूलों में देश के 60 प्रतिशत बच्चे पढ़ते हैं। मूलभूत सुविधाओं पर ध्यान न दिए जाने के कारण इन स्कूलों की साख और स्वीकार्यता लगातार घटी है।

By Dhyanendra SinghEdited By: Published: Mon, 27 May 2019 05:21 AM (IST)Updated: Mon, 27 May 2019 05:21 AM (IST)
सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के अंतर को समान करना नई सरकार की प्रमुख चुनौती
सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के अंतर को समान करना नई सरकार की प्रमुख चुनौती

प्रो जगमोहन सिंह राजपूत। राष्ट्र की सर्वांगीण सर्व-समेकित प्रगति का आधार उसकी शिक्षा की गुणवत्ता, स्वीकार्यता, गतिशीलता और उपयोगिता के स्तंभों पर टिका होता है। इसकी प्राथमिकताएं; किसे पढ़ायें, क्या पढ़ायें, कैसे पढ़ायें, और कौन पढ़ाये की परिधि में निर्धारित होती हैं। बच्चे, पाठ्यक्रम,विधा और अध्यापक इसके मुख्य कारक हैं जिनके लिए समाज और राष्ट्र शिक्षा व्यवस्था का निर्माण और संचालन करते है। शिक्षा नीति तथा स्कूल शिक्षा के पाठ्यक्रम 1992 तथा 2005 में बने थे, इनमें त्वरित परिवर्तन की आवश्यकता है। 2005 में बनी पुस्तकें 2020 में स्वीकार्य नहीं हो सकती हैं।

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बुनियादी जरूरतें
सरकारी स्कूलों में देश के 60 प्रतिशत बच्चे पढ़ते हैं। मूलभूत सुविधाओं पर ध्यान न दिए जाने के कारण इन स्कूलों की साख और स्वीकार्यता लगातार घटी है। लिहाजा निजी स्कूलों की तरफ लगातार बढ़ रही दौड़ प्रारम्भ हुई है। इस अंतर को कम करने के प्रयास प्रारंभ होने ही चाहिए।

कुशल प्रशिक्षण
देश में स्कूल अध्यापकों की सेवा-पूर्व-प्रशिक्षण की स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। उसकी नकेल ‘व्यापरियों’ के हाथ में चली गई है। 93 फीसद शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान निजी हाथों में चाले गए हैं। इस अस्वीकार्य स्थिति से मुक्ति दिलाना आवश्यक है। सरकारों को बड़े पैमाने पर अपने प्रशिक्षण संस्थान खोलने चाहिए। अध्यापकों की नियमित नियुक्तियों का न होना, और अनेक राज्यों में प्रक्रिया में अनावश्यक देरी के कारण अत्यंत निराशा का वातावरण बना है, प्रतिभावान युवा इससे दूर हो रहे हैं। इस पर राष्ट्रव्यापी परियोजना बनाकर नियत समयअवधि में सुधार करना होगा।

विश्वविद्यालयों में भी नियुक्तियों को लेकर स्थिति अत्यंत विकट है, इसे गति देने के लिए यदि आवश्यक हो तो नियुक्ति प्रक्रिया में उचित संशोधन करना वांछित होगा। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नियामक संस्थाओं की साख अत्यंत नीचे के स्तर पर पहुंच चुकी है। इसे स्वीकार करते हुए सुधार के प्रयत्न प्रारम्भ तो हुए मगर शिथिल ही बने रहे। यह सुधार तुरंत प्रारम्भ होने चाहिए।

शिक्षा में बढ़े निवेश
नीतिगत स्तर पर यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए कि शिक्षा के क्षेत्र में किया गया निवेश ही सर्वोत्कृष्ट लाभांश देता है। इसी दृष्टि से सरकारी भागीदारी बढ़नी चाहिए। यह नई संचार तकनीक पर आधारित विधाओं को स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक अपेक्षित परिवर्तनों को क्रियान्वित करने तथा मुक्त और सर्व-सुलभ जीवन-पर्यंत शिक्षा सब तक उपलब्ध कराने के लिए आवश्यक है।

प्रत्येक स्तर पर अकादमिक तथा शैक्षिक नेतृत्व विकसित करने के प्रयास तुरंत प्रारंभ होने चाहिए। नौकरशाही के चंगुल से शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था को मुक्त कराना होगा। राष्ट्रीय तथा राज्य सरकारों के शीर्ष शिक्षा संस्थानों में नेतृत्व शिक्षकों का ही होना चाहिए। उस सरकार के साहस की प्रशंसा करने के लिए देश अनेक दशकों से प्रतीक्षारत है जो शिक्षा पर 6 प्रतिशत जीडीपी के आवंठन की घोषणा कर सके! अनेक वर्षों से देश में एक स्वायत्त वैधानिक राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के गठन का इंतजार है। यह दो घोषणाएं तो पहले सौ दिन के अंदर हो सकती हैं। इससे व्यवस्था में नई ऊर्जा का संचार हो सकेगा और अन्य सुधारों पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

(पद्मश्री से सम्मानित शिक्षाविद)

 

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