उम्मीदों के चिराग
खुद लौ की तपिश सहकर दूसरों की राह रोशन करता है दीपक। यशा माथुर ने समाज में तलाशे ऐसे ही लोग, जिन्होंने स्वयं को समर्पित कर कई जिंदगियों में भरा प्रकाश का उल्लास.. शिक्षा की रोशनी : [जेके सिन्हा, 6
खुद लौ की तपिश सहकर दूसरों की राह रोशन करता है दीपक। यशा माथुर ने समाज में तलाशे ऐसे ही लोग, जिन्होंने स्वयं को समर्पित कर कई जिंदगियों में भरा प्रकाश का उल्लास..
जेके सिन्हा, 68 वर्ष, पटना
मुसहर जनजाति की दयनीय हालत ने सिन्हा को ऐसा झकझोरा कि अपनी पहली पोस्टिंग में ही उन्होंने तय कर लिया कि रिटायरमेंट के बाद उनके बीच शिक्षा की अलख जलाएंगे.. अंधकार को मत कोसो, उम्मीद का एक दीप जलाओ। कुछ इसी तरह की सोच रखते हैं पटना के सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी जेके सिन्हा। मुसहर जनजाति के बच्चों में शिक्षा का उजाला फैला रहे सिन्हा को लगता है कि शिक्षा परिवर्तन का सबसे बड़ा माध्यम है। उनकी इच्छा है कि इस वंचित जाति के बच्चे प्रशासनिक अधिकारी बनें, इंजीनियर, डॉक्टर बनें, मैनेजमेंट करें और उत्प्रेरक बनकर अपने समुदाय की दयनीय हालात में परिवर्तन लाएं। यह सपना उन्होंने चालीस साल पहले देखा था, जब वे अपनी पहली पोस्टिंग पर बिहार गए थे। एक चोरी की वारदात के बाद अपराधियों की धरपकड़ के लिए जब वे मुसहर टोली में गए तो बच्चों को सूअरों के साथ सोते देख सहम गए। तभी उन्होंने ठान लिया कि वे इनके जीवन में बदलाव लाएंगे।
अपने मिशन को रिटायरमेंट के बाद शुरू कर पाने के बारे में कहते हैं, तब सरकारी सेवा में होने के कारण मैं यह सब नहीं कर सकता था। जब 2005 में रिटायर हुआ, तो इस उद्देश्य को लेकर पटना आ गया। 2007 में इस जनजाति के बच्चों को शिक्षित करने के लिए एक स्कूल शुरू किया। इनका कोई घर नहीं था और शिक्षा के लिए माहौल की भी जरूरत थी, इसलिए मैंने नि:शुल्क आवासीय स्कूल खोलने के बारे में सोचा।
शोषित सेवा संघ के अध्यक्ष सिन्हा के स्कूल में इस समय करीब 280 मुसहर बच्चे इंगलिश मीडियम से पढ़ रहे हैं। वे कहते हैं, शुरू-शुरू में मुसहर माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते थे, लेकिन अब जब बच्चे अंग्रेजी में बात करते हैं तो गांव में हलचल मच जाती है। शुरुआत के चार बच्चों का बैच इस समय ग्यारहवीं में है। अगर इनका जोश, लगन ऐसे ही बरकरार रहा, तो इन्हें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक पाएगा।
प्लस टू स्कूल के लिए सीबीएसई के नियमों के मुताबिक सिन्हा ने दो एकड़ जमीन खरीद ली है और अब हर सुविधा से युक्त स्कूल बनाना चाहते हैं। उन्होंने 2020 तक 1,000 बच्चों को पढ़ाने का लक्ष्य तय किया है। जब यह बच्चे अपनी जाति में बाल विवाह का विरोध करते हैं, शिक्षा की जरूरत समझाते हैं, तो उन्हें बदलाव की दस्तक नजर आती है!
मनोहर एैच, 100 वर्ष कोलकाता (100 साल के सूरमा)
1952 में देश के लिए पहली बार मिस्टर यूनिवर्स का खिताब लाने वाले मनोहर बेशक सौ साल के हो गए हैं, लेकिन आज भी अखाड़े में खुद खड़े होकर पहलवानों को दांव-पेंच सिखाते नजर आते हैं..
