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फुटपाथ पर फल बेच रही डॉ. रईसा अंसारी, बेल्जियम से मिला था शोध का अवसर, जानिए संघर्ष की पूरी कहानी

2011 में इंदौर के ही देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंस्ट्रूमेंटेशन से रईसा ने पीएचडी हासिल की है।

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Sat, 25 Jul 2020 11:55 AM (IST)Updated: Sat, 25 Jul 2020 02:37 PM (IST)
फुटपाथ पर फल बेच रही डॉ. रईसा अंसारी, बेल्जियम से मिला था शोध का अवसर, जानिए संघर्ष की पूरी कहानी
फुटपाथ पर फल बेच रही डॉ. रईसा अंसारी, बेल्जियम से मिला था शोध का अवसर, जानिए संघर्ष की पूरी कहानी

इंदौर, राज्‍य ब्‍यूरो। भौतिकशास्‍त्र में पीएचडी डिग्री हासिल करने वाली डॉ. रईसा अंसारी इंदौर के मालवा मिल क्षेत्र में सड़क किनारे ठेले पर फल बेच रही हैं। दो दिन पहले रईसा उस समय सुर्खियों में आई थीं, जब ठेले हटाने पहुंचे नगर निगम के कर्मचारियों को अंग्रेजी में खरी-खोटी सुनाई थी। 50 रुपए किलो में आम का सौदा करती रईसा को देखकर उससे फल खरीदने वाले भी अंदाजा नहीं लगा पाते हैं कि साधारण सी दिखती यह महिला भौतिकशास्‍त्र में वैज्ञानिक शोध कर चुकी है।

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इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ा चुकी हैं डॉ. रईसा

फर्स्ट क्लास एमएससी के बाद मटेरियल साइंस में पीएचडी करने वाली रईसा को बेल्जियम में रिसर्च प्रोजेक्ट में जुड़ने का अवसर मिला था। डॉ. रईसा की कहानी भले ही कौतुहल लगे, लेकिन वे कहती हैं कि कुछ दस्तखतों और पारिवारिक परिस्थितियों ने मेरी जिंदगी की दिशा बदल दी। इसके बाद उन्होंने फल बेचने के अपने पारिवारिक  व्यवसाय को चुन लिया इसके लिए वे किसी को दोष नहीं देती। 2011 में इंदौर के ही देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंस्ट्रूमेंटेशन से रईसा ने पीएचडी हासिल की है। इससे पहले इसी यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ फिजिक्स से रईसा ने एमएससी की डिग्री भी प्रथम श्रेणी में हासिल की। 

रईसा का संघर्ष 

पीएचडी के साथ ही शुरू हुआ था। हाल ही में जब सब्जी मंडी में अपने ठेले को बचाने के लिए विरोध करती रईसा का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ तो यूनिवर्सिटी के कई प्रोफेसरों ने इस युवती को पहचान लिया। देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ फिजिक्स के प्रमुख और पूर्व प्रभारी कुलपति प्रो.आशुतोष मिश्रा कहते हैं कि मुझे याद है रईसा का पीएचडी का वायवा नहीं हो पा रहा था। मैं तब रेक्टर था। रईसा ने थीसिस सबमिट होने के बावजूद दो साल से वायवा नहीं लेने की शिकायत की थी। इसके बाद हम खुद विभाग में पहुंचे थे और उसका वायवा करवाया था।

दस्तखत और पारिवारिक परिस्थितियों ने बदली दिशा 

दरअसल, ये सच्चाई है कि विश्वविद्यालय के इस विभाग से भौतिकशास्‍त्र में पीएचडी करने वाले हर छात्र को करियर के बेहतर मौके मिले। हो सकता है कि रईसा अपनी परिस्थितियों के कारण अवसर चूक गई हों। रईसा कहती हैं कि जिंदगी बदलने की शुरुआत उसकी पीएचडी के साथ हुई। एक हस्ताक्षर ने उसकी जिंदगी में बदलाव की शुरुआत की, उसी का नतीजा है कि मैं आज फल बेच रही हूं। 

