एक देश में एक साथ चुनाव, उपयुक्त नहीं होगा बदलाव
एक देश और एक चुनाव प्रणाली लागू करने में काफी मशक्कत करनी पड़ सकती है। उसके मुकाबले सरकार को फायदे कम होंगे। इस पर विचार चल रहा है।
(त्रिलोचन शास्त्री)। लोकसभा, विधानसभाओं और पंचायतों के चुनाव एक साथ कराना संभव बताते हुए अंतहीन बहसें की जा रही हैं। इसके पक्ष में कुछ कारण हैं। हर साल कुछ राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होते हैं। चुनाव आचार संहिता सरकारों की प्रशासनिक पहलू में बाधा बनती है। साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि चुनाव बहुत महंगे होते जा रहे हैं। हालांकि कुल खर्च का बहुत छोड़ा हिस्सा सरकार चुनाव आयोग के माध्यम से चुनाव पर खर्चती है। अधिकांश धन राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किया जाता है। यदि हमें चुनाव खर्चे को कम करना है तो राजनीतिक दलों के चुनावी खर्च पर लगाम लगानी होगी।
आदर्श आचार संहिता लगाने का मतलब सरकार के कामकाज का ठप होना नहीं है, संहिता केवल उन घोषणाओं को रोकती है जो चुनाव से पहले वोट हथियाने के मकसद से की जाती हैं। एक साथ सभी चुनाव को लेकर एक दलील यह दी जाती है कि इससे हमें अच्छा शासन मिलेगा। हालांकि इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि एक साथ एक चुनाव लागू होने के बाद सभी तरह की शासन संबंधी दिक्कतें दूर हो जाएंगी। यह समस्या आसानी से दूर की जा सकती है जब राजनीतिक दल ऐसा करना चाहें। सत्ता में मौजूद राजनीतिक दल निश्चित रूप से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सकता है, शासन को लोगों के बीच लोकप्रिय कर सकता है, निर्णय लेने की रफ्तार में तेजी ला सकता है और उन्हें सही तरीके से लागू करा सकता है।
ऐसा तभी संभव होगा जब उनके पास राजनीतिक इच्छाशक्ति होगी। अच्छी तरह से शासन करने के लिए ये चीजें जरूरी हैं। एक साथ एक चुनाव इस समस्या का समाधान नहीं है। हमारे संविधान में लोकसभा या विधानसभाओं के कार्यकाल खत्म होने पर चुनाव कराए जाने का प्रावधान है। पिछले साल कर्नाटक, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश के चुनाव हुए। इस साल लोकसभा चुनाव के साथ भी कुछ विधानसभाओं के चुनाव कराए गए। ऐसे में एक साथ सभी चुनाव कराना कैसे संभव है? जाहिर है कि हमें सभी विधानसभाओं का कार्यकाल अगले लोकसभा चुनाव तक बढ़ाना-घटाना होगा।
मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था में यह संभव नहीं है। हमें संविधान में बदलाव करना होगा। यह भी एक सवाल उठता है कि तब क्या होगा जब कोई सरकार कार्यकाल खत्म होने से पहले ही गिर जाती है? क्या अगले चुनाव तक राष्ट्रपति शासन लगा रहेगा? यह तो उस प्रदेश के मतदाताओं के साथ एक तरह से अन्याय होगा।
असली सवाल यह है कि हम किस समस्या को सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में जब देश के सामने तमाम बड़े मुद्दे हों चुनावी व्यवस्था में बदलाव लाने को शीर्ष प्राथमिकता में रखना कितना तर्कसंगत कहा जाएगा। बिना संविधान संशोधन के ऐसे किसी भी बदलाव को सुप्रीम कोर्ट खारिज कर सकता है।
हालांकि ऐसा बदलाव लाना भी दुष्कर कार्य है। शायद इस पूरी बहस का छिपा निहितार्थ उस खाई की अनदेखी करनी है जो एक ताकतवर केंद्रीय शासन और अधिक स्वायत्ता के साथ राज्यों के विकेंद्रीकृत शासन में मौजूद है। ऐसी आशंका जताई जा रही है कि एक साथ सभी चुनाव कराए जाने पर केंद्र और अधिकांश राज्यों में किसी एक ही राजनीतिक दल की सत्ता कायम रहेगी। केंद्र में सत्ताधारी दल से अप्रभावित रहते हुए अभी भी राज्यों और स्थानीय स्तर पर अच्छे शासन-प्रशासन के दृष्टांत देखे जा सकते हैं। केंद्र और राज्य में अलग दलों की सरकार होने पर कभी-कभी रस्साकशी की स्थिति पैदा हो जाती है। यह हालत एक साथ सभी चुनाव कराए जाने के बाद भी रहेगी।
(संस्थापक चेयरमैन, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्स)
लोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एप