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कोरोना महामारी और लॉकडाउन के प्रकोप ने माओवादी-नक्सलियों को किया प्रभावित

वामपंथी उग्रवाद प्रभावित सभी राज्यों में माओवादी-नक्सली जैसे अराजक तत्व अपने लिए राशन और अन्य आवश्यक वस्तुओं की खरीद मुख्य रूप से गांव-स्तर के हाट बाजारों से ही करते हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 16 May 2020 01:12 PM (IST)Updated: Sat, 16 May 2020 01:13 PM (IST)
कोरोना महामारी और लॉकडाउन के प्रकोप ने माओवादी-नक्सलियों को किया प्रभावित
कोरोना महामारी और लॉकडाउन के प्रकोप ने माओवादी-नक्सलियों को किया प्रभावित

सत्यवान सौरभ। नक्सलवाद को भारत की सबसे बड़ी आंतरिक सुरक्षा खतरों में से एक माना जाता है। वर्तमान महामारी और उसके बाद लॉकडाउन के प्रकोप ने नक्सलियों को अलग-अलग तरीके से प्रभावित किया है। इस दौरान इनकी भी खाद्य एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की आपूíत प्रभावित हुई है। वामपंथी उग्रवाद प्रभावित सभी राज्यों में माओवादी-नक्सली जैसे अराजक तत्व अपने लिए राशन और अन्य आवश्यक वस्तुओं की खरीद मुख्य रूप से गांव-स्तर के हाट बाजारों से ही करते हैं। इन हाट बाजारों के अस्थायी रूप से बंद होने के कारण फिलहाल वे खाद्य आपूर्ति की भयावह कमी का सामना कर रहे हैं।

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लॉकडाउन की स्थिति ने माओवादियों की हताशा को बढ़ा दिया है और वे अपने मकसद को पूरा करने के लिए ग्रामीणों का शोषण कर रहे हैं। माओवादियों ने कथित तौर पर आंध्र प्रदेश और ओडिशा में इस महीने की शुरुआत में एकतरफा संघर्ष-विराम की पेशकश की थी, खासकर आंध्र-ओडिशा बॉर्डर स्पेशल जोनल कमेटी के तहत आने वाले क्षेत्रों में। माओवादियों का यह कहना है कि कोविड-19 से लड़ने के लिए अपने मूल क्षेत्रों में सरकार के राहत कार्यो को सुविधाजनक बनाने के लिए उन्होंने ऐसा किया है, लेकिन यह माना जा रहा है कि यह प्रस्ताव अवसरवादी और भ्रामक है।

वास्तविकता यह है कि वे अपने लिए जरूरी सामग्रियों की आपूर्ति का रास्ता खोल कर रखना चाहते हैं ताकि उन्हें किसी चीज की दिक्कत न हो। संकट सिर पर मंडराता देख ये उग्रवादी भले ही संघर्ष-विराम की पेशकश कर चुके हों, लेकिन बीते माह के दौरान घटित अनेक घटनाएं यह दर्शाती हैं कि इनके इरादे नहीं बदले हैं। ऐसे में नक्सलवाद को समाप्त करने के लिए केंद्र सरकार को एक सुसंगत राष्ट्रीय रणनीति को लागू करने की आवश्यकता है। नक्सल नेताओं और संबंधित सरकारी अधिकारियों के बीच निरंतर संवाद कायम करने से इस समस्या का समाधान तलाशा जा सकता है।

सरकार को नक्सलियों के साथ ईमानदारी से बातचीत शुरू करनी चाहिए। साथ ही उसे चाहिए कि अधिक रोजगार सृजित करे और मजदूरी की दरें बढ़ाए। हमें समझना होगा कि इन क्षेत्रों में असुरक्षित आजीविका और बेरोजगारी ने लोगों को नक्सलियों से जुड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा है। यदि हम वास्तव में नक्सलवाद को समाप्त करने के तरीकों के बारे में सोच रहे हैं तो हमें सबसे पहले उस क्षेत्र के लोगों को उचित मजदूरी के साथ उचित रोजगार प्रदान करना होगा। साथ ही इस प्रभावित आबादी के पुनर्वास पर अधिक जोर देने की जरूरत है। समाज के कमजोर वर्ग अभी भी उच्च वर्ग से भेदभाव का सामना करते हैं। सामाजिक रूप से पिछड़े आदिवासी असमानता, अशिक्षा और अवसरों की कमी के कारण नक्सलियों के लिए प्रमुख समर्थन आधार बनाते हैं। इन लोगों को नक्सलियों के जाल में फसने से रोकना महत्वपूर्ण है।

इन राज्यों में कानून प्रवर्तन एजेंसियों का आधुनिकीकरण करना होगा। इन क्षेत्रों में सुरक्षा व्यवस्था भले ही राज्य पुलिस के जिम्मे है, लेकिन इन अशांत राज्यों में केंद्रीय अर्धसैन्य बलों के जवान भी व्यापक संख्या में तैनात हैं जिनके बीच कई बार तालमेल की कमी देखने में आती है। इस समस्या को दूर करना होगा और स्थानीय पुलिस बलों के सहयोग से केंद्रीय अर्धसैन्य बलों को नक्सलियों पर शिकंजा कसने का अभी उचित समय है।

यही वह समय है जब पुलिस बल यह जाने कि इस संकट के समय में नक्सली आवश्यक वस्तुएं आखिरकार लाते कहां से हैं, और उन पर प्रभावी कार्रवाई करें। साथ ही आत्मसमर्पण करने वालों को प्रोत्साहन और वैकल्पिक जीवन समर्थन प्रणाली प्रदान करने के पुरजोर प्रयास होने चाहिए। उम्मीद की जा सकती है कि इस संकट और घोर अभाव के समय में नक्सली भी देश-समाज की मुख्यधारा में शामिल होने के बारे में गंभीरता से विचार कर सकते हैं।

(लेखक हरियाणा सरकार में अधिकारी हैं)


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