Coronavirus India Lockdown Day-9: एहतियात के लिए 'दूर रहके और पास आ गए हम'
Coronavirus India Lockdown Day 9 इस लॉकडाउन ने एकांत प्रेमियों की सोच बदल दी है। समाज और पड़ोस से कटे-कटे रहने वाले भी दिल ही दिल में पास आने लगे हैं।
नई दिल्ली [सीमा झा]। कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन के इन दिनों में शारीरिक दूरी बनाए रखने की कड़ी हिदायत दी जा रही है, क्योंकि इस लड़ाई में सबसे प्रभावी हथियार यही है। बेशक यह पीड़ादायक है, पर इससे दिलों की राहें भी कहीं ज्यादा आसान हो गई हैं। बीते रविवार ‘मन की बात’ कार्यक्रम के जरिए हमारे प्रधानमंत्री ने भी संदेश दिया कि इस शारीरिक दूरी के कारण ‘भावनात्मक दूरी’ को कतई नहीं बढ़ने देना है। एहतियात के लिए अपनाई गई यह दूरी दरअसल हमें और करीब ला रही है। पढ़ें- विशेषज्ञों से बातचीत पर दैनिक जागरण की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट।
खिड़कियों से बाहर, बॉलकनी या छतों से झांक रही हैं उम्मीदें। इंतजार है कब लॉकडाउन खत्म हो और अपनों को गले लगाएं, दोस्तों के घर जाएं, अपने सपोर्ट सिस्टम से भी पहले से ज्यादा प्यार जताएं। फोन की घंटियां अब सुहानी लगने लगी हैं, कोई हाल पूछे तो दिल लुटा देने को जी चाहता है। पेशे से शिक्षक सुनील कहते हैं, ‘अभी घर पर रहना जरूरी है पर कब तक, यह सोचकर कांप जाता हूं। एकांत प्रेमी रहा हूं पर अब समझ में आ गया है कि हम समाज से अलग नहीं रह सकते।’ हालांकि अभी की हकीकत इसकी इजाजत नहीं देती कि आप यूं ही बाहर टहलने निकल जाएं। दिल बहलाने के कई ख्याल-साधन मौजूद हैं यहां, पर संशय के काले बादल छंटते नहीं। वैसे, हर तस्वीर के दूसरे पहलू की तरह यहां भी है। कभी समाज और पड़ोस से कटे-कटे रहने वाले भी दिल ही दिल में पास आने लगे हैं। किसने सोचा होगा कि चिकित्सकों के साथ-साथ लोग सफाई कर्मचारियों पर भी फूल बरसाएंगे। कब इतनी शिद्दत से मन ही मन अपने सपोर्ट सिस्टम को नमन किया होगा।
कोरोना एक शिक्षक
आपदा कभी बताकर नहीं आती, पर अपने साथ बड़े बदलाव जरूर लाती है। एक शिक्षक की तरह कड़े सबक देती है ताकि हमारी आगे की राह सरल हो सके। समाजशास्त्री रितु सारस्वत के मुताबिक, ‘कोरोना एक शिक्षक ही तो है। हम कुछ बड़ा परिवर्तन चाहते थे। अब यह दुनिया बदलनी चाहिए, यह इच्छा लंबे समय से थी। हालांकि आपदा की शक्ल में बदलाव को कोई कैसे स्वीकार करे। हमें इंतजार करना चाहिए। इसमें छिपे हैं सकारात्मक बदलाव भी!’ रितु सारस्वत आगे यह भी बताती हैं कि हालांकि इंसान विस्मृति का शिकार जल्दी हो जाता है, पर आपदा काल में हमारा व्यवहार कैसा रहने वाला है, यही तय करेगा आगे की राह। समाजशास्त्री डॉ. श्वेता प्रसाद के मुताबिक, इस अभूतपूर्व आपदा में बड़े स्तर पर विनाश कर डालने की ऊर्जा जरूर है, पर इंसान की दृढ़ इच्छाशक्ति इसे झुठला सकने का दमखम रखती है। वे कहती हैं, ‘इंसान समाज से दूर इन दिनों शिशु की तरह हो गया है, उसकी आखों में अपने दोस्तों से मिलने की छटपटाहट साफ महसूस की जा सकती है।’
न छू पाने की अव्यक्त पीड़ा
पहले कब ऐसा हुआ होगा जब स्पर्श न करना अनिवार्य हो। और तो और, इसके लिए सख्ती बरती जाए। जाहिर है छू न पाने की पीड़ा अव्यक्त है, क्योंकि यह एक स्वाभाविक क्रिया है। पर इन दिनों छू जाने के कारण अजीब से डर और अपराध भाव से ग्रसित हो रहे हैं लोग। दरअसल, स्पर्श के बाद शरीर के भीतर निकलने वाला ऑक्सीटोसीन हार्मोन हमारे लिए जीवनी ऊर्जा है। यही हार्मोन है जो हमें आनंद और एक तरह से सहज महसूस कराता है। उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन की कार्नेगी मेलॉन यूनिवर्सिटी के रिसर्च एसोसिएट माइकल मर्फी इस हार्मोन को प्राकृतिक दर्द निवारक दवा मानते हैं। येल यूनिवर्सिटी के समाजविज्ञानी और फिजिशियन निकोलस क्रिस्टेकिज के अनुसार, कोरोना के कारण अलग रहने की मजबूरी ने इन दिनों इंसानी भावनाओं को दबाने के लिए मजबूर कर दिया है। समाजशास्त्री रितु सारस्वत इस मजबूरी को आगे चलकर बेहद प्रभावी मान रही हैं, जो समाज को नए सिरे से स्थापित और परिभाषित कर सकता है।
