भारतीय वैज्ञानिकों ने विलुप्त हो चुके भारतीय चीते के स्रोत का पता लगाया
एक अध्ययन में एशियाई और अफ्रीकी चीतों के विकास क्रम में भी भारी अंतर का पता लगाया है। इससे पता चला कि आखिर किस हद तक अफ्रीकी चीता भारतीय परिस्थितियों में खुद को ढाल सकता है।
नई दिल्ली। अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के एक संयुक्त अध्ययन में भारतीय वैज्ञानिकों ने भारत से लुप्त हो चुके चीते को दोबारा देश में उसके वन्य आवास में स्थापित करने की संभावनाओं का आकलन किया है। इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने जानने का प्रयास किया है कि अफ्रीकी चीता भारतीय परिस्थितियों में किस हद तक खुद को अनुकूलित कर सकता है। शोधकर्ताओं ने इस आनुवांशिक अध्ययन में एशियाई और अफ्रीकी चीतों के विकास क्रम में भी भारी अंतर का पता लगाया है।
इस अध्ययन में कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र (सीसीएमबी), हैदराबाद के वैज्ञानिकों ने विलुप्त हो चुके भारतीय चीते के स्रोत का पता लगाया है। अध्ययन से पता चलता है कि विकास के क्रम में दक्षिण-पूर्व अफ्रीकी और एशियाई चीता दोनों का उत्तर-पूर्वी अफ्रीकी चीते के बीच विभाजन 100,000-200,000 साल पहले हुआ है। लेकिन दक्षिण-पूर्वी अफ्रीकी और एशियाई चीता एक दूसरे से 50,000-100,000 साल पहले अलग हुए थे।
अध्ययन में शामिल कैंब्रिज विश्वविद्यालय के डॉ. गाई जैकब्स के अनुसार यह मौजूदा धारणा के विपरीत है कि एशियाई और अफ्रीकी चीतों के बीच विकासवादी विभाजन मात्र 5,000 वर्षों का ही है। हालांकि, वैज्ञानिकों का कहना है कि भारत में एशियाई और अफ्रीकी प्रजातियों के चीतों के बीच प्रजनन के निर्णय को निर्धारित करने वाले प्रमुख मापदंडों में यह देखना अहम होगा कि चीतों की दोनों आबादी परस्पर रूप से कितनी अलग हैं। तभी इस बारे में सही निर्णय लिया जा सकता है।
सीसीएमबी के वरिष्ठ शोधकर्ता डॉ. के. थंगराज ने बताया कि हमने चीतों के तीन अलग-अलग नमूनों का विश्लेषण किया है। पहला नमूना चीते की त्वचा का था, जिसके बारे में माना जाता है कि उसे 19वीं शताब्दी में मध्य प्रदेश में मार दिया गया था, जो कोलकाता के भारतीय प्राणी सर्वेक्षण की स्तनपायी गैलरी से प्राप्त किया गया है। दूसरा नमूना मैसूर प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय से प्राप्त 1850-1900 के समय के चीते की हड्डी का है। जबकि, तीसरा नमूना नेहरू जूलॉजिकल पार्क, हैदराबाद से प्राप्त वर्तमान में पाए जाने वाले एक आधुनिक चीते के रक्त का है। सीसीएमबी की प्राचीन डीएनए सुविधा में दोनों ऐतिहासिक नमूनों (त्वचा और हड्डी) से डीएनए को अलग किया गया है और उसका विश्लेषण किया गया है।
अध्ययन में शामिल एक अन्य शोधकर्ता डॉ. नीरज राय ने बताया कि हमने इन दो नमूनों के मिटोकांड्रियल डीएनए और वर्तमान में पाए जाने वाले चीतों के नमूनों को क्रमबद्ध किया है और अफ्रीका व दक्षिण-पश्चिम एशिया के विभिन्न भागों में पाए जाने वाले 118 चीतों के मिटोकांड्रियल डीएनए का विश्लेषण किया है। डॉ. थंगराज ने बताया कि भारतीय प्राणी सर्वेक्षण के संग्रहालय से प्राप्त नमूने एवं नेहरू प्राणी उद्यान के आधुनिक नमूने पूर्वोत्तर अफ्रीकी मादा वंश के हैं, जबकि मैसूर के संग्रहालय से प्राप्त नमूने दक्षिण-पूर्वी अफ्रीकी चीतों के साथ घनिष्ठ संबंध दर्शाते हैं।
चीता, जो बिल्ली की सबसे बड़ी प्रजाति है, की आबादी में लगातार कमी हो रही है। वर्तमान में इनकी सबसे बड़ी आबादी अफ्रीका में पाई जाती है, जिन्हें अफ्रीकी चीता कहा जाता है। दूसरी ओर, सिर्फ ईरान में मात्र 50 एशियाई चीते बचे हैं। लगभग एक दशक से भी अधिक समय से भारत में इस पर विचार किया जा रहा है कि क्या देश में चीतों को फिर से जंगलों में लाना चाहिए। इस अध्ययन में यह जानने की कोशिश की जा रही है कि क्या अफ्रीकी चीता भारतीय परिस्थितियों में खुद को ढाल सकता है। इस वर्ष के आरंभ में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को देश में दक्षिणी अफ्रीकी चीते को अनुकूल आवास में रखने की अनुमति दी थी।
यह अध्ययन सीसीएमबी के अलावा बीरबल साहनी पुरा-वनस्पति विज्ञान संस्थान, लखनऊ, कैंब्रिज विश्वविद्यालय, ब्रिटेन, जोहानिसबर्ग विश्वविद्यालय, दक्षिण अफ्रीका, नानयांग टेक्नोलॉजिकल विश्वविद्यालय, सिंगापुर के वैज्ञानिकों द्वारा संयुक्त रूप से किया गया है। वैज्ञानिकों ने एशियाई और दक्षिण अफ्रीकी चीतों के विकास क्रम के विवरण को गहराई से समझने के लिए मिटोकांड्रियल डीएनए का विश्लेषण किया है। उन्होंने पाया कि क्रमिक विकास के साथ चीतों की ये दोनों आबादी एक-दूसरे से भिन्न होती गईं। यह अध्ययन हाल ही में शोध पत्रिका साइंटिफिक रिपोट्र्स में प्रकाशित किया गया है।
सीसीएमबी के निदेशक डॉ. राकेश कुमार मिश्र ने कहा है कि यह अध्ययन एशियाई चीतों की आनुवांशिक विशिष्टता स्थापित करने की दिशा में साक्ष्य प्रदान करता है और उनके संरक्षण के लिए प्रयासों में मददगार हो सकता है।
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