आइए, जानते हैं कौन हैं राहुल नेहरा और क्या है उनका ‘जादुई’ प्रोजेक्ट
सिनेमाघर खोलना कोई खेल नहीं है... करोड़ों रुपये का निवेश और रिस्क 110 प्रतिशत। ऐसे में कोई भी ‘समझदार’ कारोबारी जम्मू-कश्मीर या अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों के बिल्कुल अंदरूनी जिलों या कस्बों में जाकर सिनेमा हाल क्यों खोलेगा? सवाल स्वाभाविक है?
रुमनी घोष, नई दिल्ली: हम में से बहुतों को याद होगा मेला...और उस मेले के कोने में रंग-बिरंगे बक्से के भीतर कैद मनोरंजन की दुनिया। रील दर रील बढ़ती हिट फिल्मों की तस्वीरें और साथ में पीछे से सुनाई पड़ते फिल्मी गीत। एक आंख बंद कर छोटे-सी स्क्रीन पर मनचाहे हीरो की एक तस्वीर देखना किसी जादू से कम नहीं लगता था। ...इस बार 'जादूज' का वह पिटारा लेकर निकले हैं मेरठ के राहुल नेहरा। गांव-गांव पगडंडियों से गुजरते हुए वह देश के इलाकों में मनोरंजन बांटने चल पड़े हैं।
मनोरंजन का अंदाज भले ही गुजरे जमाने की याद दिलाए, लेकिन अंदाज बिल्कुल नया है। वह देश के 75 प्रतिशत आबादी को उनके शहर और जिलों में फिल्म दिखाने पहुंच रहे हैं, जहां आजादी के 75 वर्ष बाद भी अभी तक कोई सिनेमाघर नहीं है। वहां के लोगों को एक फिल्म देखने के लिए या तो शहर आना पड़ता है या फिर टीवी या मोबाइल के भरोसे ही अपना मनोरंजन करना पड़ता है, लेकिन जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश सहित देश के छह राज्यों के अंदरूनी इलाकों में सिंगल स्क्रिन थिएटर सहित बहुपयोगी सेंटर (मल्टीयूटिलिटी सेंटर) खोलने जा रहे हैं।
ब्राडकास्ट स्पेस कंपनी प्रमुख के बतौर काम संभाला
इंजीनियरिंग की पृष्ठभूमि और प्रबंधन में विशेषज्ञता रखने वाले राहुल नेहरा को पेशेवर कारोबारी कहना सही नहीं होगा। यही वजह रही कि भारतीय मध्यमवर्गीय परिवारों की तरह ही उनकी पढ़ाई-लिखाई हुई। उनका पैतृक घर तो उप्र के लखनऊ में है, लेकिन काफी पहले ही उनका परिवार मेरठ आकर बस गया था। उन्होंने एनआइटी त्रिची से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की। उसके बाद आइएमटी गाजियाबाद से एमबीए किया। फिर नौकरी के सिलसिले में अमेरिका भी गए। वहां राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सैटेलाइट और ब्राडकास्ट स्पेस कंपनी प्रमुख के बतौर काम संभाला। ...और फिर अनुभव लेकर आठ साल पहले वह भारत लौट आए। काम तो करना था, लेकिन कुछ नया, इसलिए वह तलाश में जुट गए।
मैथ्स ओलिंपियाड में राष्ट्रीय चैंपियन रहे राहुल बचपन से ही हिसाब में मजबूत रहे। उनका कहना है कोई भी प्रोजेक्ट तब तक सफल नहीं होता है, जब तक वह फायदेमंद न हो। ...और यदि वह समाज के बड़े वर्ग को जोड़ने वाली पहल हो तो, उसका सफल होना बहुत जरूरी है। यही वजह है कि मैं शुरू से ही एक सशक्त प्राफिट माडल की तलाश में जुटा रहा। इसके मद्देनजर ही हमने कस्बाई व ग्रामीण अंचल में खाली पड़े कम्युनिटी हाल में सिंगल स्क्रीन थिएटर खोलने की योजना बनाई। इससे लागत लगभग दो-तिहाई कम हो गई। स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी पैदा हो रहे हैं। अरुणाचल प्रदेश के तमांग में यह प्रयोग बहुत सफल रहा। यहां शहरों की तरह ही लोग सिनेमा हाल तक आ रहे हैं। लोग स्क्रीन पर फिल्म देखने का आनंद उठा रहे हैं। इसी तरह कश्मीर को आंतकवाद से ग्रसित पुलवामा और शोपियां जिले में बहुपयोगी सेंटर खोला गया है। यहां अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में बाल फिल्मोत्सव होने जा रहा है। मप्र के मंडला जिले में भी इसी तरह का सेंटर खोला गया है।
