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आज फिर याद आए देवानंद

नई दिल्ली। मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया..आज ये लाइन गुनगुनाकर कई लोग उस सदाबहार हीरो को याद कर रहे है जिनका आज जन्मदिन है, जी हां हम बात कर रहे हैं देवानंद की। वैसे तो वो इस दुनिया से रुखसत हो गए है..लेकिन आज भी लोगों के दिलों में उस गाइड की यादें बसी हुई है.

By Edited By: Published: Wed, 26 Sep 2012 01:25 AM (IST)Updated: Wed, 26 Sep 2012 01:26 AM (IST)
आज फिर याद आए देवानंद

नई दिल्ली। मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया..आज ये लाइन गुनगुनाकर कई लोग उस सदाबहार हीरो को याद कर रहे है जिनका आज जन्मदिन है, जी हां हम बात कर रहे हैं देवानंद की। वैसे तो वो इस दुनिया से रुखसत हो गए है..लेकिन आज भी लोगों के दिलों में उस गाइड की यादें बसी हुई है.देवानंद का जन्म 26 सितंबर 1923 को हुआ था। इस मशहूर शख्शियत को 2001 में पद्मा भूषण और 2002 में दादासाहेब फाल्के अवार्ड से नवाजा गया। 65 साल के लम्बे कैरिएर में उन्होंने 114 फिल्मों में काम किया, इसमें 104 फिल्मों में उन्होंने मुख्या किरदार निभाया, इसके अलावा उन्होंने 2 अंग्रेजी फिल्में भी की।

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जीते-जी मिथक बन चुके अभिनेता, निर्माता, निर्देशक देवानंद का निधन न केवल हिन्दी फिल्म जगत वरन भारत के लिए अपूरणीय क्षति है। उन्हें भले भारत-रत्न मिला हो, लेकिन वे भारत के अनमोल रत्नों में से एक थे। आज कितने ऐसे रचनाकार हैं जिनके नाम के आगे सदाबहार का विशेषण लगता हो। देवानंद ने आजीवन इस विशेषण के साथ न्याय भी किया। 88 वर्ष की उम्र तक वे फिल्मी दुनिया में सक्रिय रहे, अगर मौत का बुलावा नहीं आता, तो शायद अगले कुछ और साल उनकी रचनात्मकता पर हिन्दी फिल्म जगत दातों तले उंगलिया दबाता रहता। 26 सितंबर, उनके जन्मदिवस पर न जाने पिछले कितने बरसों से उनकी जीवटता, कर्मठता, नौजवानी के जोश से भरी कार्यशैली पर चर्चा होती, साथ ही उनके कुछ लोकप्रिय गीतों को बजाकर उन्हें जन्मदिन की बधाई दी जाती, जैसे मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया। जिंदगी का साथ निभाना किसे कहते हैं, यह सचमुच देवानंद से सीखा जा सकता था। उनकी उम्र बढ़ते रही और वे उम्र को चुनौती देते हुए बढ़ते रहे। अपने 88वें जन्मदिन पर दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि मैं अपनी उम्र के बारे में तब तक नहीं सोचता, जब तक कोई मुझसे मेरी उम्र न पूछे। उम्र के लिहाज से जिसे दुनिया बुढ़ापा कहती है, उस दौर में देवानंद खुद को युवा महसूस करते थे। यही कारण था कि वे अंतिम क्षणों तक फिल्में बनाने के बारे में सोचते रहे। बुढ़ापे की भावना तारी न हो, इसलिए हरदम कुछ नया करने की सोचते रहे। वे अपनी फिल्मों के सेट पर सबसे पहले आते थे और सबसे आखिरी में जाते थे। उनका मानना था कि फिल्में समाज को संदेश देने का सबसे युवा माध्यम हैं, इसलिए अगर आप खुद को थका हुआ महसूस करें या उम्र का तकाजा याद आने लगे तो फिल्में बनाना छोड़ देना चाहिए। सचमुच देवानंद के प्रोडक्शन हाउस नवकेतन के बैनर तले जो फिल्में बनी, उसमें युवाओं को जोड़ने के लिए कुछ विशेष तत्व अवश्य रखे गए। यह देवानंद की फिल्मों के जरिए समाज को कुछ सकारात्मक देने की प्रतिबध्दता ही थी। उनकी फिल्मों, अभिनय आदि के बारे में सबकी अपनी पसंद-नापसंद हो सकती है, लेकिन यह तथ्य अपनी जगह बरकरार है कि उनमें एक अलहदा शैली होती थी, जो अपनी ओर ध्यान खींचती थी। दरअसल देवानंद का जीवन उनकी फिल्मों की तरह ही था, जो भले थोड़ी लंबी होती थीं, लेकिन ऐसी रोचक कि लगता कभी खत्म ही न हों।

देवानंद उस दौर के अभिनेता रहे हैं, जब फिल्में समाज शिक्षण का माध्यम मानी जाती थी। विशुध्द मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता, सास्कृतिक पतन का निर्ला प्रदर्शन और नैतिकता, मर्यादा को ताक पर रखना स्वीकार्य नहींथा, न फिल्मकारों, अभिनेताओं को, न दर्शकों को। जनता जो देखना चाहती है, वही हम दिखाते हैं, ऐसे भोथरे तर्को की आड़ में रचनात्मकता के साथ खिलवाड़ करने वाले इस सत्य को देखना नहींचाहते कि आज भी समाज उत्कृष्टता की सराहना करता है। इसका प्रमाण है देवानंद की फिल्मों के प्रति जनता का प्यार। गाइड, हम दोनों, ज्वेलथीफ ऐसी कई फिल्में हैं, जिन्हें आज की युवा पीढ़ी भी उतने ही चाव से देखती है, जितनी पुरानी पीढ़ी। राजकपूर, देवानंद, अशोक कुमार, गुरुदत्त, बलराज साहनी उस पीढ़ी के फिल्म निर्माता-निर्देशक, अभिनेता रहे, जिन्होंने अपनी फिल्मों के माध्यम से समाज को संदेश दिया। गुलामी का दौर, आजादी के लिए भारत का संघर्ष, नवस्वतंत्रता के बाद भारत का पुनर्निमाण इन सबकी साक्षी यह पीढ़ी रही है, इसलिए उनकी फिल्मों में देशभक्ति का तत्व किसी न किसी प्रकार जुड़ता ही था, लेकिन इसके साथ ही समाज की बुराइयों को उजागर करने और उन्हें दूर करने की पहल इस पीढ़ी ने दर्शकों के समक्ष रखी। आज देशभक्ति की जगह उग्रराष्ट्रवाद की भावना हावी है और बुनियादी सामाजिक बुराइयों की जगह केवल महानगरों की जीवनशैली पर आधारित समस्याओं का बखान इस तरह है. मानो सारा भारत उनसे ग्रस्त है। फिल्मों में सामाजिक सरोकार के पतन के इस दौर में देवानंद के न रहने से एक ऐसी रिक्तता कायम हुई है, जो न जाने कब भर पाए।

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