नगा समझौते पर पूर्व जनरलों को संदेह
केंद्र और नगा अलगाववादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आफ नगालैंड (एनएससीएन-आइएम) के बीच हुए समझौते को केंद्र सरकार भले ही ऐतिहासिक कदम मान रही है, लेकिन सेना के पूर्व जनरलों की राय इससे जुदा है।
विकास गुसाई, देहरादून। केंद्र और नगा अलगाववादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आफ नगालैंड (एनएससीएन-आइएम) के बीच हुए समझौते को केंद्र सरकार भले ही ऐतिहासिक कदम मान रही है, लेकिन सेना के पूर्व जनरलों की राय इससे जुदा है।
नगालैंड, मणिपुर व असम आदि राज्यों में वर्षो तक अलगाववादी ताकतों से लोहा ले चुके सेना के पूर्व जनरल समझौते का तो स्वागत करते हैं, लेकिन इस पर अमल को लेकर उन्हें संदेह है। पुराने अनुभवों के आधार पर उनका कहना है कि अलगाववादी संगठनों ने समझौते को कभी मान नहीं दिया। यह समझौता भी भारतीय सेना की ओर से ऑपरेशन म्यांमार के कारण बने दबाव की परिणति है।
पूर्व जनरलों का मानना है कि नगालैंड समस्या का हल राजनीतिक स्तर पर सभी उत्तर पूर्वी राज्यों को साथ लेकर ही किया जा सकता है। 70 के दशक में नगालैंड में चलाए गए अभियान के लिए विशिष्ट सेवा मेडल से अलंकृत लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) ओपी कौशिक कहते हैं कि आजादी के बाद से ही नगालैंड की समस्या बनी हुई है। उस समय नगा फेडरल गवर्नमेंट के नाम से सबसे बड़ा नगा अलगाववादी संगठन था।
1975 में चलाए गए एक अभियान में सेना ने 137 नगा अलगाववादी गिरफ्तार किए थे। इस दौरान नगालैंड फेडरल गवर्नमेंट के साथ शिलांग समझौता हुआ था। इसमें अलगाववादियों ने सारी शर्ते मान ली गई थीं। इसके बाद कई संगठन बन गए और समझौता धरा रह गया।
उन्होंने कहा कि ये संगठन असम व मणिपुर के बड़े हिस्से को नगालैंड के अंतर्गत लाना चाहते हैं, जो संभव नहीं है। वहीं 80 के दशक में उत्तर पूर्वी राज्यों में तैनात रहे लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) एमसी भंडारी कहते हैं कि एनएससीएन के ही कई धड़े हैं। एक धड़े से समझौता संकट को कम नहीं करेगा। उन्होंने कहा कि पहले भी कई बार नगा व मिजो संगठनों से सरकार के समझौते हुए हैं, लेकिन ये कभी भी बहुत दिनों तक नहीं चले।