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Citizenship Amendment Act 2019: विरोध और भय के पीछे जमीन है फसाद की जड़

असमी इस बात से डरे हैं कि यह कानून पड़ोसी मुल्कों के हिंदुओं को उत्तरपूर्व के राज्यों में भूमि की तलाश में आने और खुद को धार्मिक उत्पीड़न का शिकार घोषित करने के लिए प्रोत्साहित करेगा

By Neel RajputEdited By: Published: Sun, 15 Dec 2019 11:49 AM (IST)Updated: Sun, 15 Dec 2019 11:49 AM (IST)
Citizenship Amendment Act 2019: विरोध और भय के पीछे जमीन है फसाद की जड़
Citizenship Amendment Act 2019: विरोध और भय के पीछे जमीन है फसाद की जड़

[प्रो वॉल्टर फर्नांडिस]। Citizenship Amendment Act 2019: असम के कई शहरों में कर्फ्यू लगा दिया गया और राज्य लगातार जल रहा है, तो त्रिपुरा में भी ऐसा ही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असम के आंदोलनकारियों को आश्वस्त किया है कि उनकी संस्कृति का संरक्षण किया जाएगा लेकिन इस पर न असमियों ने यकीन किया और न ही त्रिपुरा की जनजातियों ने। उन्होंने अपना आंदोलन जारी रखा क्योंकि वे अपनी पूरी पहचान के लिए लड़ रहे हैं, जिसमें भूमि, भाषा और संस्कृति शामिल है। इससे निपटने के बजाय नागरिकता संशोधन विधेयक (कैब) उन्हें धर्म और जनजातियों में बांटता है। इस विधेयक में सात आदिवासी जिलों को अलग रखा गया है। यह जिले छठी अनुसूची के अंतर्गत आते हैं, लेकिन वे पिछले कुछ दशकों में राज्य के शेष सोलह जिलों में भी भूमि खो चुके हैं।

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त्रिपुरा में आदिवासी इलाकों के दो जिलों को अलग रखा गया है, यह जिले छठी अनुसूची के अंतर्गत आते हैं। हालांकि पिछले सात दशकों में आदिवासी अब के बांग्लादेश के हिंदू बंगाली अप्रवासियों के हाथों अपनी 40 फीसद जमीन गंवा चुके हैं। वे मानते हैं कि जिन्होंने जमीन पर कब्जा किया है, वे शरणार्थी नहीं हैं, बल्कि जमीन के भूखे अप्रवासी जमीन की तलाश में यहां आते हैं। राज्य के भूमि कानून को उनकी सुविधा के लिए बदला गया था और इस कानून के तहत उनकी बहुत सी जमीन हटाई गई थी। असम में आदिवासी और गैर आदिवासी जिलों की बहुत सी जमीन खो चुकी है।

असमी इस बात से डरे हैं कि यह कानून पड़ोसी मुल्कों के हिंदुओं को उत्तरपूर्व के राज्यों में भूमि की तलाश में आने और खुद को धार्मिक उत्पीड़न का शिकार घोषित करने के लिए प्रोत्साहित करेगा।

नागरिकता संशोधन कानून असम के लोगों की भूमि और पहचान को लेकर उनके डर को नजरअंदाज करता है और नागरिकता को परिभाषित करने के लिए धर्म का उपयोग करता है। असम के लोग न खुद की नागरिकता का विरोध कर रहे हैं और न ही बाहर से आने वाले लोगों की नागरिकता का विरोध है। वे चाहते हैं कि उनकी भूमि को कब्जे से संरक्षित किया जाए और नए अधिनियमित नागरिकता कानून में यह बातें नहीं हैं। वे इस बात से अवगत हैं कि बंगाली हिंदू असम और त्रिपुरा में भूमि की तलाश में आए, धार्मिक उत्पीड़न के कारण नहीं। असम के लोग ये महसूस करते हैं कि नागरिकता संशोधन कानून अप्रवासियों को धर्म के नाम पर और अधिक प्रोत्साहित करता है और उनकी जमीनों को कब्जे से सुरक्षित नहीं करता है, जिसे हिंदू और मुस्लिम करते हैं। उदाहरण के लिए, 19 लाख लोगों को नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) में नागरिकता से हटाया गया है। इसमें 10 लाख मुस्लिम और पांच लाख बंगाली भाषी हिंदू हैं।

शेष हिंदुओं में भिन्न भाषा बोलने वाले समूह जैसे हिंदी और नेपाली हैं। यहां तक की असमी बोलने वाले भी करीब एक लाख लोग हैं। वे चाहते हैं कि इस विसंगति को उचित दस्तावेजों की कानूनी प्रक्रिया के जरिए ठीक किया जाना चाहिए। धर्म के उपयोग को मानदंड मानकर उनकी क्षति को लौटाया नहीं जा सकता। सभी जनगणना को देखने के बाद यह दिखता है कि अप्रवासियों की 40 फीसद जनसंख्या बंगाली भाषी मुसलमानों की है। शेष हिंदी, बंगाली और नेपाली बोलने वाले हिंदू हैं। एनआरसी में हटाए गए हिंदुओं को कैब में नागरिकता मिल जाएगी। वे मानते हैं कि नियमित होना गैर भेदभावपूर्ण तरीका है।

भूमि से अलग असमी बोलने वालों को राज्य में अल्पसंख्यक होने का डर भी सता रहा है। त्रिपुरा में आदिवासी-बंगाली संघर्ष शुरू हुआ तब आदिवासियों ने बंगाली भाषी हिंदुओं के हाथों अपनी 40 फीसद जमीन खो दी। साथ ही वे जहां 1951 में 51.1 फीसद थे, वहीं 2001 की जनगणना के आधार पर 31.1 फीसद रह गए। कानून के बदलाव ने आदिवासियों को उस सार्वजनिक भूमि से वंचित कर दिया, जिस पर वे रहते थे। कानून असम के लिए भी अस्पष्ट है। केवल एक तिहाई भूमि का पट्टा है, इसमें भी ज्यादातर शहरी इलाका है। राज्य की शेष भूमि का विभिन्न कानूनों के जरिए ध्यान रखा जाता है।

एक बाहरी के लिए किसी भी जमीन पर कब्जा करना और फिर रिश्वत देकर पट्टा हासिल करना बहुत आसान है। इस कानूनी असंगति से निपटने के बजाय कैब नागरिकता के लिए धार्मिक मापदंड तय कर देता है। असम भूमि और भाषा के आधार पर शासन चाहता है जो कि राज्य के सभी निवासियों को सुरक्षित करे और शरणार्थियों को धार्मिक उत्पीड़न के बहाने प्रोत्साहित न करें। वे किसी को नागरिकता देने के खिलाफ नहीं हैं।

लेखक नॉर्थ ईस्टर्न सोशल रिसर्च सेंटर, गुवाहाटी में सीनियर फेलो हैं।


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