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जो कूड़ा-कचरा आज हमारे लिए अभिशाप बना है, नजरिया बदलने से होगा वरदान साबित

सफाई लगभग हर किसी को अच्छी लगती है, पर विडंबना यह है कि इसके लिए हम अक्सर दूसरों से ही अपेक्षा करते हैं, लेकिन सफाई के महत्व को समझते हुए देश के हर व्यक्ति को इसमें सहयोग करने की जरूरत है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 17 Sep 2018 10:25 AM (IST)Updated: Mon, 17 Sep 2018 10:38 AM (IST)
जो कूड़ा-कचरा आज हमारे लिए अभिशाप बना है, नजरिया बदलने से होगा वरदान साबित
जो कूड़ा-कचरा आज हमारे लिए अभिशाप बना है, नजरिया बदलने से होगा वरदान साबित

[अरुण श्रीवास्तव]। सफाई लगभग हर किसी को अच्छी लगती है, पर विडंबना यह है कि इसके लिए हम अक्सर दूसरों से ही अपेक्षा करते हैं। बेशक सरकार ने इसके लिए जोरदार अभियान छेड़ रखा है, लेकिन सफाई के महत्व को समझते हुए देश के हर व्यक्ति को इसमें सहयोग करने की जरूरत है। यह तभी होगा, जब हम अपनी सोच में स्वच्छता को शामिल करेंगे और गंदगी फैलाने की बजाय सफाई बरकरार रखने का हर समय ध्यान रखेंगे। जो कूड़ा-कचरा आज हमारे लिए अभिशाप बन गया है, सोच ठीक कर लेने से वही वरदान भी बन सकता है।

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सबसे पहले दो ताजा उदाहरण। एक शर्मसार करने वाला, तो दूसरा सुखद तसल्ली देने वाला। पिछले दिनों लखनऊ विधानसभा की एक तस्वीर छपी थी। तस्वीर विधानसभा की भव्य इमारत के एक कोने की थी, जो पान-मसालों की पीक से बदरंग हो गई थी। यह सफाई व्यवस्था से कहीं ज्यादा हमारे माननीयों, वहां के कर्मचारियों और वहां आने वालों आगंतुकों की सोच को दर्शा रही थी। हालांकि ऐसा दृश्य तमाम सरकारी इमारतों में आम है। वहीं दूसरा उदाहरण इंदौर का है, जो सफाई के मामले में लगातार दूसरे साल अव्वल आया।

दरअसल, गत बुधवार गोगानवमी के मौके पर शहर के करीब साढ़े छह हजार सफाईकर्मी अवकाश लेना चाहते थे, पर मुश्किल यह थी कि अगर सभी सफाईकर्मी छुट्टी पर चले जाते तो शहर की साफ-सफाई का क्या होता। इस चुनौती से निपटने के लिए निगम आयुक्त आशीष सिंह ने शहर के लोगों से उस दिन सफाई कार्य में सहयोग की अपील की और खुद भी अपने सहयोगियों के साथ झाड़ू लेकर निकल पड़े। फिर क्या था। उस दिन हर शहरवासी ने अपने शहर को चमकाने की ठान ली। इंदौर पहले की तरह ही साफ-सुथरा नजर आने लगा। हालांकि दो-तीन घंटे सफाई में जुटे रहने से तमाम लोगों को दो-तीन दिन तक हाथ-पैरों में दर्द होता रहा, पर इससे उन्हें इस बात का एहसास हो गया कि सफाईकर्मी शहर को चमकाने के लिए कितनी मेहनत करते हैं।

सफर की सच्चाई

बेशक हाल के वर्षों में उड़ानें सस्ती होने से अब यात्रा में इसका फायदा मिलने लगा है, पर ट्रेन का सफर अभी भी हमारे देश में लाइफलाइन बना हुआ है। अगर आप लंबी दूरी की किसी ट्रेन में स्लीपर या जनरल कोच में सफर करें, तो रेलगाड़ी के रवाना होने के कुछ घंटे बाद ही आपको जगह-जगह कचरा दिख जाएगा। आमतौर पर ज्यादातर लोग खाना, फल, बिस्किट, मूंगफली आदि खाने के बाद उसका अवशिष्ट सीट के नीचे ही फेंक देते हैं। ज्यादा कचरा हो जाने पर मुसाफिर रेलवे की सफाई व्यवस्था को कोसते भी नजर आते हैं।

