CWG में पदक जीतने वाली ये युवा लड़कियां मध्यमवर्गीय परिवारों से आती हैं, लेकिन हौसला आसमान से भी ऊंचा...
ये हैं वे वीरांगनाएं जिन्होंने जीवन रण में मिलने वाले संघर्ष से मजबूती से दो-दो हाथ किया है। अब खेल के मैदान में भी प्रतिद्वंद्वियों को पटखनी देने में उनका कोई सानी नहीं। cwg में पदक जीतने वाली ये युवा लड़कियां आम मध्यमवर्गीय परिवारों से आती हैं ऊंचा है...
सीमा झा। पता नहीं कब तक मुलाकात और सम्मानित होने का यह दौर चलता रहेगा। मुझे अपने प्रशिक्षण की चिंता हो रही है। अभी तो बहुत लंबा सफर है जो हमें तय करना है। यह कहती हैं कामनवेल्थ गेम्स में रेस वाक में रजत पदक जीतने वाली प्रियंका गोस्वामी। लंबे समय के प्रशिक्षण के बाद भी उनका मन थका नहीं है। वह लगातार दौड़ लगा रही हैं ओलिंपिक की मंजिल की तरफ। यह लक्ष्य बड़ा है, लेकिन उनके मुताबिक असंभव कुछ भी नहीं। ऐसा ही जज्बा उन सभी लड़कियों का है, जो इस बार बर्मिंघम में संपन्न कामनवेल्थ गेम्स में अपने साहस का परचम लहरा चुकी हैं। सचमुच, इनकी कहानी करोड़ों लड़कियों के लिए प्रेरक है। ये सभी अब रोल माडल बन चुकी हैं और हर दिल पर राज कर रही हैं।
उतार-चढ़ाव बनाते हैं मजबूत
छरहरी काया और हंसमुख स्वभाव की प्रियंका कहती हैं कि स्कूल के दिनों में जिम्नास्टिक खेल के बारे में जाना तो यह लुभा गया, पर प्रशिक्षक की डांट के कारण इस खेल से अरुचि होने लगी। हालांकि कभी भी कुछ सीखना बेकार नहीं जाता, जिम्नास्टिक के कारण ही मैं रेसवाक आसानी से कर लेती हूं। मेरठ (उ.प्र.) की प्रियंका गोस्वामी ऐसी पहली भारतीय महिला एथलीट बनी हैं, जिन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों में 10,000 मीटर रेस वाक कैटेगरी में भारत के लिए रजत पदक जीता है। उनकी एक और खास बात है, जो पदक समारोह में लोगों ने देखी। दरअसल, वह कृष्ण भक्त हैं और पदक लेते समय भी भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप लड्डू गोपाल को अपने साथ रखे थीं। इसका क्या कारण है? वह कहती हैं, मेरी मां लड्डू गोपाल की भक्त हैं। लाकडाउन में मैं काफी परेशान थी। प्रशिक्षण, अभ्यास सब बंद हो गया था। तब मां ने सलाह दी थी कि मैं अपने साथ लड्डू गोपाल रखूं। मैं ओलिंपिक के लिए क्वालिफाई कर पाई थी तो इसका कारण मैं इन्हें ही मानती हूं।
गौरतलब है कि प्रियंका गत वर्ष आयोजित टोक्यो ओलिंपिक में देश का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। यहां तक का सफर कैसे संभव हुआ, जबकि परिस्थितियां अनुकूल नहीं रहीं। इस पर वह कहती हैं, पिता रोडवेज में कंडक्टर थे। उनकी नौकरी चली गई, लेकिन उन्होंने कभी भी किसी चीज का अभाव नहीं महसूस होने दिया। मैंने पटियाला से बीए की पढ़ाई की। पिता ने कभी टैक्सी चलाई तो कभी अन्य छोटे-मोटे काम किए। कुछ हजार में पूरा परिवार चलाना और मुझे खेल में आगे बढ़ाना चुनौतीपूर्ण रहा, लेकिन आपमें लगन हो तो ऐसे उतार-चढ़ाव ही आपको मजबूत बना देते हैं।
भरोसे का दांव
