Move to Jagran APP

EWS Reservation पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने के बाद कई राज्यों में आरक्षण की सीमा अधिक करने की मची होड़

EWS Reservation News आरक्षण वोट बैंक राजनीति का शार्टकट औजार बनता जा रहा है। आर्थिक रूप से दुर्बल वर्ग (ईडब्ल्यूएस) आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने के बाद कई राज्यों में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक करने की होड़ मची हुई है।

By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalPublished: Mon, 28 Nov 2022 11:25 AM (IST)Updated: Mon, 28 Nov 2022 11:25 AM (IST)
EWS Reservation पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने के बाद कई राज्यों में आरक्षण की सीमा अधिक करने की मची होड़
EWS Reservation News: आरक्षण नीति पर समग्र रूप से हो विचार

कैलाश बिश्नोई। हमारे देश में आरक्षण ज्वलंत मुद्दा रहा है। सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक उन्नति हेतु किया गया आरक्षण का प्रविधान वर्तमान में केवल राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति का जरिया बनकर रह गया है। एक सामान्य धारणा है कि देश में आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था ने जाति प्रथा की बेड़ियों को मजबूत किया है तथा जिस सामाजिक व आर्थिक खाई को पाटने के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू की गई थी, उसमें अब नई तरह की समस्या पैदा हो गई है।

loksabha election banner

आरक्षण का लाभ उस वर्ग के अमीर व्यक्ति ही ज्यादातर उठाते हैं जिससे अंतरजातीय विभेदन भी गहरा होता है। आरक्षण प्रणाली सदियों से उपेक्षित निचली जातियों का सामाजिक-आर्थिक उत्थान कर उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने हेतु प्रारंभ की गई थी। परंतु आजादी के लगभग 75 वर्ष बाद समानता का लक्ष्य प्राप्त कर लिया जाना चाहिए था, इसके उलट आरक्षण की मांग अन्य सामान्य समुदाय के लोगों द्वारा उग्रता से उठाई जा रही है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि आरक्षण के प्रविधान भारतीय लोकतंत्र की सफलता की कहानियों में प्रमुख किरदार रहे हैं, परंतु साथ ही इन्होंने कई समस्याओं को भी जन्म दिया है। यदि सामाजिक न्याय का आधार आरक्षण नीति है, तो भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां इसे केवल बड़े पैमाने पर नौकरियां पैदा करके सुनिश्चित किया जा सकता है, न कि जाति के आधार पर आरक्षण को बढ़ावा देकर। आज आरक्षण तय करते समय यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि क्या विभिन्न समुदायों के लिए आरक्षण का प्रविधान करने वाली राज्य सरकारें संघीय ढांचे का पालन कर रही हैं या इसे नष्ट कर रही हैं।

आशंका जताई जा रही है कि पूर्व निर्धारित सीमा से अधिक आरक्षण के कारण योग्यता की अनदेखी होगी जिससे संपूर्ण प्रशासन की दक्षता प्रभावित होगी। आरक्षण की मूल भावना : स्वाधीनता के पश्चात आरक्षण का प्रविधान सच्ची भावना के साथ लाया गया था। अगर उसी भावना के साथ इसे लागू किया गया होता, तो स्वतंत्रता के एक-दो दशक में ही आरक्षण का लक्ष्य प्राप्त कर लिया गया होता। अफसोस हमारे नेताओं ने आरक्षण को राजनीति की बैसाखी की तरह प्रयोग किया।

परिणाम यह है कि आरक्षण का मूल स्वरूप और मूल भावना राजनीति के भंवर में खो गई है। आरक्षण का सिलसिला खत्म नहीं हो रहा। वर्तमान में राजनीतिक धुरंधरों ने आरक्षण की मूल भावना को भूल कर इसे प्रतिनिधित्व के बजाय मात्र सरकारी नौकरियों तक सीमित कर दिया। इसी आलोक में गुजरात के पटेल-पाटीदार समुदाय, राजस्थान के गुर्जर समुदाय, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के जाट समुदाय द्वारा ओबीसी आरक्षण की मांग को देखना चाहिए। अब समय आ गया है कि भारतीय राजनीतिक वर्ग द्वारा चुनावी लाभ के लिए आरक्षण के दायरे का लगातार विस्तार किए जाने की प्रवृत्ति को रोका जाए। यह महसूस भी किया जाने लगा है कि आरक्षण सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का रामबाण इलाज नहीं है। आरक्षण सत्ता में बने रहने का ग्लूकोज मात्र दिखाई दे रहा है।

आरक्षण की व्यवस्था को लागू हुए सात दशक से अधिक समय बीत चुका है, इसलिए इसकी समीक्षा आवश्यक है। इससे यह पता चलेगा कि अब आरक्षण की किसे जरूरत है और किसे नहीं। आरक्षण व्यवस्था का लाभ जिस व्यक्ति को मिला, उसे आरक्षण व्यवस्था से बाहर नहीं किया गया। नतीजन आरक्षण का लाभ आरक्षित जातियों के अंतिम छोर तक नहीं पहुचा। आरक्षण का उद्देश्य पूरा करना है तो ओबीसी वर्ग में अगड़ी जातियों की पहचान कर उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर कर नई व्यवस्था लागू करने की जरूरत है। अब नीति-निर्माताओं से यह सवाल करने का समय आ गया है कि हर तरह का आरक्षण हो, लेकिन कब तक? आखिर कोई तो समय सीमा होनी चाहिए।

आगे आने वाले समय में अगर आरक्षण की समीक्षा ठीक ढंग से नहीं की गई तो यह समस्या बहुत विकराल रूप धारण कर सकती है। इसलिए समय रहते आरक्षण की समीक्षा की जाए और यदि जरूरी हो तो आरक्षण की समय सीमा तय कर उसके आधार पर भी विचार किया जाए, ताकि पिछली गलतियों की सजा भविष्य की पीढ़ी को नहीं भुगतनी पड़े। यह बार-बार कहा जाता है कि जब तक समाज में असमानता और शोषित वर्ग शिक्षा और सरकारी सेवाओं में उचित प्रतिनिधित्व नहीं कर लेता, तब तक आरक्षण की व्यवस्था रखी जाएगी। इस तर्क में कोई दम नहीं है। चूंकि आरक्षण की व्यवस्था सर्दव के लिए नहीं की गई थी, यह एक दशक के लिए लागू की गई गई थी। हैरानी की बात है कि आज भी आम जनता समानता के अधिकार से दूर है।

एक सुझाव यह भी है कि आरक्षण का लाभ शिक्षा प्राप्ति के अवसरों तक ही सीमित रहे, किसी प्रतियोगी परीक्षा में इसका लाभ न दिया जाए। हर तरह के आरक्षण को समाप्त करने के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ना होगा। वर्तमान में जहां पर भी आरक्षण लागू है, उन जगहों पर पहले क्रीमीलेयर का सिद्धांत लागू हो, िफर अगली कड़ी में आरक्षण को समाप्त किए जाने पर विचार किया जाना चाहिए। इसके स्थान पर आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों की शिक्षा नि:शुल्क की जा सकती है। चाहे वह बच्चा किसी भी जाति का हो। इस व्यवस्था में इस प्रकार से परिवर्तन किया जा सकता है कि आरक्षण के स्थान पर जिसकी वार्षिक घरेलू आय पांच लाख रुपये से कम है, उसके बच्चे को स्कूली शिक्षा से लेकर कालेज शिक्षा तक नि:शुल्क करने की व्यवस्था की जानी चाहिए।

[शोध अध्येता, दिल्ली विश्वविद्यालय]


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.