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द्रमुक ने भी छोड़ा संप्रग का साथ

श्रीलंका में तमिलों के मुद्दे पर भारत सरकार के रवैये से असंतुष्ट द्रमुक ने संप्रग का साथ छोड़ने का एलान कर दिया और देर रात राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिलकर समर्थन वापसी का पत्र सौंप दिया। द्रमुक कोटे के पांचों मंत्री बुधवार को प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को अपना इस्तीफा सौंप देंगे। पिछले वर्ष एफडीआइ के मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस के हटने के बाद पहले ही अल्पमत में आ चुकी संप्रग-दो सरकार के सामने अब कार्यकाल पूरा करने की चुनौती और बढ़ गई है। अब तक हर संकट

By Edited By: Published: Tue, 19 Mar 2013 08:00 AM (IST)Updated: Wed, 20 Mar 2013 10:12 AM (IST)
द्रमुक ने भी छोड़ा संप्रग का साथ

नई दिल्ली [जागरण ब्यूरो]। श्रीलंका में तमिलों के मुद्दे पर भारत सरकार के रवैये से असंतुष्ट द्रमुक ने संप्रग का साथ छोड़ने का एलान कर दिया और देर रात राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिलकर समर्थन वापसी का पत्र सौंप दिया। द्रमुक कोटे के पांचों मंत्री बुधवार को प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को अपना इस्तीफा सौंप देंगे। पिछले वर्ष एफडीआइ के मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस के हटने के बाद पहले ही अल्पमत में आ चुकी संप्रग-दो सरकार के सामने अब कार्यकाल पूरा करने की चुनौती और बढ़ गई है। अब तक हर संकट के समय कांग्रेस के संकटमोचक रहे दोनों दल सपा और बसपा फिर सरकार के खेवनहार बने हैं। आंकड़ों के लिहाज से तत्काल कोई संकट सरकार पर नहीं दिख रहा है, लेकिन मध्यावधि चुनाव की न सिर्फ चर्चाएं बढ़ गई हैं, बल्कि कई लोकलुभावन फैसलों व विधेयकों से माहौल बदलने की कांग्रेस की तैयारियों को भी बड़ा झटका लगा है।

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तमिलों के मुद्दे पर श्रीलंका के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की 22 मार्च को होने वाली बैठक में कड़ा प्रस्ताव लाने के लिए दबाव बना रहे करुणानिधि ने मंगलवार को सवेरे ही संप्रग से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी। द्रमुक की मांग थी कि प्रस्ताव में श्रीलंका में तमिलों पर हो रहे अत्याचार को देखते हुए प्रस्ताव में 'नरसंहार' शब्द को जोड़ा जाए। इस पर सोमवार की रात को करुणानिधि से मिलने चेन्नई गए एके एंटनी, पी चिदंबरम और गुलाम नबी आजाद ने विदेशी नीति का हवाला देते हुए असमर्थता जता दी। अलबत्ता, संसद में प्रस्ताव लाने पर जरूर आश्वासन दिया, लेकिन भाषा पर द्रमुक राजी नहीं था। तमिलनाडु में जयललिता सरकार से बड़ी लकीर खींचने के लिए द्रमुक ने केंद्र सरकार से बाहर जाने का रास्ता अख्तियार किया। हालांकि, उसने अभी भी एक बार भी सरकार गिराने की बात नहीं की।

कांग्रेस तृणमूल के बाद द्रमुक से भी संबंध पूरी तरह बिगाड़कर उन्हें नहीं जाने देना चाहती। इसीलिए, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने संसदीय दल की बैठक में द्रमुक की भावनाओं का सम्मान किया और कहा कि श्रीलंका में अत्याचार की निष्पक्ष और स्वतंत्र जांच होनी चाहिए। कांग्रेस यह संदेश नहीं देना चाहती कि उसने अपने सहयोगियों के साथ गलत व्यवहार किया, जिस वजह से उसके दोनों सबसे बड़े सहयोगी साथ छोड़ गए। अभी कुछ हद तक कांग्रेस इसमें कामयाब भी हुई है, क्योंकि करुणानिधि ने सीधे कांग्रेस पर कोई तल्ख हमला नहीं किया है।