बॉक्सिंग करते वक्त खुद पर जरा भी संदेह कर लूं तो अगला दांव खराब हो सकता है। संभव है कि सामने वाला आपको पटखनी दे दे। जिंदगी में भी यही है, खुद पर भरोसा नहीं हो तो आपके कदम लडख़ड़ा सकते हैं। कुछ इसी अंदाज में अपनी बात शुरू करती हैं मुक्केबाज नीतू घनघस। वह हरियाणा के भिवानी से हैं। पिता कभी हरियाणा विधानसभा में बिल मैसेंजर का काम करते थे, लेकिन नीतू की लगन देखकर उन्होंने जाब छोडऩे का फैसला कर लिया। उनका त्याग रंग लाया। हालांकि इसके लिए कई साल की तपस्या करनी पड़ी। नीतू कहती हैं, 2012 से मेरा सफर शुरू हुआ, लेकिन प्रदर्शन कुछ खास नहीं था। इसके बावजूद मैं रुकी नहीं। मेरे ऊपर पापा का भरोसा भी कायम रहा। वह मुझे स्कूल से बीच में ही ले आते थे कि ताकि मैं शाम के प्रशिक्षण से पहले थोड़ा आराम कर लूं।
पिता लंबा सफर तय करके प्रशिक्षण के लिए वहीं ले जाते, जहां से मेरे रोल माडल विजेंदर सिंह प्रशिक्षण ले चुके थे। घर की हालत ऐसी थी कि अक्सर लगता था कि अब आगे बढऩा मुमकिन नहीं, पर घरवालों ने कर्ज लेकर मेरे सपने को पूरा करने का सामान जुटाया। माता-पिता के संघर्ष देखकर मैैं छिप-छिपकर रोती थी। आखिरकार गुवाहाटी में 2017 में आयोजित विश्व मुक्केबाजी चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक मिला। मुझे पता नहीं था कि विश्व चैंपियनशिप क्या होती है, जीतने पर पता चला कि अरे, यह तो बड़ी जीत है, पर जीत का यह जश्न उस समय रुक गया जब कंधे में चोट लग गई। निराशा के बादल मन पर छाने लगे। एक बार फिर टूटने लगी, पर फिर पिता ने ही संभाला। मैं ठीक हुई और इस बार कामनवेल्थ में दमदार वापसी की। एकतरफा फाइनल मैच में इंग्लैंड की डेमी जाडे को 5-0 से हराकर स्वर्ण पदक जीता। नीतू रिंग में जब प्रतिद्वंद्वी मुक्केबाज को पंच जड़ रही थीं, तब हरियाणा में उनके स्वजन खुशी से झूम रहे थे। खास बात यह है कि नीतू ने कामनवेल्थ गेम्स में क्वालिफाई करने के लिए दिग्गज ओलिंपियन मैरीकाम को हराया था।
घुटने टेकना नहीं सीखा
इस बार के राष्ट्रमंडल खेलों में लान बाउल्स में गोल्ड मेडल जीतने वाली भारतीय टीम की खिलाड़ी रांची (झारखंड) की रूपा रानी टिर्की कहती हैं, जीवन में संघर्ष न होता तो शायद यहां नहीं होती। मैं उस खेल में हूं, जो भारत में अभी लोकप्रिय नहीं हुआ है। कामनवेल्थ गेम्स के 92 वर्ष के इतिहास में यह पहला मौका है, जब भारतीय लान बाउल्स महिला टीम ने कोई पदक जीता है। हालांकि यह सफर टेढ़े-मेढ़े रास्तों से भरा रहा है। रूपा कहती हैं, मुझे खुशी है कि एक वक्त पदक न जीत पाने के कारण हमारी आलोचना हो रही थी, लेकिन आज हमें सिर माथे पर बिठाया जा रहा है। वह भी कामनवेल्थ गेम्स था और यह भी कामनवेल्थ गेम्स है।
दरअसल, भारत में आयोजित 2010 के कामनवेल्थ में इस टीम को कड़े संघर्ष में कांस्य पदक से चूकना पड़ा था, लेकिन इस बार टीम ने इतिहास बना दिया। रूपा अब लान बाउल्स की एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी हैं, लेकिन एक वक्त वह कबड्डी खिलाड़ी थीं। पिता ने खेलकूद के लिए खूब प्रोत्साहित किया, लेकिन जब किशोर उम्र थी, पिता का देहांत हो गया। घर में रह गईं चार स्त्रियां। रूपा, मां और दो बहनें। आर्थिक संकट के साथ-साथ चारों को अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाना था और रूपा को भी अपना