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समाज की बंदिशों को तोड़कर जिसने ठुमरी को दिया नया मुकाम वह थीं गिरिजा देवी

1929 में बनारस में जन्‍म लेने वाली गिरिजा ने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे। वह ऐसे परिवार से ताल्‍लुक रखती थी जहां पर गाना और बजाना सही नहीं माना जाता था।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 23 Oct 2018 02:50 PM (IST)Updated: Wed, 24 Oct 2018 12:30 AM (IST)
समाज की बंदिशों को तोड़कर जिसने ठुमरी को दिया नया मुकाम वह थीं गिरिजा देवी
समाज की बंदिशों को तोड़कर जिसने ठुमरी को दिया नया मुकाम वह थीं गिरिजा देवी

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। ठुमरी की रानी के नाम से मशहूर गिरिजा देवी संगीत की दुनिया का जाना-माना चेहरा थीं। बीते वर्ष आज ही के दिन वह हम सभी को अलविदा कह गई थीं। 1929 में बनारस में जन्‍म लेने वाली गिरिजा ने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे। वह ऐसे परिवार से ताल्‍लुक रखती थी जहां पर गाना और बजाना सही नहीं माना जाता था। इसके बाद भी उन्‍होंने समाज की इन दायरों को लांघकर अपने लिए अलग मुकाम तैयार किया। गिरिजा को उनके चाहने वाले प्‍यार से अप्पा जी कहकर बुलाते थे गिरिजा देवी बनारस घराने से गाती थीं और पूरबी आंग ठुमरी शैली परंपरा का प्रदर्शन करती थीं। गिरिजा ने अर्द्ध शास्त्रीय शैलियों जैसे कजरी, होली, चैती को अलग मुकाम दिया। वह ख्याल, भारतीय लोक संगीत और टप्पा भी बहुत ही शानदार तरीके से गाती थीं। 

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एक परिचय
प्रख्यात शास्त्रीय गायिका पद्मविभूषण गिरिजा देवी का जन्म आठ मई, 1929 को कला और संस्कृति की प्राचीन नगरी वाराणसी (तत्कालीन बनारस) में हुआ था। उनके पिता रामदेव राय जमींदार थे। उन्होंने पांच वर्ष की आयु में ही गिरिजा देवी के लिए संगीत की शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी। गिरिजा देवी के प्रारंभिक संगीत गुरु पंडित सरयू प्रसाद मिश्र थे। नौ वर्ष की आयु में पंडित श्रीचंद्र मिश्र से उन्होंने संगीत की विभिन्न शैलियों की शिक्षा प्राप्त की। इस अल्प आयु में ही एक हिंदू फिल्म 'याद रहे' में उन्होंने अभिनय भी किया था।

संगीत यात्रा
1949 में आकाशवाणी से अपने गायन का प्रदर्शन करने के बाद उन्होंने 1951 में बिहार के आरा में आयोजित एक संगीत सम्मेलन में गायन प्रस्तुत किया। इसके बाद उनकी अनवरत संगीत यात्र शुरू हुई, जो जारी रही। उन्होंने स्वयं को केवल मंच-प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि संगीत के शैक्षणिक और शोध कार्यो में भी अपना योगदान किया।

पति के समर्थन ने दी शक्ति
अपने जीवन वृत्तांत में ठुमरी साम्राज्ञी लिखती हैं कि वे जब पंद्रह वर्ष की थी तो एक व्यापारी मधुसूदन जैन से विवाह कर लिया। वह भी संगीत और कविता के प्रेमी थे। पति से समर्थन पाने के लिहाज से भाग्यशाली थी। शादी के एक साल बाद हमारी एक बच्ची थी। मेरे पति ने मेरे संगीत के भविष्य का समर्थन करना जारी रखा। वह लिखती हैं कि मैंने एक वर्ष के लिए सारनाथ जाने का फैसला किया। मेरे पति को मेरे लिए एक छोटा स्थान मिला और मैं अपनी नौकरानी के साथ वहां रहती रही। मेरी मां ने मेरी बेटी का ख्याल रखा और मैंने पति और गुरु श्रीचंद से संगीत की शिक्षा लेना जारी रखा। हर दिन कई घंटे तक अभ्यास होता था, जो सुबह 3:30 बजे शुरू होता।

पहला प्रदर्शन रेडियो स्टेशन से
मेरी सच्ची साधना व मेहनत रंग लाई और मैं बनारस में एक नए अंतर्दृष्टि के साथ वापस लौटी। उस समय लोग केवल लाइव कंसर्ट या रेडियो पर शास्त्रीय संगीत ही सुन सकते थे। मेरा पहला प्रदर्शन इलाहाबाद के रेडियो स्टेशन से प्रसारित किया गया था। तब सिर्फ 20 साल की थी, यह विश्वास करना मुश्किल है कि 1949 में मैंने आधिकारिक तौर पर एक पेशेवर संगीतकार के रूप में कैरियर शुरू किया था। पति के समर्थन से मैंने संगीत समारोहों में सीखने व प्रदर्शन करने के क्रम में दूसरे जगहों की यात्र की। मेरे पति चाहते थे कि मैं निजी समारोहों में प्रदर्शन न करूं और मैं उनकी इच्छा को समायोजित करने के लिए खुश थी।

