उद्धार और उभार का खेती बनेगी आधार, कृषि क्षेत्र में बढ़ रही मांग, ये हैं सुखद संकेत
संकट के बीच कृषि क्षेत्र में बढ़ती मांग एक अच्छा संकेत है। मई में ट्रैक्टरों की बिक्री बढ़ गई है।
अनिल सिंह। भारतीय कृषि के साथ इस समय चमत्कार हो रहा है। जब अर्थव्यवस्था के बढ़ने की दर 3.1 प्रतिशत के न्यूनतम स्तर पर आ गई है, तब कृषि क्षेत्र की विकास दर 5.9 प्रतिशत की ऐतिहासिक ऊंचाई पर है। जी हां, इस साल जनवरी-मार्च की तिमाही में यही कमाल हुआ है। यह हाल कोरोना के कहर से ठीक पहले का है। उसके बाद भी कृषि के मोर्चे से बराबर अच्छी ही खबरें आ रही हैं। जब देश का समूचा उद्योग क्षेत्र मांग की कमी से कराह रहा है, तब कृषि क्षेत्र से मांग बढ़ने के समाचार मिल रहे हैं। मई में ट्रैक्टरों की बिक्री बढ़ गई है।
महिंद्रा एंड महिंद्रा ने साल भर पहले की तुलना में 2 प्रतिशत ज्यादा ट्रैक्टर बेचे तो सोनालिका ट्रैक्टरों की बिक्री लगभग 19 प्रतिशत बढ़ गई। ट्रैक्टर निर्माता संघ के अध्यक्ष टीआर केशवन के मुताबिक, मई-जून को मिलाकर देश में ट्रैक्टरों की बिक्री 5 प्रतिशत बढ़ सकती है। मानसून के बाद सितंबर से मार्च के सीजन में तो बढ़त 5-10 प्रतिशत तक जा सकती है। इस बीच केरल में दक्षिण-पश्चिमी मानसून समय पर आ चुका है। उत्तरी से लेकर पश्चिमी राज्यों में बारिश का सिलसिला शुरू हो चुका है। मौसम विभाग के मुताबिक जून से सितंबर तक के चार महीनों में मानसून सामान्य से थोड़ा बेहतर रहेगा। इसलिए फसलों के लहलहाने की जमीन और माहौल तैयार हैं। खेती-किसानी में इधर कोई मायूसी नहीं दिख रही।
उर्वरक विभाग के ताजा आंकडों के मुताबिक इस बार अप्रैल में देश भर में उर्वरकों की बिक्री 45.10 प्रतिशत और मई में 97.73 प्रतिशत बढ़ी है। बीजों की मांग भी बढ़ रही है। जाहिर है कि हमारी कृषि कोरोना के कहर से बहुत हद तक अछूती नजर आ रही है। वैसे भी कोरोना जब से फैला है और लॉकडाउन का सिलसिला शुरू हुआ है, उस अवधि में मध्य-मार्च से मध्य-जून तक किसान काफी फुरसत में रहता है। फिलहाल, ट्रैक्टर जैसी खास और उर्वरक व बीज जैसी आम चीज की मांग का बढ़ना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि जिस कृषि ने देश की 58 प्रतिशत आबादी को संभाल रखा हो, उसमें देश की डूबती अर्थव्यवस्था को भी उठाने का दमखम भरा जा सकता है।
वैसे भी जब देश भर में उद्योग कोरोना से उपजे पलायन के बाद मजदूरों की कमी से त्रस्त हैं, तब
कृषि के आधार हमारे ग्रामीण अंचलों में पांच-छह करोड़ मजदूर वापस पहुंच चुके हैं। इन श्रमिकों की प्राथमिकता है कि वहीं गांवों या आसपास में कोई काम-धंधा मिल जाए ताकि उन्हें वापस शहरों का रुख न करना पड़े। गांवों में जमीन की कोई कमी नहीं, श्रम की कोई कमी नहीं। कच्चे माल की कमी नहीं। उद्यमशीलता की भी कमी नहीं। बस केवल पूंजी की कमी है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के एक अध्ययन के अनुसार देश मे हर साल 92,000 करोड़ रुपए के कृषि उत्पाद बरबाद चले जाते हैं। क्या हर इलाके में एग्रो प्रोसेसिंग इकाइयां लगाकर इनका मूल्यवर्धन नहीं किया जा सकता? फिर उन्हें चाहे देश में बेचो या विदेश में। बहुत सारे स्टार्ट-अप कृषि क्षेत्र में संभावनाएं तलाश रहे हैं।
सरकार ने हाल में हर्बल खेती के लिए जो 4000 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं, वह भी इसी दिशा में किया गया प्रयास है। केंद्र व राज्य सरकारें इस रबी सीजन की फसलों में किसानों से 29 मई तक लगभग 79,700 करोड़ रुपये का गेहूं, चना, अरहर, व सरसों वगैरह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद चुकी हैं। ऊपर से प्रधाननंत्री किसान सम्मान निधि स्कीम के तहत 2000 रुपये की पहली किस्त 24 मार्च के लॉकडाउन के बाद लगभग 8.89 किसानों के खाते में डाल दी गई है। फसल के दाम और सरकारी कृपा को मिला दें तो किसानों के खाते में इस समय लगभग 97,500 करोड़ रुपए आ चुके हैं।
इस तरह पूंजी भी थोड़ी बहुत मात्रा में किसानों के पास आ चुकी है। जमीन, श्रम, कच्चे माल व उद्यमशीलता के साथ पूंजी का बनता यह मेल कृषि को खेती-किसानी के दायरे से बढ़ाकर उद्योग की बुलंदियों तक पहुंचा सकता है। वित्त वर्ष 2019-20 के ताजा आंकड़ों को देखें तो देश के सकल मूल्य सर्जन या जीवीए (सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी में से टैक्स संग्रह घटाने के बाद बची रकम) में कृषि, मत्स्य पालन व वानिकी का योगदान 14.65 प्रतिशत तक सिमटा हुआ है, जबकि मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का योगदान भी 17.42 प्रतिशत पर अटका पड़ा है। हालांकि इस दौरान कृषि क्षेत्र का जीवीए 4 प्रतिशत बढ़ा है, जबकि मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का मात्र 0.03 प्रतिशत।
(लेखक अर्थकाम.कॉम के संपादक हैं)
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