प्रदर्शन बरकरार रखना था। लान बाउल्स गेम उस वक्त नया था, लेकिन रूपा ने इसे चुनौती के रूप में लिया। खेल की सुविधाएं जुटाने के लिए खुद छोटे-मोटे काम किए। अपने पैरों पर खड़े होने की उनकी जिद ही थी कि वह खेल के साथ-साथ पढ़ाई पर भी उतना ही ध्यान देती थीं। वह कहती हैं, कामनवेल्थ गेम्स में हार के बाद मन टूटने लगा था। मैंने सोचा जितना समय खेल में देती हूं उतना ही अगर पढ़ाई में भी दूं तो चीजें आसान हो सकती हैं। रूपा ने यही किया और पढ़ाई काम आई। आज वह जिला खेल अधिकारी भी हैं तो इसका श्रेय उनके इसी संकल्प को जाता है।
मां हैं रोल माडल
किताबें पढऩे की शौकीन हैं दिल्ली की जूडो खिलाड़ी तूलिका मान। उन्होंने इस बार के राष्ट्रमंडल खेलों में जूडो में रजत पदक जीता है। उनके मुताबिक, उन्हें जीवनियां पढऩे का शौक है, जिससे जीवन के रंगों को पहचानने में मदद मिलती है। सात वर्ष की उम्र से जूडो सीखने वाली तूलिका का अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी बनने का सफर भी उन लड़कियों के लिए प्रेरणा है, जो हार मानना नहीं जानतीं। वह कहती हैं, मेरा इस कामनवेल्थ में खेलना भी तय नहीं था, पर अचानक पता चला कि मुझे खेलना है। मैं मानसिक तौर पर तैयार थी कि पदक लाना ही है। मां से मैंने वादा भी किया था। तूलिका उन दिनों को याद करती हैं जब पदक के बदले उन्होंने मां से प्ले स्टेशन दिलाने का वादा लिया था और ऐसा हुआ भी।
दरअसल, 2017 में हुई विश्व जूडो चैंपियनशिप में उन्होंने मां से किया वादा पूरा किया और स्वर्ण पदक जीता था। तूलिका के मुताबिक, मां ही रोल माडल हैं, जो उन्हें हर तरह के संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं। तूलिका की मां दिल्ली पुलिस में हैं। वह सिंगल मदर होकर भी तूलिका के सपने पूरे करने में जीवटता से जुटी हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनसे मुलाकात के दौरान इस बारे में सवाल पूछा तो तूलिका हैरान रह गई थीं। वह कहती हैं, मुझे याद है मां कैसे चौबीस घंटे के मिशन पर रहती थीं। पहले स्कूल, उसके बाद जूडो का प्रशिक्षण, घर और नौकरी के बीच घूमती हुई। एक वक्त ऐसा भी आया जब नौकरी छूटी और घर चलाना मुश्किल हो रहा था, पर संघर्ष के उन दिनों में ही एक खिलाड़ी यानी मैं तैयार हो रही थी। वह कहती हैं, मां ने मेरे पीछे अपनी सारी दौलत लगा दी है। मैं उनके चेहरे पर सिर्फ खुशी की चमक बिखेरना चाहती हूं।
उदाहरण स्थापित करें
मुक्केबाज नीतू घनघस ने बताया कि जब पहला पदक मिला तो सबके लिए यह अविश्वसनीय था, क्योंकि परिस्थितियां अनुकूल नहीं रहीं, पर अभाव में ही आपकी ताकत का पता चलता है। उदाहरण बनाने के लिए संघर्ष करना ही होता है। हर लड़की को यह समझना चाहिए, तभी समाज बदलेगा और बेटियों को लेकर दृष्टिकोण भी।
अपनी राह खुद तलाशें
अंतरराष्ट्रीय लान बाउल्स खिलाड़ी रूपा रानी टिर्की ने बताया कि संभव है कि आपको अपनी समस्या बड़ी लगे। कभी परिवार का साथ नहीं तो कभी रिश्तेदारों, समाज का दबाव, पर आपको अपने लक्ष्य पर नजर रखना है। खुद को साबित करना है कि आप अपनी राह खुद तलाश सकती हैं। हिम्मत हर हाल में बनाए रखें तो राह जरूर मिलती है।