दिल्ली ने पंजाब के जल बंटवारा समझौते रद करने के कानून का किया विरोध
जल विवाद में कुछ दिन पहले पंजाब के हक में बयान देने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सरकार ने शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट मे पंजाब के खिलाफ राग अलापा है।
जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। जल विवाद में कुछ दिन पहले पंजाब के हक में बयान देने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सरकार ने शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट मे पंजाब के खिलाफ राग अलापा है। दिल्ली सरकार ने पंजाब के पड़ोसी राज्यों के साथ जल बंटवारा करार रद करने के कानून का विरोध किया है।
दिल्ली का कहना है कि अगर पंजाब के कानून को मान लिया गया तो इससे बहुत खतरनाक और गलत नजीर पेश होगी क्योंकि इसकी देखादेखी अन्य राज्य भी तर्कसंगत कारणों के बजाए राजनैतिक कारणों से समझौते नजरअंदाज करने लगेंगे। अगर अन्य राज्य भी पंजाब का अनुकरण करने लगे तो दिल्ली सबसे ज्यादा प्रभावित होगा जिसके पास अपना पानी का कोई स्त्रोत नहीं है और जो दूसरों के स्त्रोतों पर निर्भर है।
पंजाब सरकार ने 2004 में पड़ोसी राज्यों के साथ जल बंटवारे के सभी समझौते रद कर दिये थे। जिसके बाद राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट में रिफरेंस भेज कर पंजाब के कानून पर कोर्ट से राय मांगी है। न्यायमूर्ति एआर दवे की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधानपीठ आजकल इस पर सुनवाई कर रही है। दिल्ली सरकार ने वकील सुरेश चंद्र त्रिपाठी के जरिए मौखिक और लिखित दलीलें पेश कर शुक्रवार को मामले में अपना पक्ष रखा।
दिल्ली ने अपने और पंजाब, हरियाणा, राजस्थान के बीच जल बंटवारे के समझौतों का हवाला देते हुए कहा है कि दिल्ली की 90 फीसद पानी की जरूरत यमुना और गंगा के पानी से होती है। दिल्ली को पानी देने के बारे में समझौते हैं। 12 मई 1994 में यूपी, हरियाणा, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश के बीच यमुना के जल बंटवारे का समझौता हुआ था।
पंजाब का एक तरफा कानून पास कर अंतरराज्यीय नदी के जल बंटवारे का 31 दिसंबर 1981 का समझौता रद करना असंवैधानिक है। पंजाब की कार्यवाही जल विवाद निपटारे की तय प्रक्रिया के खिलाफ है। पंजाब को ऐसा कानून पारित करने का अधिकार नहीं है। अंतरराज्यीय समझौते सिर्फ संबंधित राज्यों की सहमति से बदले जा सकते हैं या फिर संसद कानून बना कर बदल सकती है।
दिल्ली ने कहा है कि अगर पंजाब का कानून मान लिया गया तो उससे गलत और खतरनाक नजीर पेश होगी। क्योंकि अन्य राज्य भी तर्कसंगत कारणों के बजाए राजनैतिक कारणों से जल बंटवारे के समझौते नजर अंदाज करने लगेंगें। अगर अन्य राज्यों ने पंजाब का अनुकरण किया तो दिल्ली सबसे ज्यादा प्रभावित होगी जिसके पास पानी का अपना कोई स्त्रोत नहीं है और वो अन्य स्त्रोतों पर निर्भर है।
पंजाब का कानून संविधान के एकता और संघीय ढांचे के सिद्धांत के खिलाफ है। एकतरफा कानून पास कर समझौते रद करने से एकता प्रभावित होगी। दो राज्यों के लोगों के बीच कटुता और असंतोष पनपेगा। इतना ही नहीं पंजाब का कानून सुप्रीमकोर्ट के फैसलों को निष्कि्रय करता है जिसकी कानून में इजाजत नहीं है। उधर राजस्थान ने भी पंजाब के कानून का विरोध किया और कहा कि कोई राज्य एकतरफा कानून बना कर राज्यों को बीच के आपसी समझौते रद नहीं कर सकता।
पंजाब ने कहा सुप्रीमकोर्ट लौटा दे रिफरेंस
उधर पंजाब ने भी शुक्रवार को प्रेसीडेंट रिफरेंस पर अपना पक्ष रखते हुए कहा कि सुप्रीमकोर्ट को रिफरेंस का जवाब दिये बगैर लौटा देना चाहिए। कोर्ट के लिए जवाब देना जरूरी नहीं है इसके अलावा कोर्ट को जल विवाद मामले में सुनवाई का अधिकार भी नहीं है। ऐसे विवाद संविधान में दी गई प्रक्रिया और जल विवाद कानून के मुताबिक ही सुलझाए जा सकते हैं।
पंजाब ने कानून की तरफदारी करते हुए कहा कि उसने अपने राज्य के हित देखते हुए कानून पास किया है। प्राकृतिक तौर पर नदी में पानी की लगातार कमी होती जा रही है। 1981 का समझौते समय पानी की जो स्थिति थी उससे अब बहुत घट गई है। विशेषज्ञों की राय के बाद ये कानून पास किया है। पंजाब ने ये भी कहा कि उसने 2003 में केंद्र से पानी की शिकायत की थी और जल विवाद ट्रिब्युनल गठित करने को कहा था लेकिन जब डेढ़ साल तक ट्रिब्युनल नहीं गठित हुई तब कानून पारित किया गया। इतना ही नहीं पंजाब इसके बाद भी ट्रिब्युनल गठित करने की मांग करता रहा और अंत में 2015 में उसने ट्रिब्युनल की मांग को लेकर सुप्रीमकोर्ट में मुकदमा दाखिल किया। कानून कहता है कि ट्रिब्युनल एक साल के भीतर गठित होनी चाहिये। पंजाब की बहस अगली सुनवाई पर भी जारी रहेगी।