जहां चाह है, वहीं राह है। सफलता के इस राज की बदौलत मनोहर एैच 100 साल की उम्र हो जाने के बावजूद खुद को हमेशा फिट रखते हैं, वहीं दूसरों को भी फिट रहने के लिए प्रेरित करते हैं। खुद गरीबी में जीते हुए भी दीपक बन कर जलते रहे और अपने शिष्यों की जिंदगी में उजाला फैलाते रहे। उन्हें मजबूत बनने का पाठ पढ़ाते रहे। उनकी लंबाई चार फीट दस इंच है, लेकिन आज भी डोले-शोले दिखाने का जज्बा बरकरार है। अपनी जीवन यात्रा में वह अब तक 5,000 से भी ज्यादा बॉडी बिल्डर तैयार कर चुके हैं।
1952 में मिस्टर यूनिवर्स का खिताब जीतने वाले मनोहर कहते हैं, इच्छाशक्ति स्वयं में होती है। इसे कोई दूसरा नहीं पैदा कर सकता। मनोहर ग्यारह साल की उम्र से बॉडी बिल्डिंग कर रहे हैं। उन्होंने बचपन से आर्थिक विपन्नता झेली है, लेकिन खुद की बॉडी बिल्डिंग जारी रखने और दूसरों को सबक देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। बासी भात में नींबू निचोड़ कर खाने के दिनों में भी उन्होंने हिम्मत का दामन नहीं छोड़ा। जब बांग्लादेश छोड़कर आए, तब रहने को घर तक नहीं था।
1942 में उन्होंने ब्रिटिश आधिपत्य वाले भारत की रॉयल एयरफोर्स को ज्वाइन किया और अपने शौक को आगे बढ़ाया। शराब, सिगरेट को कभी हाथ नहीं लगाया। आज भी जो मिलता है, खा लेते हैं। व्यायाम करते हैं, तनाव मुक्त रहते हैं, प्यार और आशीर्वाद बांटते हैं।
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मुश्ताक अहमद शेख, 49 वर्ष डोडा, जम्मू व कश्मीर(चनाब के फरिश्ते )
पहाड़ी नदी चिनाब के बर्फीले पानी में डूबकर बह जाने वालों को बचाने-निकालने का जोखिम भरा काम खुद अपनी जान हथेली पर लेकर कर रहे हैं मुश्ताक अहमद शेख..
इच्छाशक्ति का छोटा सा दीपक कैसे प्रकाश बनने में कामयाब हो जाता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जम्मू व कश्मीर के डोडा जिले के मुश्ताक अहमद शेख। चिनाब नदी के बर्फ जैसे ठंडे पानी में कूद कर लोगों की जान बचाने वाले मुश्ताक को गर्व है अपने काम पर। पिछले आठ सालों से चिनाब नदी से लड़ रहे हैं हम। अभी तक पचास लोगों को बचा चुके हैं। चिनाब रेस्क्यू के नाम से हमारी 25 लोगों की टीम है। हम किसी से पैसा नहीं लेते। मुश्ताक की टीम के कुछ लोग नदी में उतरते हैं तो बाकी के लोग ऊपर से कवर कर लेते हैं, ताकि कोई ऊपर से पत्थर न फेंक दे। माइनस डिग्री के पानी में वे दो-दो घंटे तक रहते हैं। बस एक जुनून-सा है मुश्ताक शेख, रियाज हुसैन मिंटू और डॉ. मतलूब अहमद टाक जैसे चिनाब रेस्क्यू के सदस्यों को।
जम्मू-कश्मीर के पहाड़ों के बीच बहती चिनाब वह नदी है, जिसमें हर दूसरे हफ्ते कोई न कोई दुर्घटना हो जाती है। कभी पूरी गाड़ी चिनाब में गिर जाती है, तो कभी कोई आदमी। एक-दो बार तो हेलीकॉप्टर भी गिर चुका है। जैसे ही कोई दुर्घटना होती है चिनाब रेस्क्यू टीम सतर्क हो जाती है और जुट जाती है अपने अभियान में, जबकि पहाड़ी नदी के तेज बहाव में तैरने के लिए उनके पास पर्याप्त उपकरण तक नहीं हैं।
इस अनोखे काम की शुरुआत हुई तो कैसे? जवाब में मुश्ताक बताते हैं, करीब 20 साल पहले जब हम पुल डोडा में नहा रहे थे, तो फौज का एक आदमी आया और उसने दरिया में छलांग लगा दी। उसे पानी की गहराई का अंदाजा नहीं था। जब वह डूबने लगा, तो हमने उसे बचाया। वह पहला केस था। उसके बाद से हम चिनाब के किनारों पर ही रहते हैं। कोई भी हमसे संपर्क कर सकता है। जब हम दो-तीन दिन के लिए नाका लगाते हैं, तो घर वाले हमारे लिए खाना बनाकर चिनाब के किनारे ही पहुंचा देते हैं!
आकाश सिन्हा, 36 वर्ष दिल्ली(रोबोटिक्स के मास्टर )
अमेरिकी सेना के लिए रोबोट बना रहे आकाश के दिल में कसक थी देश के लिए काम करने की। वे लौट आए विदेश से और जुट गए भारतीय सशस्त्र सेना के लिए रोबोट बनाने में..
