‘कार्बन सिंक’जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष के लिए महत्वपूर्ण
इंसानी जीवन के लिए प्रत्यक्ष लाभ देने वाले हमारे जंगल अपने अप्रत्यक्ष फायदों के तहत आज की सबसे बड़ी समस्या ग्लोबल वार्मिंग के लिए बेहद कारगर साबित हो सकते हैं।
नई दिल्ली [कपिल सुब्रमणियन]। वन पर्यावरण के लिए अच्छे होते हैं। स्थानीय समुदायों को कई लाभ प्रदान करने के अलावा वे हवा से कार्बन सोखकर इसे अपने बॉयोमास में संग्रहित करते हैं। साथ ही इसे जमीन में मिट्टी कार्बन के रूप में भी दबाते हैं। ये ‘कार्बन सिंक’जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष के लिए महत्वपूर्ण हैं। दुनिया भर की सरकारें पेरिस समझौते के तहत अपने कार्बन उत्सर्जन कटौती के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए वानिकी परियोजनाओं में निवेश कर रही हैं।
कार्बन सोखने के लिए जंगलों की सटीक क्षमता का आकलन कठिन है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आइपीसीसी) की जलवायु परिवर्तन और भूमि संबंधी विशेष रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि विश्व स्तर पर, वनों की कटाई और भूमि क्षरण को कम करने से प्रति वर्ष 0.4 और 5.8 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम किया जा सकता है। इसके विपरीत, अकेले ऊर्जा क्षेत्र ने 2018 में 33 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन किया। वानिकी परियोजनाओं की क्षमता न केवल अनिश्चित है, बल्कि सबसे आशावादी
अनुमान भी व्यक्त करते हैं कि यह जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए पर्याप्त होने से दूर है। इसके अलावा, आइपीसीसी कहती है कि वानिकी परियोजनाओं के लाभ सामने आने में कई दशक लग सकते हैं। वानिकी परियोजनाएं कार्बन उत्सर्जन के लिए महत्वपूर्ण काउंटर बैलेंस बनी रहेंगी, लेकिन इन्हें ऊर्जा, उद्योग और परिवहन जैसे क्षेत्रों से कार्बन उत्सर्जन में गहरी और तेजी से कटौती के साथ ही आगे बढ़ना होगा। हालांकि, कई देशों ने वानिकी परियोजनाओं को अन्य क्षेत्रों में आवश्यक प्रयासों के पूरक के रूप के बजाय सस्ती वानिकी परियोजनाओं को पूर्ण प्रतिस्थानिक के तौर पर उपयोग किया है।
सबसे चर्चित मामला भूमि संपन्न न्यूजीलैंड का है जो अपने तथाकथित ‘क्योटो वन’ का उपयोग करके कार्बन उत्सर्जन में भारी वृद्धि के बावजूद अपने कटौती लक्ष्यों को पूरा करने में कामयाब रहा है। क्योटो प्रोटोकॉल के स्वच्छ विकास तंत्र (सीडीएम) के तहत कई विकसित देशों ने विकासशील देशों में वनीकरण परियोजनाओं से सस्ते कार्बन क्रेडिट खरीद कर कुछ ना करते हुए भी अपने उत्सर्जन कटौती के लक्ष्यों को पूरा कर लिया है।
वनों की कटाई से निपटने के लिए सबसे प्रमुख वैश्विक तंत्र निर्वनीकरण और वन क्षय उत्सर्जन कटौती (आरईडीडी +) है जिसकी स्थापना 2007 में बाली में की गई थी, लेकिन वैश्विक स्तर पर 30,000 से अधिक परियोजनाओं के बावजूद, वैश्विक वनोन्मूलन को रोकने में आरईडीडी + के योगदान का कोई ठोस सबूत नहीं है। भारत सरकार ने लंबे समय से वकालत की है कि देशों को वन आवरण की वृद्धि के लिए मुआवजा दिया जाना चाहिए। भारत ने यह भी सही तर्क दिया है कि स्थानीय समुदायों के लिए पारिस्थितिक और आर्थिक लाभ कार्बन जब्ती से अधिक महत्वपूर्ण हैं।
भारत की नीति यह स्वीकार करती है कि आरईडीडी + लक्ष्यों को प्राप्त करते हुए वनों पर निर्भर समुदायों के अधिकारों को वन अधिकार अधिनियम के तहत संरक्षित किया जाएगा। पर यह नीति स्पष्ट रूप से उन समुदायों द्वारा छोटे पैमाने पर आरईडीडी + परियोजनाओं के लिए समर्थन प्रदान नहीं करती है। फिर भी, जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष में वन महत्वपूर्ण रहेंगे। पेरिस समझौते के तहत, भारत 2030 तक 2005 के स्तर पर अपने वानिकी कार्बन सिंक को 2.5-3 अरब टन तक बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है।
सांख्यिकीय रुझान स्थिति में कुछ सुधार वाले सुझावों के बावजूद विशेषज्ञों का मानना है कि भारत इस लक्ष्य की प्राप्ति की सही राह पर नहीं चल रहा है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए स्थापित किया गया ग्रीन इंडिया मिशन का वित्त पोषण कमजोर है और हर साल यह मिशन अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में असक्षम रहा है। देश को अपने कार्बन सिंक को बढ़ाने के प्रयासों में वृद्धि करनी होगी। लेकिन स्थानीय समुदायों के लिए वनों के अन्य पर्यावरणीय और आर्थिक लाभों को उन प्रयासों के केंद्र में रहना होगा।
(क्लाइमेट पॉलिसी रिसर्चर, सीएसई)