यही कारण है कि कांग्रेस के प्रबंधक सरकार में किसी तरह का कोई संकट नहीं देख रहे। श्रीलंका संकट के मुख्य प्रबंधक बनाए गए वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने कहा भी कि सरकार पर किसी तरह का संकट नहीं है। श्रीलंका मसले पर उन्होंने कहा कि संसद में प्रस्ताव लाने के मुद्दे पर सभी दलों से विचार-विमर्श की प्रक्रिया जारी है। देर शाम को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, एंटनी, चिदंबरम, गुलाम नबी आजाद, सलमान खुर्शीद और कमलनाथ के बीच भी संभावित विकल्पों पर चर्चा होती रही। फिलहाल बहुमत के आंकड़ों पर सरकार चिंतित नहीं है। बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा महासचिव रामगोपाल यादव ने सरकार को समर्थन देते रहने की बात कर इन चिंताओं को दूर कर दिया। अलबत्ता लोकपाल, भूमि अधिग्रहण, खाद्य सुरक्षा विधेयकों के सहारे सियासी माहौल अपने पक्ष में करने की कोशिश में जुटी कांग्रेस की अब सपा-बसपा और दूसरे दलों पर निर्भरता जरूर बढ़ गई है।

दुविधा में भाषा की सुविधा तलाश रही सरकार

नई दिल्ली। सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे..। संप्रग सरकार से हटने का एलान कर चुकी द्रमुक को मनाने की कोशिश में सरकार के प्रबंधक श्रीलंका के खिलाफ संसद में संभावित किसी प्रस्ताव की भाषा में कुछ ऐसा ही फार्मूला तलाश रहे हैं। द्रमुक की मांग के अनुरूप प्रस्ताव में पड़ोसी देश के खिलाफ 'युद्ध अपराध' और 'नरसंहार' जैसे लफ्जों का प्रयोग बेहद मुश्किल है। लेकिन, तमिल भावनाओं का लिहाज करते हुए संदेश देने के लिए सरकार संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद [यूएनएचआरसी] में 21 मार्च को होने वाले मतदान के दौरान कुछ सख्त लफ्जों के इस्तेमाल और संशोधनों को आगे बढ़ा सकती है।

इस प्रस्ताव पर सियासी माथा-पच्ची के बीच राजनयिक तैयारियां भी इसके नतीजे के इंतजार में अटकी हैं। दरअसल, संसद में श्रीलंका के खिलाफ प्रस्ताव के बाद ही संयुक्त राष्ट्र में भारत का रुख आधिकारिक तौर पर तय होगा। संसदीय कार्य मंत्री कमलनाथ ने मंगलवार को कहा कि सरकार संसद में प्रस्ताव पर विचार कर रही है। साथ ही संयुक्त राष्ट्र में मतदान के दौरान भारत की ओर से कुछ संशोधन भी रखे जा सकते हैं। उनका यह भी कहना था कि अभी इस बारे में राजनीतिक दलों से बात चल रही है, जिसके बाद ही निर्णय लिया जाएगा। मामले पर बुधवार को संसद में चर्चा होनी है। इसके बाद प्रस्ताव का स्वरूप क्या होगा इसकी तस्वीर बुधवार सुबह होने वाली दोनों सदनों में नेताओं की बैठक से ही तय होगा।

संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी ने मंगलवार को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में इस बात के संकेत दिए कि श्रीलंका के मुद्दे पर भारत सरकार अपने रुख में कुछ सख्ती कर सकती हैं। सोनिया ने कहा, 2009 में लिंट्टे-श्रीलंका संघर्ष के अंतिम दिनों में नागरिकों और बच्चों के खिलाफ अत्याचार की खबरें हमें दुखी करती हैं। हम इनकी निष्पक्ष और भरोसेमंद जांच की मांग करते हैं।

श्रीलंका पर जेनेवा में अमेरिका की ओर से पेश प्रस्ताव पर मतदान होना है। श्रीलंका में तमिलों की स्थिति पर पेश इस प्रस्ताव में मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों की जांच की मांग की गई है। तमिल हितों की दुहाई दे रहा द्रमुक अमेरिकी प्रस्ताव से भी खुश नहीं है। उसकी मांग श्रीलंकाई सेना के सलूक को नरसंहार करार देने की है। ऐसे में संभव है कि संसद में संभावित प्रस्ताव सोनिया के शब्दों के मुताबिक इन घटनाओं को 'अत्याचार' की उपमा दे सकता है।

क्या होना है

जेनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की 22वीं नियमित बैठक में श्रीलंका में मानवाधिकार स्थिति पर अमेरिका की ओर से पेश प्रस्ताव पर 21 मार्च को मतदान होना है।

यूएनएचआरसी प्रस्ताव

प्रस्ताव का मौजूदा मसौदा 2009 में लिंट्टे से संघर्ष के अंतिम दिनों में हुई घटनाओं की जांच के लिए श्रीलंका को प्रोत्साहित करने की बात करता है।

