देश में खाद्यान्न का उत्पादन बड़े स्तर पर होने के बावजूद बड़ी संख्या में लोग भुखमरी का संकट झेल रहे
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में खाद्यान्न का इतना भंडार है जो प्रत्येक स्त्री पुरुष और बच्चे का पेट भरने के लिए पर्याप्त है लेकिन इसके बावजूद करोड़ों लोग ऐसे हैं जो दीर्घकालिक भुखमरी और कुपोषण की समस्या से जूझ रहे हैं।
रवि शंकर। विकास के तमाम दावों के बावजूद भारत अभी भी गरीबी और भुखमरी जैसी बुनियादी समस्याओं के चपेट से बाहर नहीं निकल सका है। समय-समय पर होने वाले अध्ययन और रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि तमाम योजनाओं के एलान के बावजूद देश में भूख और कुपोषण की समस्या पर लगाम नहीं लगाई जा सकी है। देश में खाद्यान्न का उत्पादन बड़े स्तर पर होने के बावजूद आज भी बहुत बड़ी आबादी भुखमरी का संकट झेल रही है।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में खाद्यान्न का इतना भंडार है, जो प्रत्येक स्त्री, पुरुष और बच्चे का पेट भरने के लिए पर्याप्त है, लेकिन इसके बावजूद करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो दीर्घकालिक भुखमरी और कुपोषण या अल्प पोषण की समस्या से जूझ रहे हैं। भुखमरी के बढ़ते आंकड़ों के चलते 2030 तक भुखमरी हटाने का अंतरराष्ट्रीय लक्ष्य भी अब खतरे में पड़ गया है।
यह कितना दुखद है कि संयुक्त राष्ट्र अपनी रिपोर्ट में भुखमरी के लिए अघोषित युद्ध की स्थिति, जलवायु परिवर्तन, हिंसा, प्राकृतिक आपदा जैसे कारणों की तो बात करता है, लेकिन मुक्त अर्थव्यवस्था, बाजार का ढांचा और नव उदारवाद पर वह खामोश क्यों रहता है? यह ठीक है कि दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों की संख्या में कमी आई है। फिर भी विश्व में आज भी बहुत से लोग ऐसे हैं, जो भुखमरी से जूझ रहे हैं। विश्व की आबादी वर्ष 2050 तक नौ अरब होने का अनुमान लगाया जा रहा है और इसमें करीब 80 फीसद लोग विकासशील देशों में रहेंगे। एक ओर हमारे और आपके घरों में रोज सुबह रात का बचा हुआ खाना बासी समझकर फेंक दिया जाता है तो वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें एक वक्त का खाना तक नसीब नहीं होता और वे भूख से मर रहे हैं। कमोबेश हर विकसित और विकासशील देश की यही कहानी है। दुनिया में पैदा किए जाने वाले खाद्य पदार्थ में से करीब आधा हर साल बिना खाए सड़ जाता है।
भारत में इस स्थिति के कई सारे कारण हैं जिसमें गरीबी, महिलाओं की खराब स्थिति, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का बुरा प्रदर्शन, जरूरी पोषण का निम्न स्तर, लड़कियों की निम्नस्तरीय शिक्षा और नाबालिग विवाह आदि प्रमुख हैं। भूख की वैश्विक समस्या को तभी हल किया जा सकता है, जब इस लड़ाई में केंद्र और राज्य सरकारों के साथ वैश्विक संगठन अपने-अपने प्रोग्रामों को और भी प्रभावी तथा बेहतर ढंग से लागू करें। साथ ही कुपोषण का रिश्ता गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी आदि समस्याओं से भी है। इसलिए इन मोर्चो पर भी एक मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा। वास्तव में हमने निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण को ही विकास का बुनियादी आधार मान लिया है और इस अंधी दौड़ में भोजन के अधिकार कहीं कोने में दुबके नजर आते हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)