महंगाई की गुगली में फंसी इंडस्ट्री, क्रिकेट गेंद पर गहराया चमड़े का संकट
उत्तर प्रदेश में गोवंश कटान पर बैन है इसलिए केरल से चमड़ा मंगा रहे हैं। चुनौती के बीच स्विटजरलैंड के गोवंश के चमड़े की मांग बढ़ी रही है।
By Taruna TayalEdited By: Published: Thu, 16 May 2019 11:26 AM (IST)Updated: Sat, 18 May 2019 10:07 AM (IST)
मेरठ, [जागरण स्पेशल]। खेल इंडस्ट्री मंहगाई की गुगली पर फंसती नजर आ रही है। घरेलू बाजार में गुणवत्तापूर्ण चमड़े का संकट खड़ा होने से क्रिकेट की गेंद बनाना महंगा पड़ रहा है। यूपी में गोवंश कटान पर प्रतिबंध होने से मेरठ की खेल इंडस्ट्री कोलकाता, केरल एवं अन्य प्रदेशों से चमड़ा खरीद रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर की गेंद बनाने के लिए उद्यमी आस्ट्रेलिया, स्वीडन, इंग्लैंड और स्विटरलैंड जैसे देशों से चमड़ा आयात कर रहे हैं। गेंदों का उत्पादन 30 फीसद तक महंगा हो गया है। क्रिकेट की गेंद बनाने के लिए गोवंश का चमड़ा सबसे उत्तम माना जाता है।
...पाकिस्तान हमसे आगे
बीडीएम कंपनी के निदेशक राकेश महाजन बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में गोवंश का चमड़ा प्रतिबंधित है जबकि केरल और जम्मू-कश्मीर समेत तमाम राज्यों में इसकी अनुमति है। बाजार में गोवंश के चमड़े की उपलब्धता घट गई है। ज्यादातर बूढ़े जानवरों का चमड़ा मिल रहा है। अन्य राज्यों से मंगाने पर गेंद का प्रोडक्शन महंगा हुआ है। उधर, पड़ोसी देश पाकिस्तान मे जवान पशुओं का चमड़ा उपलब्ध होने से स्पोर्ट्स इंडस्ट्री तेजी से बढ़ रही है। आस्ट्रेलियाई कंपनी कूकाबूरा की भी गेंदें यहां बनाई जा रही हैं। क्रिकेट उद्यमियों की मानें तो बीसीसीआई आस्ट्रेलियाई कंपनी कूकाबूरा से 8000 रुपए में एक गेंद खरीद रहा है। सफेद और पिंक गेंदों की कीमत और ज्यादा है। इधर, आइपीएल व क्रिकेट अकादमियों की बाढ़ से बल्ले एवं गेंदों की खपत बढ़ी है लिहाजा मांग व आपूर्ति के संतुलन में यूरोपीय देशों से आयात करने से मेरठ में गेंदों पर लागत ज्यादा आ रही है।
विदेशी चमड़ा खास
मेरठ में दर्जनों कंपनियां लेदर बाल बनाती हैं। एसजी देश में सर्वाधिक संख्या में गेंदें बनाती है। इस गेंद से भारत में टेस्ट मैच भी खेला जाता है। मेरठ की स्टेनफोर्ड कंपनी के निदेशक अनिल सरीन कहते हैं कि वो कोलकाता से प्रोसेस्ड चमड़ा मंगवाते हैं। इससे बनी गेंदें अकेडमी से लेकर घरेलू मैचों के लिए ठीक हैं। उन्होंने बताया कि भारतीय गोवंशों की लंबाई छह से सात फीट है, वहीं स्वीडन और स्विटजरलैंड में इनकी लंबाई दस फीट से ज्यादा मिलती है। विदेशी गोवंशों के चमड़े की मोटाई छह मिलीमीटर तक जबकि भारतीय नस्ल में यह तीन से चार मिलीमीटर मोटी तक मिलती है। इससे कंपनियां विदेशी नस्ल के गोवंशों का चमड़ा आयात करती हैं। इनसे बनी क्रिकेट गेंदें जल्दी खराब नहीं होतीं। संदर्भवश, गत वर्ष भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली ने भारतीय गेंदों के जल्द खराब होने की शिकायत बीसीसीआई से की थी।
इन्होंने बताया
उत्तर प्रदेश में गोवंश के चमड़े की उपलब्धता बेहद कम हो गई है। इससे क्रिकेट की गेंद बनाना महंगा हो गया है। मेरठ के उद्यमी कच्चा चमड़ा मंगाने के लिए अन्य देशों-प्रदेशों पर निर्भर हैं। स्विटजरलैंड, आस्ट्रेलिया व स्वीडन के गोवंश के चमड़ों से मेरठ व पाकिस्तान में विश्वस्तरीय गेंदें बन रही हैं।
- राकेश महाजन, निदेशक, बीडीएम
कच्चा चमड़ा कोलकाता से मंगाना पड़ रहा है। गोवंश के चमड़े की कमी देखते हुए विकल्पित चमड़े की गेंदें बनानी पड़ रही हैं। गेंद बनाना 25 फीसद तक महंगा हुआ है।
-अनिल सरीन, निदेशक, एसएफ
...तो गेंद नहीं होती खराब