दस्तखत ने रोकी बेल्जियम की राह 

फल बेच रही रईसा को पीएचडी के दौरान रिसर्च के लिए बेल्जियम से ऑफर मिला था। रईसा कहती हैं कि उस समय मैं सीएसआइआर की फेलोशिप पर आइआइएसईआर कोलकाता में रिसर्च कर रही थी। दरअसल बेल्जियम में चल रहे एक रिसर्च प्रोजेक्ट में यूनिवर्सिटी के मेरे सीनियर अनुपम, शिल्पा, रंजीत काम कर रहे थे। उनके रिसर्च हेड ने मुझे शामिल करने की अनुमति दी और ऑफर लेटर यहां भेज दिया। वहां जाने के लिए मेरे पीएचडी गाइड की सहमति जरूरी थी लेकिन उन्होंने सहमति पत्र पर दस्तखत करने से इन्कार कर दिया। उस समय मैं सीएसआइआर फेलोशिप में कोलकाता के आइआइएसईआर में भी रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए गई थी। बेल्जियम का मौका हाथ से निकला तो मैं बहुत दु:खी हुई और कोलकाता से भी लौट कर आ गई। 

दो साल तक मेरा वायवा रोका गया

अब फल बेच रही रईसा के अनुसार मैं 2004 में पीएचडी के लिए रजिस्टर्ड हुई थी। लेकिन मुझे पीएचडी अवॉर्ड हुई 2011 में। उपाधि मुझे चार साल मिल जानी थी। लेकिन हुआ ये कि एक बार मुझे जूनियर रिसर्चर का अवॉर्ड मिला। मीडिया ने तब मेरे गाइड का नाम पूछा। मेरे गाइड मीडिया के सामने आना नहीं चाह रहे थे। मैंने यूनिवर्सिटी के एक अन्य प्रोफेसर का नाम लिया। उन्होंने मीडिया में इंटरव्यू दिया। बस इसके बाद से मेरे गाइड का रवैया बदला। मैंने माफी मांगी, लेकिन उन्हें गलतफहमी हुई कि मैंने उन्हें अनदेखा किया। इस गलतफहमी की वजह से दो साल तक वायवा नहीं हो सका। 

तत्कालीन रजिस्ट्रार डॉ. आरडी मूसलगांवकर और रेक्टर प्रो. आशुतोष मिश्रा ने मदद की तो मेरी पीएचडी मुझे मिल सकी। सहायक प्राध्यापक बनीं, लेकिन पारिवारिक हालातों के कारण नौकरी छोड़ी इसके बाद मैंने स्थानीय निजी इंजीनियरिंग कॉलेज में सहायक प्राध्यापक के रूप में फिजिक्स पढ़ाया। बाद में पारिवारिक स्थितियां बदलीं। मेरी भाभियों ने परिवार पर दहेज प्रताड़ना के आरोप लगाए। छोटे बच्चों को छोड़कर दो भाभियां चली गईं। भाई के बच्चे छोटे थे लिहाजा उनकी देखभाल के लिए मैंने नौकरी छोड़ दी और परिवार के साथ फल बेचना बेहतर समझा। 

रिसर्च तो अब भी करना चाहती हूं

रईसा के परिवार में 25 लोग हैं। स्थानीय नेहरू नगर की बेकरी गली में रहने वाली रईसा के अनुसार तीन भाई, माता-पिता के साथ भाइयों के आठ बच्चे परिवार में हैं। दो भाभियां छोड़कर जा चुकी थीं। तब ये बच्चे बहुत छोटे थे। इनकी देखभाल के लिए मैंने करियर छोड़ दिया। बच्चे और बहन अब भी मेडिकल और लॉ की पढ़ाई कर रही हैं। उन्हें पढ़ाने के लिए मैंने प्राइवेट नौकरी करने की बजाय फल बेचना उचित समझा। वो दौर ऐसा था कि वर्षों तक सरकारी प्रोफेसरों की भर्ती भी नहीं निकाली गई थी। डॉ. रईसा का कहना है कि अवसर मिले तो वे

अब भी शोध कार्यों से जुड़ना चाहती हैं।


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