आकाश सिन्हा ने जब रोबोटिक्स का प्रोफेशन चुना था, तब उन्हें यही कहा गया कि इसमें जॉब नहीं है, लेकिन उनकी गहरी रुचि और कुछ कर गुजरने की चाहत ने उन्हें ऐसा चिराग बना दिया, जो आज देश की रक्षा के लिए जल रहा है और हर घर में उजाला फैलाने को बेताब है। अमेरिका से स्वदेश लौटने और दिल्ली को अपनी कार्यस्थली बनाने के बारे में आकाश बताते हैं, आठ-दस साल में मैंने यूएस आर्मी के लिए करीब 3,000 रोबोट बनाए। उन्होंने मुझे सम्मानित भी किया, लेकिन मन में असंतोष था कि मैं भारत के लिए काम नहीं कर पा रहा हूं। मैंने यहां आकर डीआरडीओ से कहा कि हम भारतीय सशस्त्र सेना के लिए रोबोट बना सकते हैं। जब हमें समर्थन मिला, तो हमने तय समय से पहले ही रोबोट बना दिए और डीआरडीओ को सौंप दिए। अब भारतीय सेना में इन्हें लेने का ट्रायल चल रहा है।
क्या कमाल दिखा सकते हैं उनके बनाए रोबोट? इसकी विस्तृत जानकारी देते हुए वे बताते हैं, हमने ग्राउंड रोबोट बनाए हैं। जिन दुर्गम और कठिन इलाकों में सैनिक तैनात किए जाते हैं वहां इस मशीन को भेजा जा सकता है। यह सारे डाटा, फोटो भेजेगी, जानलेवा मौसम में चौबीसों घंटे काम करेगी, सीमा पर विस्फोटक सामान उठाकर ले जाएगी, जासूसी भी करेगी, इसके द्वारा शस्त्र भी भेजे जा सकेंगे। इन रोबोट्स का इस्तेमाल सीमा पर तो किया ही जा सकता है, 26/11 जैसी आतंकवादी घटनाओं पर कार्रवाई में भी यह कामयाब हो सकते हैं।
तकनीक के क्षेत्र में भारत की विदेशों पर निर्भरता आकाश को विचलित करती है। वे इसे कम करना चाहते हैं। अमेरिका में उन्होंने फ्लाइंग रोबोट ड्रोन और ग्राउंड रोबोट के कोऑर्डिनेशन की तकनीक पर काम किया था। भारत में वे ड्रोन बना चुके हैं और अपनी कंपनी ओमनीप्रेजेंट टेक के जरिए सेना के सामने पेश करने वाले हैं। आम लोगों के रोजमर्रा काम, बुजुर्गो की सेवा के लिए भी रोबोट बनाएंगे आकाश। मेडिकल रोबोटिक्स में भी उनकी कोशिश चल रही है। वह नैनो रोबोट्स बनाकर खून की सफाई करने में इस तकनीक का इस्तेमाल करना चाहते हैं!
बीजू वर्गीज, 38 वर्ष केरल (विकलांगता को चुनौती)
पेशे से बिजली मिस्त्री बीजू ने विकलांगता को चुनौती देते हुए अपनी कार को मोडिफाई किया और ऐसी 'रेट्रो फिटमेंट किट' बनाई, जो विकलांगों के लिए वरदान बन गई..
कई बार कोई बड़ी दुर्घटना भीतर तक झकझोर देती है। इस दर्द का अहसास एक संकल्प के रूप में उभरता है। कठिन परिस्थितियों में उपजे इस संकल्परूपी दीपक की लौ दूसरों के लिए नई राहें खोल देती है। केरल के बीजू वर्गीज के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। 1998 में एक सड़क दुर्घटना के बाद पक्षाघात होने पर व्हील चेयर उनकी हर वक्त की साथी बन गई। वे ठहर गए थे, लेकिन पेशे से इस बिजली मिस्त्री को 38 साल की उम्र में यह गमगीन जिंदगी स्वीकार नहीं थी। उन्होंने एक छोटा सा झोंपड़ीनुमा वर्कशॉप बनाया और लग गए अपने जीवन की शिथिलता दूर करने में।
महंगी कार मैं खरीद नहीं सकता था, इसलिए तीन साल तक लगातार काम किया, कई मॉडल बनाए और जब कार के तीनों कंट्रोल पूरी तरह से मेरे हाथों में आ गए तो मैंने अपनी कार के लिए रेट्रो फिटमेंट किट तैयार की। इसे अटैच करने के बाद मैं अपनी मर्जी से बाहर जाने लगा और लोगों से मिलने लगा। मेरी जिंदगी का अंधेरा दूर हो गया था और अब बारी थी मेरे जैसे लोगों तक इस उजाले की किरणें पहुंचाने की। वह मैंने किया और अपने जैसे अन्य विकलांगों की कारों में भी इस किट को फिट किया। मलयाली भाषा में संवाद करते बीजू वर्गीज के शब्दों का हिंदी में अनुवाद करते हैं डॉ. जिंस जोसेफ और बताते हैं कि विकलांग होने के बावजूद केरल से पुणे और बैंगलोर तक ड्राइव कर चुके हैं बीजू।
रेट्रो फिटमेंट किट की उपयोगिता देखते हुए सरकार ने बीजू को कारों में मोडिफिकेशन का लाइसेंस दे दिया और इस प्रकार का लाइसेंस पाने वाले वे भारत के पहले नागरिक बन गए। तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें बेस्ट इन्वेंटर ऑफ इंडिया का खिताब देकर सम्मानित भी किया। उन्हें इंडिया पॉजिटिव अवार्ड से भी नवाजा गया है। अब तक वे करीब 300 कारों में बदलाव कर चुके हैं और शरीर के निचले हिस्से में विकलांगता का श्राप झेलते लोगों को घूमने-फिरने का वरदान दे चुके हैं!
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