काटना पड़ा हाथ, पैर मुड़ता नहीं, फिर भी नदी-जंगल पार कर रोजाना स्कूल पहुंचते हैं संदीप
संदीप हर रोज पांच किमी पैदल चलकर नक्सल प्रभावित इलाके में जंगल-पहाड़ और नदी-नाले पार करने के बाद स्कूल पहुंचते हैं।
कूकानार (सुकमा), जागरण स्पेशल। जिगर वालों ने तय कर ली मंजिल तो फिर राह नहीं बदलते हैं। हौसले हों अगर बुलंद तो आंधियों में भी चिराग जलते हैं। जी हां, सुकमा जिले के मांझीडीह शासकीय माध्यमिक पाठशाला में पदस्थ शिक्षक संदीप भदौरिया पर ये लाइनें पूरी तरह सही बैठती हैं। इक्कीस साल की नौकरी के बाद सड़क हादसे में एकाएक उन्हें दाहिना हाथ खोना पड़ा। दाहिना पैर भी मुड़ना बंद हो गया। जिंदगी बची तो सभी ने कहा रिटायरमेंट ले लो। लेकिन उन्होंने सिरे से नकार दिया। बाएं हाथ से लिखने का अभ्यास किया और फिर से जॉइनिंग दी। स्कूल तक पहुंचने के लिए पांच किलोमीटर पैदल चलना पड़ा है। जंगल-पहाड़, नदी-नालों से भरा रास्ता है। बावजूद इसके संदीप का हौसला टूटता नहीं। धुर नक्सल प्रभावित इलाका होने के बावजूद शिक्षा के प्रति उनके समर्पण को क्षेत्र के बच्चे-बुजुर्ग, युवा सभी सलाम करते हैं।
गुरु को गोविंद से ऊंचा स्थान यूं ही नहीं दिया गया है। बात जब शिष्यों के भविष्य की हो तो वे हर चुनौती को स्वीकार करने को हमेशा तैयार रहते हैं। सुकमा जिले के छिंदगढ़ ब्लॉक के तोंगपाल निवासी संदीप समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र से एमए हैं। उनकी पहली नियुक्ति वर्ष 1995 में शिक्षाकर्मी के रूप में हुई। कुम्हारारास, टांगररास, कोडरिपाल, कोकावाड़ा और दरभा में अध्यापन कार्य करने के पश्चात वर्ष 2009 में उनकी पदस्थापना मांझीडीह में हो गई।
बाएं हाथ से सीख लिया लिखना
जुलाई 2016 में जगदलपुर से वापसी के दौरान नेगानार के पास एक दुर्घटना में वे गंभीर रूप से घायल हो गए। दाहिना हाथ और पैर बुरी तरह कुचल गए थे। सिर पर भी गंभीर चोटें आईं थीं। परिवार वालों ने आस छोड़ दी थी। जख्म में जहर फैल जाने के कारण दाहिना हाथ कोहनी के ऊपर से काटने के बाद जिंदगी बच पाई। दाहिने पैर की हड्डी तीन जगह से टूट गई थी। लंबे समय तक प्लास्टर चढ़ा रहा। खोला गया तो नसों के खिंचाव और हड्डियों के चोटिल होने के कारण पैर पूरी तरह मुड़ना बंद हो गया।
हौसले के आगे हारी हर बाधा
निवास तोंगपाल से मांझीडीह स्कूल की दूरी आठ किलोमीटर है। बीच में नदी-नाले भी पड़ते हैं। बारिश के दिनों में रास्ता और कठिन हो जाता है। लगभग पांच किलोमीटर तो जंगल-पहाड़ वाला रास्ता पैदल तय करना पड़ता है। संदीप किसी तरह बिस्तर से उठे तो मासूम व गरीब आदिवासी बच्चों का चेहरा सामने आ गया। घर बैठ जाएंगे तो उनका भविष्य कैसे संवरेगा...? यह सवाल परेशान करने लगा। मन ही मन फैसला लिया, स्कूल जरूर जाएंगे। कर्तव्य से पीछे नहीं हटेंगे। बस फिर क्या था। उन्होंने बाएं हाथ से लिखने का अभ्यास शुरू कर दिया। परिजनों ने टोका भी। पैर की परेशानियों का भी हवाला दिया। लेकिन वे डिगे नहीं। तीन साल हो गए, संदीप नियमित रूप से स्कूल पहुंचकर बच्चों को ज्ञान बांट रहे हैं।
बच्चों के भविष्य से बढ़कर कुछ भी नहीं
एक सामान्य जिंदगी के बीच एकाएक सिर पर पहाड़ टूट जाने के बाद भी संदीप की जीवटता को सभी खुलकर सराहते हैं। डॉक्टरों ने उन्हें 90 फीसद दिव्यांग बताया है, लेकिन हौसला सौ फीसद दुरुस्त लोगों को भी मात देने वाला है। वे कहते हैं कि बच्चों के भविष्य से बढ़कर मेरे लिए कुछ भी नहीं है। उनके बीच पहुंचने पर ही मुझे सुकून मिलता है। लगता है जिंदगी किसी काम आ रही है। गांव का हर शख्स उनकी कर्तव्यपरायणता की बड़ाई करते नहीं थकता।