अगर गलती से इन ट्रेनों के शौचालयों में जाना पड़ गया, तो वहां की बदतर स्थिति ‘शौच’ की बजाय ‘सोच’ में डाल देगी। ट्रेनों में साफ-सफाई के लिए बेशक हम रेल प्रशासन को कोसें, लेकिन इसके लिए हम यात्री खुद कहीं ज्यादा जिम्मेदार हैं। इससे बदतर हालात स्टेशनों, बस स्टेशनों, चौराहों या सार्वजनिक स्थलों के शौचालयों की दिखती है। बेशक अब भुगतान पर सुविधा उपलब्ध कराने वाले शौचालय उपलब्ध हो गए हैं, लेकिन सार्वजनिक शौचालयों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं आया है।

निपटान बना बड़ी समस्या

महानगरों और नगरों में हर दिन बड़े पैमाने पर निकलने वाला कचरा अभिशाप बना हुआ है। कचरा निपटान के लिए हमारे नेताओं-अधिकारियों का दल जब-तब लाखों-करोड़ों खर्च करके दूसरे देशों के दौरों पर भी जाता रहता है, पर नतीजा सिफर ही रहता है। दिल्ली-मुंबई और अन्य शहरों में कचरे के बड़े-बड़े पहाड़ ज्यादातर लोगों ने देखे होंगे। लेकिन इसे सही तरीके से निपटाने और इसका सदुपयोग करने के बारे में ईमानदारी और गंभीरता से शायद कदम ही नहीं उठाये गए। रिसाइकिल संयंत्र लगाने के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करने के बावजूद नतीजा ढाक के तीन पात ही रह जाता है।

स्वीडन से सीखें

बेशक हमारे यहां साफ-सफाई के लिए आज लोगों को प्रेरित करने की जरूरत महसूस हो रही है और कचरा हमारे शहरों के लिए अभिशाप बना हुआ है, लेकिन आपको यह जान-सुनकर हैरानी हो रही होगी कि यूरोप के तमाम देशों ने इसका जबर्दस्त समाधान ढूंढ़ लिया है। इनमें सबसे अग्रणी है स्वीडन, जो अपने यहां उत्पन्न होने वाले 99 प्रतिशत कचरे की रिसाइकिल कर लेता है। कई बार तो अपने संयंत्रों के लिए कचरा कम पड़ जाने पर वह इसे दूसरे देशों से भी आयात करता है। वहां 1904 में ही पहला वेस्ट टु एनर्जी प्लांट लगा दिया गया था। इन संयंत्रों की वजह से स्वीडन जीरो गारबेज कंट्री बन चुका है। इतना ही नहीं, इन संयंत्रों में कचरे से बनने वाली बिजली से 9 लाख से ज्यादा घरों को रोशन किया जाता है।

वहां 50 प्रतिशत कचरे की रिसाइकिलिंग के बाद दोबारा इस्तेमाल लायक बनाया जाता है, जबकि 50 प्रतिशत को जलाकर ऊर्जा पैदा की जाती है। इसके लिए यह देश हर साल करीब सात लाख टन से ज्यादा कचरा दूसरे देशों से आयात करता है। कचरे की राख में धातु, टाइल्स या कंक्रीट जैसी चीजें बची रह जाने पर उन्हें पिघलाकर उनका इस्तेमाल सड़क बनाने में किया जाता है।

अभिशाप को बनाएं वरदान

हमारे पड़ोस में भूटान और श्रीलंका जैसे देशों तक में कचरे को रिसाइकिल करके खाद और दोबारा इस्तेमाल में लाने वाली वस्तुए बनाई जाती हैं। हमारे देश में भी सूरत, जोधपुर और दक्षिण भारत के कुछ शहरों में भी इस तरह के कुछ प्रयास हुए हैं। दिल्ली के कचरा पहाड़ों पर भी कुछ प्रायोगिक प्रयास हो रहे हैं। कुछ रेजिडेंशियल सोसायटी भी अपनी पहल पर इस तरह के प्रयास कर रही हैं। ‘स्वच्छता से सेवा’ जैसे अभियान को अपने जीवन में उतार कर देश को स्वच्छ रख सकते हैं, बल्कि अभिशाप को वरदान में तब्दील करने की दिशा में भी अग्रसर हो सकते हैं।

ऊर्जा व रोजगार का विकल्प

आयातित क्रूड की आसमान छूती कीमतों के संदर्भ में कचरे से बनने वाली ऊर्जा न केवल बड़ा विकल्प साबित हो सकती है, बल्कि इससे बड़े पैमाने पर रोजगार भी उत्पन्न हो सकता है।  


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