भीड़ क्यों खींचती है हमें
तन अंदर और मन बाहर रहता है इन दिनों। क्या आपने कभी महसूस किया है कि भीड़ में जाने के बाद आपकी इंद्रियां सहज हो जाती हैं, आप उसका एक हिस्सा हो जाते हैं। मेले, सम्मेलन या उत्सव के दौरान जहां लोग बड़ी संख्या में जुटते हैं, वहां उमंग जग जाता है। आखिर भीड़ इतना क्यों लुभाती रही है! इस संबंध में फ्रांस के समाजशास्त्री दुर्खिम का सिद्धांत प्रासंगिक लगता है। समाजशास्त्री डॉ. श्वेता प्रसाद के मुताबिक, भीड़ को दुर्खिम ने देवत्व का स्थान दिया, जहां इंसान सकारात्मक ऊर्जा महसूस करता है। इस सबंध में उन्होंने ‘कलेक्टिव कंससनेस’ यानी ‘सामूहिक चेतना’ की बात कही है। डॉ. प्रसाद कहती हैं, ‘जब लॉकडाउन शुरू हुआ, तब नवरात्र का समय चल रहा था। इस दौरान अगर लोगों को पूजा-पाठ, रामनवमी मेले, आयोजन आदि का न हो पाना खटक रहा है, तो इसका कारण भी यही है।’ पहले हम अपनी सुविधानुसार कभी भी भीड़ या एकांत का चुनाव कर लेते थे, पर भीड़ हमेशा साथ चलती थी। लॉकडाउन में इसकी अहमियत अब ज्यादा समझ में आ रही है। मनोवैज्ञानिक गीतिका कपूर के मुताबिक, टेक्नोलॉजी में रमे हैं लोग, पर यह इंसान का विकल्प नहीं बन सकती।
संवेदनशीलता ही मुश्किल से उबारेगी हमें
मनोवैज्ञानिक गीतिका कपूर मानती हैं कि कोरोना वायरस ने हमारी दृष्टि साफ की है। पहले तमाम व्यस्तताओं के बीच हम काफी कुछ नहीं देख पाते थे। यह इंसान का स्वभाव है कि वह आपदा में तुरंत झुक जाता है सच्चाई की तरफ। सच्चाई यही कि समाज का हर वर्ग एक-दूसरे से जुड़ा है। लोग बड़ी संख्या में सामाजिक कार्यों में हिस्सा ले रहे हैं तो यह इस अहसास का सबसे बड़ा सबूत है कि हम एक-दूसरे की अहमियत को समझ रहे हैं। कोरोना के खतरे के भय से दूर वे सुरक्षित दूरी बरतते हुए जनहित के कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। केवल इसी समय नहीं, इंसान हर आपदा में से खुद को इसी संवेदनशीलता से निकाल सका है।
परिवार और समाज पर बढ़ेगा भरोसा
समाजशास्त्री डॉ श्वेता प्रसाद के अनुसार बेशक अभी हम शारीरिक दूरी बरत रहे हैं, पर यह कभी मन से दूर नहीं होने देगी, यह जाहिर है। इंसान सामाजिक संबंधों से ही आगे बढ़ सकता है यह साफ समझ में आ रहा है। भारतीय समाज में परिवार का महत्व हमेशा से रहा है, पर अब इसका महत्व और बढ़ेगा। कोरोना ने कई मान्यताओं-धारणाओं पर कुठाराघात किया है। यह वक्त के गर्भ में है कि क्या-क्या बदलेगा, पर मानस अब घर के भीतर इस बदलाव की आहट को महसूस कर रहा है। हमें चिंतन करने का अवसर मिला है कि इंसान कुदरत के आगे कुछ नहीं है। संशय है, तो यही हमें करुणा, साहस और प्रेम की ओर भी ले जा रहा है।
क्या करें
- अपने सपोर्ट सिस्टम, जिनसे आपका रोज का वास्ता रहता था, उनका हालचाल लें, उनकी जरूरतों को सुनें, उन्हें भरसक पूरा करने का प्रयास करें।
- सोशल मीडिया का सकारात्मक उपयोग करें। वहां जरूरतमंदों से जुड़ें, तकनीक के माध्यम से उनकी मदद कर सकते हैं।
- अपनों से बातचीत करते रहें। उनका हौसला लगातार बढ़ाते रहना इस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है।
- पड़ोसियों से मिल नहीं सकते, पर बॉलकनी या अपने दरवाजे पर उचित दूरी बनाते हुए उनसे लंबी बातचीत हो सकती है। यह अवसर है आसपास से कटे परिवेश से दोबारा जुड़ने का।