क्रिकेट विशेषज्ञों का कहना है कि चमड़े की मोटाई ज्यादा होने से अब मैचों के बीच गेंदों की शक्ल नहीं बिगड़ती। कारण, गेंद के अंदर यूज होने वाले कंपोजिट कॉर्क में भी सुधार किया गया है। गुणवत्ता बरकरार रखने के लिए चमड़े को 1400 पाउंट की ताकत से काटा जाता है।
गोवंश का ही चमड़ा क्यों
क्रिकेट गेंद भैंस के चमड़े से भी बनाई जाती है लेकिन यह हार्ड होता है जबकि गोवंश का चमड़ा नरम होने से गेंद की गुणवत्ता बढ़ती है।
...पाकिस्तान हमसे आगे
बीडीएम कंपनी के निदेशक राकेश महाजन बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में गोवंश का चमड़ा प्रतिबंधित है जबकि केरल और जम्मू-कश्मीर समेत तमाम राज्यों में इसकी अनुमति है। बाजार में गोवंश के चमड़े की उपलब्धता घट गई है। ज्यादातर बूढ़े जानवरों का चमड़ा मिल रहा है। अन्य राज्यों से मंगाने पर गेंद का प्रोडक्शन महंगा हुआ है। उधर, पड़ोसी देश पाकिस्तान मे जवान पशुओं का चमड़ा उपलब्ध होने से स्पोर्ट्स इंडस्ट्री तेजी से बढ़ रही है। आस्ट्रेलियाई कंपनी कूकाबूरा की भी गेंदें यहां बनाई जा रही हैं। क्रिकेट उद्यमियों की मानें तो बीसीसीआई आस्ट्रेलियाई कंपनी कूकाबूरा से 8000 रुपए में एक गेंद खरीद रहा है। सफेद और पिंक गेंदों की कीमत और ज्यादा है। इधर, आइपीएल व क्रिकेट अकादमियों की बाढ़ से बल्ले एवं गेंदों की खपत बढ़ी है लिहाजा मांग व आपूर्ति के संतुलन में यूरोपीय देशों से आयात करने से मेरठ में गेंदों पर लागत ज्यादा आ रही है।
विदेशी चमड़ा खास
मेरठ में दर्जनों कंपनियां लेदर बाल बनाती हैं। एसजी देश में सर्वाधिक संख्या में गेंदें बनाती है। इस गेंद से भारत में टेस्ट मैच भी खेला जाता है। मेरठ की स्टेनफोर्ड कंपनी के निदेशक अनिल सरीन कहते हैं कि वो कोलकाता से प्रोसेस्ड चमड़ा मंगवाते हैं। इससे बनी गेंदें अकेडमी से लेकर घरेलू मैचों के लिए ठीक हैं। उन्होंने बताया कि भारतीय गोवंशों की लंबाई छह से सात फीट है, वहीं स्वीडन और स्विटजरलैंड में इनकी लंबाई दस फीट से ज्यादा मिलती है। विदेशी गोवंशों के चमड़े की मोटाई छह मिलीमीटर तक जबकि भारतीय नस्ल में यह तीन से चार मिलीमीटर मोटी तक मिलती है। इससे कंपनियां विदेशी नस्ल के गोवंशों का चमड़ा आयात करती हैं। इनसे बनी क्रिकेट गेंदें जल्दी खराब नहीं होतीं। संदर्भवश, गत वर्ष भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली ने भारतीय गेंदों के जल्द खराब होने की शिकायत बीसीसीआई से की थी।
इन्होंने बताया
उत्तर प्रदेश में गोवंश के चमड़े की उपलब्धता बेहद कम हो गई है। इससे क्रिकेट की गेंद बनाना महंगा हो गया है। मेरठ के उद्यमी कच्चा चमड़ा मंगाने के लिए अन्य देशों-प्रदेशों पर निर्भर हैं। स्विटजरलैंड, आस्ट्रेलिया व स्वीडन के गोवंश के चमड़ों से मेरठ व पाकिस्तान में विश्वस्तरीय गेंदें बन रही हैं।
- राकेश महाजन, निदेशक, बीडीएम
कच्चा चमड़ा कोलकाता से मंगाना पड़ रहा है। गोवंश के चमड़े की कमी देखते हुए विकल्पित चमड़े की गेंदें बनानी पड़ रही हैं। गेंद बनाना 25 फीसद तक महंगा हुआ है।
-अनिल सरीन, निदेशक, एसएफ
...तो गेंद नहीं होती खराब
क्रिकेट विशेषज्ञों का कहना है कि चमड़े की मोटाई ज्यादा होने से अब मैचों के बीच गेंदों की शक्ल नहीं बिगड़ती। कारण, गेंद के अंदर यूज होने वाले कंपोजिट कॉर्क में भी सुधार किया गया है। गुणवत्ता बरकरार रखने के लिए चमड़े को 1400 पाउंट की ताकत से काटा जाता है।
गोवंश का ही चमड़ा क्यों
क्रिकेट गेंद भैंस के चमड़े से भी बनाई जाती है लेकिन यह हार्ड होता है जबकि गोवंश का चमड़ा नरम होने से गेंद की गुणवत्ता बढ़ती है।
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