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जेनरिक दवाओं के लिए दुनिया भारत पर आश्रित, कम कीमत में ब्रांडेड दवाओं जैसी ही असरकारी

Coronavirus impact on Generic Medicines कोविड-19 संकट के दौरान हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन की मांग ने यह साबित कर दिया है कि दवाओं की दुनिया में भारत विश्व की बड़ी उम्मीद बन कर उभरा है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 22 May 2020 01:17 PM (IST)Updated: Fri, 22 May 2020 01:26 PM (IST)
जेनरिक दवाओं के लिए दुनिया भारत पर आश्रित, कम कीमत में ब्रांडेड दवाओं जैसी ही असरकारी
जेनरिक दवाओं के लिए दुनिया भारत पर आश्रित, कम कीमत में ब्रांडेड दवाओं जैसी ही असरकारी

नई दिल्ली। Coronavirus impact on Generic Medicines: जेनरिक दवाओं और टीकों के मामले में भारत का दुनिया में कोई सानी नहीं है। कोविड-19 संकट के दौरान हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन की मांग ने यह साबित कर दिया है कि दवाओं की दुनिया में भारत विश्व की बड़ी उम्मीद बन कर उभरा है। भारत दुनिया के कई देशों को जेनरिक दवाओं का निर्यात कर रहा है, हालांकि भारत की अपनी सीमाएं हैं। दवाओं के निर्माण के लिए कच्चा माल हासिल करने के लिए उसे चीन की ओर निहारना पड़ता है। यह विडंबना ही है कि जब चीन से दुनिया कन्नी काट रही है और भारत की ओर देख रही है, ऐसे में भारत को चीन की ओर ताकना पड़ रहा है।

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दवाओं की दुनिया में इस तरह सिरमौर बना भारत : भारतीय कंपनियों ने नामचीन दवाओं की रिवर्स इंजीनियरिंग के जरिये कानूनी रूप से मान्य इनके दूसरे संस्करण लॉन्च किए। 1995 में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) ने दवा पेटेंट को 20 साल की सुरक्षा देने का समझौता पेश किया और कंपनियों को इसके पालन के लिए 10 साल दिए गए। हालांकि जब एचआइवी संकट आया तो स्पष्ट था कि गरीब देशों को सस्ती दवाओं की जरूरत थी। डब्ल्यूटीओ ने माना कि सदस्य देश सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए आवश्यक दवाओं के सामान्य संस्करण बनाने के लिए निर्माताओं को लाइसेंस दे सकते हैं। 2001 में, भारतीय दवा कंपनी सिप्ला ने कई ब्रांड नाम वाली दवाओं की रिवर्स इंजीनियरिंग की। अफ्रीकी देशों और सहायता समूहों के लिए एक डॉलर एक दिन के लिए दवा की पेशकश की गई, ब्रांड-नाम वाले संस्करणों से यह 96 फीसद से अधिक सस्ती दवाएं थी।

कम कीमत, समान परिणाम : जेनरिक दवाएं वे हैं जो कि ब्रांडेड दवाओं की कॉपी होती हैं और समान परिणाम देती हैं, लेकिन इनकी कीमत कम होती हैं। भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआइआइ) और केपीएमजी के अप्रैल 2020 के अध्ययन में सामने आया है कि अमेरिका में दवाओं का 90 फीसद बाजार जेनरिक दवाओं का हैं। तीन में से हर एक उपभोग की जाने वाली दवा का उत्पादन भारतीय निर्माता द्वारा किया जाता है। भारत अपने कच्चे माल का करीब 68 फीसद चीन से प्राप्त करता है, जिसे एक्टिव फॉर्मास्युटिकल इंग्रीडिएंट्स (एपीआइ) के नाम से जाना जाता है। इसकी आपूर्ति श्रृंखला में किसी भी खलल से बड़ी परेशानी खड़ी हो सकती है।

वैश्विक दवाओं में भारत का उदय : सस्ती दवाओं के वैश्विक निर्माता के रूप में भारत का उदय तब शुरू हुआ, जब तत्कालीन केंद्र सरकार ने पेटेंट अधिनियम 1970 पारित किया। इसने दवा बनाने के लिए उपयोग की जाने वाली प्रक्रियाओं को कानूनी संरक्षण दिया, न कि किसी दवा सामग्री को। भारतीय दवा कंपनी एसीजी वर्ल्डवाइड के प्रबंध निदेशक करण सिंह का कहना है कि सरकार को महसूस हुआ कि उसकी बड़ी आबादी कभी भी आयातित पेटेंट दवाओं का खर्च उठाने में सक्षम नहीं होगी और इसका हल ढूंढने की जरूरत है।

प्रतिबंध हटने से हुआ नुकसान : भारत में संपन्न थोक दवा और एपीआइ उद्योग हुआ करता था, लेकिन 1990 के दशक की शुरुआत में आयात प्रतिबंध हटा दिए गए। इससे जेनरिक दवा निर्माता को चीन से कच्चा माल मंगाने लगे। एक रिपोर्ट के मुताबिक, चीन में एपीआइ की लागत 30 फीसद तक कम थी। वहीं चीन की सरकार ने चीनी दवा कंपनियों को बड़े एपीआइ प्लांट लगाने के लिए बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित किया। जिससे वे लागत को कम करने में सक्षम रहे।

महामारी के दौरान आपूर्ति : चीन में लॉकडाउन के दौरान चीन से तुरंत खरीद और आपूर्ति श्रृंखला को सुनिश्चित करने की कोशिश की गई। स्थानीय व्यापारियों द्वारा रखे गए स्टॉक को प्राप्त करने की भी कोशिश हुई, लेकिन यह बहुत कम और बहुत अधिक महंगा था। कुछ कंपनियों ने चीन से कच्चे माल के लिए निजी विमानों को किराए पर लेने की कोशिश की। हालांकि मार्च मध्य में, चीन में लॉकडाउन में ढील दी गई, लेकिन महामारी के कारण वैश्विक सीमा बंद होने से कोई भी कोशिश काम नहीं आ सकी। भारत के विदेश व्यापार महानिदेशालय के निदेशक पीसी मिश्रा ने अप्रैल के अंत में कहा कि अगर हम मार्च 2020 और मार्च 2019 की तुलना करें तो पाते हैं कि चीन से आयात 40 फीसद कम हुआ है।

कोई सबक नहीं सीखा : 2008 में बीजिंग ओलंपिक के दौरान चीन ने वायु प्रदूषण को कम करने के लिए तीन सप्ताह तक एपीआइ संयंत्र बंद कर दिए थे। उसके बाद, भारत सरकार ने एपीआइ का उत्पादन करने के लिए मेगा फार्मा पार्कों के निर्माण का विचार किया, लेकिन वित्तीय सहायता की कमी से परियोजना ठंडे बस्ते में चली गई। हाल ही में इस पर पुनर्विचार हुआ है। 21 मार्च को केंद्र सरकार ने थोक दवाओं और निर्यात के घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए 1.3 बिलियन डॉलर के पैकेज के रूप में इस योजना को पुनर्जीवित किया है। भारत अमेरिका में बेची जाने वाली जेनेरिक दवाओं के 24.5 फीसद का स्नोत है। फार्मास्यूटिकल्स एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल के अध्यक्ष दिनेश दुआ ने कहा कि चीन पर निर्भरता खत्म करने में कम से कम 10 साल लगेंगे।


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