नेपाल, भूटान और श्रीलंका में भी मांग
सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दक्षिण एशियाई देशों जैसे नेपाल, भूटान और श्रीलंका जैसे देशों से भी इस तरह के सिंगल स्क्रीन बहुपयोगी सेंटर खोलने की मांग आ रही है। यहां कुछ इलाकों में यह प्रोजेक्ट खुल चुका है। इसके अलावा अफ्रीका के केन्या, घाना, तंजानिया, रुआंडा और उगांडा में प्रोजेक्ट्स खुल चुके हैं। अफ्रीका के अन्य देशों से भी मांग आ रही है।
कश्मीर हो या अरुणाचल प्रदेश, हिंदुस्तान बदल रहा है
राहुल के अनुसार सिनेमा भाषा और धर्म से परे हर व्यक्ति को जोड़ता है। कश्मीर हो या अरुणाचल प्रदेश, अब हिंदुस्तान बदल रहा है। माना जाता था कि यहां हिंदी फिल्में नहीं चलेंगी लेकिन अब ऐसा नहीं है। वहां लोग हिंदी बोल रहे हैं। युवा अच्छी फिल्में देखना चाहते हैं। उसी तरह कश्मीर की स्थिति है। आतंकवाद का गढ़ रहे पुलवामा और शोपियां में लोगों में सिंगल स्क्रीन को लेकर काफी उत्साह है। 21 सितंबर को जब श्रीनगर में 32 साल बाद मल्टीप्लेक्स खुला तो उसके साथ-साथ पुलवामा और शोपियां में दो फिल्म एंड कल्चर सेंटर भी खुले। जिला प्रशासन की मदद से खोले गए इस मल्टी यूटिलिटी सेंटर में ऐसी व्यवस्था की गई है, जहां फिल्मों का आनंद लेने के साथ ही थिएटर, सेमिनार, सांस्कृतिक गतिविधियां आयोजित हो सकेंगी। अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में यहां आयोजित होने वाले फिल्मोत्सव को लेकर अभी से उत्साह नजर आ रहा है।
तीन से पांच साल में फायदे का अनुमान
जादूज के 'प्राफिट माडल' को लेकर राहुल निश्चिंत हैं। उनके अनुसार थिएटर खोलने में सबसे ज्यादा खर्च जमीन और इमारत का होता है। ऐसे में यदि यह दो चीजें सरकार या जिला प्रशासन उपलब्ध करवाती है, तो लागत काफी कम हो जाती है। जैसा कश्मीर में है। फिर निवेशक पर सिर्फ स्क्रीन, साउंड सिस्टम और इंटीरियर का भार होता है। वह बेहद आश्वस्त होने के साथ बताते हैं कि सामान्य आकलन के अनुसार सालभर के भीतर ब्रेकईवन (लागत निकलना) आ जाता है। तीन से पांच साल में मुनाफा मिलने लगता है। अधिक लागत होने के कारण बड़े-बड़े मल्टीप्लेक्स बंद हो रहे हैं या नुकसान में जा रहे हैं। रखरखाव इतना महंगा हो गया कि उस दबाव में मनोरंजन कहीं खो रहा है। ऐसे में यह माडल सिनेमा उद्योग में नया रंग भर सकता है। साथ ही ‘बड़े परदे’ के जरिये देश के एक बड़े इलाके को मनोरंजन और शैक्षणिक गतिविधियों से जोड़ा जा सकता है।
आंध्र प्रदेश में 2200 स्क्रीन
भारत में सिनेमा हाल या स्क्रीन का वितरण समान रूप से नहीं है। आदर्श स्थिति में हर 50 हजार की आबादी पर एक स्क्रीन होना चाहिए लेकिन यहां उत्तर व पूर्वी भारत के कई राज्यों के 75 प्रतिशत शहरों में स्क्रीन ही नहीं है। वहीं अकेले आंध्र प्रदेश में 2200 स्क्रीन है। इस असमानता को पाटना ही उद्देश्य है।
निमार्णाधीन है 50 स्क्रीन
इस प्रोजेक्ट के तहत जम्मू-कश्मीर में आठ स्क्रीन के अलावा तेलंगाना में भी सरकार के साथ मिलकर रूरल माडल सेंटर खोला जा रहा है। उप्र में नौ, उत्तराखंड में एक, हिमाचल प्रदेश में 12, गुजरात में पांच, उत्तर पूर्व राज्यों में आठ, बंगाल में चार, बिहार में एक और मध्य प्रदेश में दो स्क्रीन खोला जा रहा है। इस तरह से देशभर में कुल 50 स्क्रीन खोलने की तैयारी है।