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दिव्यांग बच्ची ने दिया मकसद और प्रशांत गाडे ने बनाना शुरू किया कृत्रिम हाथ

मोटी तन्ख्वाह गाड़ी और लाइफ स्टाइल के आधार पर सफलता-असफलता का मानदंड तय करने वाली युवा पीढ़ी में प्रशांत गाडे जैसे लोग भी हैं जो जिंदगी का मकसद तलाशने में जुटे हैं। बिना हाथ वाली सात साल की बच्ची ने उन्हें कृत्रिम अंग बनाने का मकसद दिया।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 11 Jan 2021 03:05 PM (IST)Updated: Mon, 11 Jan 2021 03:05 PM (IST)
दिव्यांग बच्ची ने दिया मकसद और प्रशांत गाडे ने बनाना शुरू किया कृत्रिम हाथ
जरूरतमंदों को नि:शुल्क बांट रहे हैं। हाल ही में वे कौन बनेगा करोड़पति के कर्मवीर एपिसोड में आए थे..

नेशनल डेस्क। मोटी तन्ख्वाह, गाड़ी और लाइफ स्टाइल के आधार पर सफलता-असफलता का मानदंड तय करने वाली युवा पीढ़ी में प्रशांत गाडे जैसे लोग भी हैं जो जिंदगी का मकसद तलाशने में जुटे हैं। बिना हाथ वाली सात साल की बच्ची ने उन्हें कृत्रिम अंग बनाने का मकसद दिया और आज वे बेहद कम लागत में दुनिया की सबसे उन्नत जेस्चर बेस तकनीक से कृत्रिम हाथ बना रहे हैं। जरूरतमंदों को नि:शुल्क बांट रहे हैं। हाल ही में वे कौन बनेगा करोड़पति के कर्मवीर एपिसोड में आए थे..

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नई दिल्ली, जेएनएन। 'मैं एक सात साल की बच्ची से मिला। बचपन से उसके दोनों हाथ नहीं थे। उस दिन पता नहीं क्यों मुङो लगा कि बस कुछ करना है। मैंने एक कंपनी को पत्र लिखा कि मुङो दो हाथ चाहिए। कंपनी ने इसकी कीमत बताई 24 लाख। सुनकर मैं चौंक गया था। बस उस दिन से मेरी जिंदगी का मकसद बदल गया। दुनिया का सबसे बेहतरीन कृत्रिम हाथ है जेस्चर बेस यानी इशारों पर चलने वाला हाथ। यह हाथ पैरों के मूवमेंट (गति) से मिलने वाले सिग्नल से चलता है। यह काफी मंहगा है और आम लोगों की पहुंच से बाहर है। पांच साल के भीतर मैंने दुनिया के इस जस्चर बेस हाथ को 25 हजार रुपये में बना दिया। यह हाथ हम जरूरतमंदों को नि:शुल्क उपलब्ध करवाते हैं। मैं तकनीक की मदद से दिव्यांगता को ही शब्दकोष से मिटा देना चाहता हूं।’

यहां से शुरू होती है प्रशांत गाडे की कहानी। मूलत: मध्य प्रदेश के खंडवा में रहने वाले प्रशांत बचपन से ही यह तलाशने की कोशिश करते थे कि उनकी जिंदगी का मकसद क्या है? इंजीनियरिंग में प्रवेश इसलिए लिया कि कुछ आविष्कार कर सके लेकिन पढ़ाई के दौरान उन्हें निराशा ही हाथ लगी। वे जो पढ़ रहे थे उसे हकीकत में करना चाहते थे लेकिन यह नहीं हो पा रहा था। उन्हें लगने लगा था कि वह किसी गलत जगह पर हैं। आखिरकार तीसरे साल में उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी।

परिवार वाले उनके इस कदम से काफी नाराज और निराश भी हुए लेकिन वे बड़े भाई के पास पुणो चले गए और एक लैब में पार्ट टाइम काम करने लगे। यहीं पर उन्हें रोबोटिक्स के पाठ्यक्रम के बारे में पता चला। छह माह की ट्रेनिंग के दौरान उन्हें एक प्रोजेक्ट करना था। इसके लिए आइडिया तलाशते हुए उनकी मुलाकात निकोलस हचेट से हुई। दुर्घटना में अपना एक हाथ खो चुके निकोलस ने खुद के लिए अपना एक बायोनिक हाथ बनाया था। उनसे मिलकर प्रशांत को अपना प्रोजेक्ट तो मिल गया लेकिन मकसद पाना अभी बाकी था। इसी दौरान वे बिना हाथ वाली बच्ची से मिले। उसकी मदद के लिए वे कृत्रिम हाथ दिलाना चाहते थे लेकिन 24 लाख बड़ी रकम थी। यहीं से उन्होंने तय किया कि वे हाथ गंवा चुके लोगों की मदद करेंगे।

आंकड़े और चौंकाने वाले थे : प्रशांत ने जब इस पर शोध शुरू किया तो आंकड़े और चौंकाने वाले थे। लगभग 40 हजार लोग हर साल अपना हाथ दुर्घटना में गंवा देते हैं। इनमें से 85 फीसद ऐसे लोग हैं जो बगैर हाथ के ही जिंदगी गुजार देते हैं। अपने प्रोटोटाइप की डिजाइनिंग पर दिन-रात मेहनत की और एक कम लागत वाला कृत्रिम हाथ बनाया। यहीं से इनाली आर्म्स की शुरुआत हुई। हालांकि इसके आगे का रास्ता और कठिन था क्योंकि कम लागत के बावजूद इसके निर्माण और नि:शुल्क उपलब्ध करवाने के लिए फं¨डग की जरूरत महसूस हुई। तब जयपुर की एक संस्थान ने सात कृत्रिम हाथ बनाने का ऑर्डर दिया। इस दौरान वे फंड जुटाने के लिए कोशिश करते रहे। वर्ष 2016 में अमेरिका के एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर ने अमेरिका बुलाया, काम के बारे में जानकारी ली और फिर 10 मशीनें भेंट की।

कोहनी से ऊपर वाले हाथ के निर्माण में जुटी इनाली फांउडेशन में अब 13 सदस्य हैं। इनमें इंजीनियर्स से लेकर फील्ड वर्कर तक शामिल हैं। इसके सदस्य भूषण बताते हैं कृत्रिम हाथ दो तरह के होते हैं। एक कोहनी से नीचे और एक कोहनी से ऊपर। कोहनी से नीचे वाले कृत्रिम हाथ तो बन गए हैं। अब हम कोहनी से ऊपर वाले हाथ बना रहे हैं। बाजार में इस तरह के आधुनिक हाथों की कीमत 10-12 लाख बताई जाती है जबकि हम 15-20 हजार में बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इनाली फाउंडेशन एक मोबाइल वैन शुरू करना चाहता है। इसके जरिये हम गांव-गांव पहुंचकर यह काम करना चाहते हैं। 


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