गिरिजा देवी से जुड़ी खास बातें
ठुमरी साम्राज्ञी के अनुसार संगीत की शिक्षा उन्होंने कबीरचौरा स्थित अपने गुरु के घर में प्राप्त की। उनके गुरु के वंशज आज भी यहां रहते हैं। इसी कबीरचौरा में पं. कंठे महाराज, पं. किशन महाराज, हनुमान प्रसाद, बड़े रामदास, राम सहाय, राजन-साजन मिश्र जैसे कई प्रसिद्ध शास्त्रीय गायकों, संगीतकारों और कई अन्य फनकारों का परिवार निवास करता है। उनका पूरा जीवन व गायन गंगा के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा।

अपने जीवन वृत्तांत में उन्होंने लिखा है कि बालपन में नदी के किनारे दोस्तों के साथ लंबे समय तक खेलती रहती थी। यह सोचने में आश्चर्यजनक है कि कई वर्ष बाद जीवन के लिए मछली की लड़ाई की पीड़ा अपने संगीत में ला पाई थी।वे लिखती हैं कि कैसे उनके पिता रामदेव राय ने घुड़सवारी और घोड़ों की सवारी करना सिखाया, जो कि शुरुआती 20 वीं शताब्दी में छोटी लड़कियों के लिए आम बात नहीं थी। संगीत के असली संरक्षक के रूप में मेरे पिता भी एक थे, जिन्होंने गायन के मेरे जुनून को मान्यता दी। पंडित सरजू प्रसाद मिश्र के रूप में मुझे पहले गुरू मिले। जब मैं चार साल की थी तब मुखर संगीत में मेरा कठोर प्रशिक्षण शुरू हुआ। उन्होंने ख्याल, ठुमरी सहित तमाम शास्त्रीय रूप और तप की तरह अधिक कठिन व तकनीकी रूप से जटिल शैलियों को पढ़ाया। सरजू प्रसाद के बाद श्रीचंद मिश्र की शिष्या बनी। वे लिखती हैं कि दुर्भाग्य से पिता के अलावा परिवार के अन्य लोग मेरे गायन के खिलाफ थे। उनका सहयोग भी नहीं मिलता था। मेरी मां, जो बाद में मेरी सबसे बड़ी प्रशंसक में से एक बन गई समझ नहीं सकीं कि मैं शास्त्रीय संगीत के लिए इतना समय क्यों बर्बाद कर रही थी।

संगीत के सफर में मिले फनकार
अपने जीवन वृत्तांत में ठुमरी साम्राज्ञी लिखती हैं कि मैंने पूरे भारत में यात्र की और रास्ते में मुझे पं. रविशंकर, अली अकबर और अन्य महान समकालीन कलाकारों का साथ मिला। वे सभी मेरे अच्छे दोस्त बनते गए। हमने एक-दूसरे के साथ अपने संगीत को साझा किया। मैंने अपने जीवन के सबसे दर्दनाक क्षणों में से एक का सामना किया, मैंने अपना पति खो दिया। उस बिंदु तक मुङो अपने दम पर जीवन का प्रबंधन कभी नहीं करना पड़ता था। यहां तक कि साधारण चीजें, जैसे बिलों का भुगतान मेरी जिम्मेदारी नहीं थी। अचानक यह जि़म्मेदारियां मेरी थीं, मैंने प्रदर्शन रोक दिया। साल बीत गए, लेकिन मेरे दोस्तों और प्रशंसकों ने मुङो इस तरह से पीड़ित नहीं देखा। उन्होंने मुङो प्रदर्शन करने को किसी तरह आश्वस्त किया। तब मंच पर वापस आई और फिर मैंने गायन में कविता व गीतों के महत्व को समझने के लिए खुद को समर्पित किया। रस, भावना की अभिव्यक्ति, मेरी रचनाओं का प्राथमिक ध्यान बन गया। मैंने प्यार के विभिन्न रूपों को अपने कठिन परिश्रम से गायिकी के रूप में प्रस्तुत किया। कृष्ण की कहानियों पर आधारित मेरी ठुमरी मेरे अभ्यास का केंद्र बिंदु बन गया। मैंने ठुमरी गायन के पूरे रंग को बदलने का फैसला किया। ठुमरी को एक माध्यम के रूप में सोचा था, जिससे मैं खुद को अभिव्यक्त कर सकती हूं। प्रेम, लालसा और भक्ति की भावनाएं ठुमरी का एक अभिन्न हिस्सा हैं और मैंने सोचा कि सही प्रकार के संगीत के साथ, मैं गीत को जीवित कर सकती हूं। यह संभव है कि गानों को एक भौतिक रूप दिया जाए।


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