तुम लड़की हो... यह नहीं कर सकती; जब तक ये सोच नहीं बदलेगी, कुछ नहीं बदलेगा
लैंगिक भेदभाव ने एक मानदंड स्थापित कर दिया है जहां लड़कियों के लिए उनके कार्यक्षेत्र, दायरा और यहां तक कि खिलौने भी निश्चित हैं। ऐसे में क्या यह सहज है कि इस भेद को हटाया जा सके।
डॉ. ऋतु सारस्वत। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस दुनियाभर की महिलाओं के लिए एक प्रतीक बन चुका है कि उनके समानता के संघर्ष को नकारना सहज नहीं है। 1909 में शुरू हुआ यह दिवस विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रशंसा और प्यार प्रकट करते हुए इस दिन को महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है। पर प्रश्न यह उठता है कि क्या एक दिन का उत्सव, महिलाओं को समान भागीदारी दे पा रहा है। समान वेतन के अधिकार का संघर्ष आज भी बदस्तूर कायम है तो राजनीति के प्रथम पायदान पर पांव रखना असंभव सा प्रतीत होता है, क्योंकि पुरुष सत्तात्मक समाज अपने सिंहासन को छोड़ने के लिए तैयार नहीं।
लिंगभेद के खिलाफ चर्चा करना सहज नहीं, क्योंकि समाज का संपूर्ण ढांचा ही ऐसा है कि लड़कियों को बचपन से ही सिखाया जाता है कि विरोध करना संस्कारहीन होना है। यह स्थिति विश्व के प्रत्येक भाग में कायम है। ब्रिटेन की एक महिला प्रस्तोता को उनके शो से अस्थाई रूप से हटा दिया गया है, क्योंकि उन्होंने सार्वजनिक रूप से महिला व पुरुष कर्मचारियों के वेतन में असमानता का मुद्दा उठाया था। ऐसा न तो पहली बार हुआ है और न ही आखिरी बार। चंद महिलाओं की सफलता पर गदगद होने वाली मानसिकता ने, हाशिये पर रह रही आधी आबादी के वास्तविक संघर्ष को लगभग नकार सा दिया है, क्योंकि लैंगिक भेदभाव ने एक मानदंड स्थापित कर दिया है जहां लड़कियों के लिए उनके कार्यक्षेत्र, दायरा और यहां तक कि खिलौने भी निश्चित हैं। ऐसे में क्या यह सहज है कि इस भेद को हटाया जा सके।
ग्लोबल अर्ली एडॉलसेन्ट स्टडी के नतीजे भी कहते हैं कि बच्चों में कम उम्र में लैंगिक रूप से भेदभाव पनप रहा है। यह लैंगिक हिंसा और शोषण का कारण बनता है। यह तय है कि आने वाले सौ वर्षों में भी महिला समानता का संघर्ष कम नहीं होने वाला यदि हमारे घर, परिवार और स्कूल में लैंगिक विभेद के विभिन्न मानदंडों को प्रत्यक्षत या अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष दिसंबर से ट्यूनीशिया के ज्यादातर स्कूलों में छात्र-छात्राओं को स्कूल नियम पर हस्ताक्षर करने होते हैं। इसमें ड्रेस कोड सिर्फ लड़कियों पर लागू होता है। सितंबर 2017 में, सुपरवाइजरों ने स्कूल की छात्राओं को स्मॉक (ढीली कमीज) पहनने के लिए कहा और ऐसा नहीं करने वाली लड़कियों को घर भेज देने की चेतावनी दी। इस अन्याय ने बहुत सी लड़कियों को सोशल नटवर्क पर अपनी बातें रखने के लिए प्रेरित किया।
मुद्दा, लड़कियों के पहने जाने वाले कपड़ों का नहीं, उसके पीछे छिपी मानसिकता का है। ट्यूनीशिया के स्कूल में लड़कों को मन मुताबिक कपड़े पहनकर आने की छूट और लड़कियों के लिए अलग नियम, पुरुष प्रधान सोच की जड़ों को और भी गहरा करता है, उनमें यह दंभ भरता है कि वे सर्वाधिकार प्राप्त वर्ग हैं। यह सोच ट्यूनीशिया की ही नहीं है। ‘तुम लड़के हो और तुम लड़की’, यह अंतर विकसित से लेकर विकासशील समाज की परिपाटी है और यही महिला समानता का सबसे बड़ा अवरोध। क्या एक ऐसे माहौल को स्थापित करने की जरूरत नहीं जो बच्चों में लैंगिक भेदभाव ही न पनपने दे।
स्वीडन के एक स्कूल ने यह पहल की है, स्टॉकहोम के इगालिया प्री-स्कूल में अंग्रेजी के ‘हिज’ और ‘हर’ शब्द भी प्रतिबंधित हैं। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि समानता की पहल की दिशा में बढ़ता विश्व इस परंपरा को आगे बढ़ाए। क्या हम यह नहीं स्वीकारते कि हमारे जन्म के साथ ही लोग हमसे अलग-अलग तरह की उम्मीदें लगाने लगते हैं। ये उम्मीदें हमारे लड़का या लड़की होने पर निर्भर करती हैं। जब तक लड़के और लड़कियों की भूमिका, अलग-अलग सुनिश्चित की जाएगी, लैंगिक समानता बरकरार रहेगी।
(लेखिका प्राध्यापक हैं)