संशोधनों की प्रक्रिया

प्रस्ताव में संशोधन के लिए भारत को अमेरिका के साथ आगे बढ़ना होगा।

भाषा का पेंच

द्रमुक की उम्मीद के विपरीत श्रीलंका के खिलाफ 'नरसंहार' और 'समयबद्ध अंतरराष्ट्रीय जांच' जैसे लफ्जों से होगा परहेज। 'दमन' और निष्पक्ष व भरोसेमंद जांच जैसे शब्द भारत की ओर से बढ़ाए जा सकते हैं।

भारत की चिंता

श्रीलंका के खिलाफ मानवाधिकार पर भारत का मुखर रवैया कश्मीर पर पाकिस्तान को अंतराष्ट्रीय राजनीति खेलने का मौका दे सकता है। खतरा है कि कश्मीर पर ऐसे किसी प्रस्ताव पर श्रीलंका व अन्य देश भी भारत के खिलाफ खड़े नजर आ सकते हैं।

माया-मुलायम की मजबूरी बनी सरकार के लिए आक्सीजन

नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा और बसपा एक बार फिर से अपना सियासी नफा-नुकसान आंकने लगे हैं। केंद्र की संप्रग सरकार के गिरने की तोहमत दोनों ही दल अपने ऊपर नहीं आने देना चाहते। सपा और बसपा की यही राजनीतिक ऊहापोह संप्रग सरकार को अब तक आक्सीजन देती रही है। अब द्रमुक के समर्थन वापसी के एलान के बाद दोनों दलों की यही मजबूरी सरकार के फिर से काम आने जा रही है।

द्रमुक की ओर से समर्थन वापसी के एलान के बाद सरकार पर तुरंत कोई खतरा आए बगैर ही सपा और बसपा का सरकार के साथ खड़े होने काएलान करना उनकी राजनीतिक मजबूरियों को दर्शाता है। सूत्रों की मानें तो मायावती समय से पहले लोकसभा चुनाव के पक्ष में नहीं हैं। बसपा का मानना है कि जितनी देर में चुनाव होगा, उत्तर प्रदेश में सपा सरकार की असफलताओं के चलते दिनोंदिन उसका नुकसान बढ़ना तय है। लिहाजा, वह केंद्र के साथ मजबूती से खड़ी है। उधर, बसपा के इस रुख को भांपकर ही सपा भी जान गई है कि फिलहाल सरकार को कोई संकट नहीं होने जा रहा। साथ ही सरकार से समर्थन वापसी की स्थिति में सपा को कहीं न कहीं मुस्लिम वोटों के छिटकने का डर भी सता रहा है। ऐसे में वह अनायास ही सरकार से दूरी बनाकर खुद पर परोक्ष रूप से सांप्रदायिक ताकतों की मदद करने का ठप्पा नहीं लगवाना चाहती। साथ ही उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार की जरूरतों के मद्देनजर भी वह केंद्र से पल्ला झाड़ने में कतरा रही है।

सपा के प्रो. रामगोपाल यादव ने तो सरकार से द्रमुक की समर्थन वापसी को ब्लैकमेलिंग करार दे दिया है। उन्होंने कहा कि श्रीलंकाई तमिलों के मुद्दे पर द्रमुक ने समर्थन वापसी की बात भले कही हो, लेकिन उसने न तो समर्थन वापस लिया है और न ही उसका ऐसा इरादा है। सरकार न अल्पमत में है और न ही उसे कोई खतरा है। यह पूछे जाने पर कि क्या सपा का समर्थन सरकार को जारी रहेगा? प्रो. यादव ने कहा कि सपा तो सरकार को बाहर से समर्थन दे ही रही है। वहीं, 21 सांसदों वाली बसपा की प्रमुख मायावती ने स्पष्ट कहा, 'हम देश में सांप्रदायिक ताकतों को मजबूत नहीं करना चाहते, इसलिए संप्रग सरकार से नाराजगी के बावजूद उसे समर्थन जारी रहेगा। सरकार अल्पमत में नहीं है'। हालांकि, उन्होंने यह भी जोड़ा कि अनुसूचित जाति, जनजाति को प्रोन्नति में आरक्षण और महंगाई जैसे मुद्दों पर सरकार से उनका मतभेद है। फिर भी सांप्रदायिकता के सवाल पर बसपा सरकार के साथ है।

कांग्रेस जोड़तोड़ में माहिर: नीतीश

पटना [जागरण ब्यूरो]। द्रमुक द्वारा केंद्र की संप्रग सरकार से समर्थन वापस लेने के मुद्दे पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि मनमोहन सरकार पर कोई संकट नहीं है। कांग्रेस जोड़-घटाव में निपुण है। वह जानती है कि सत्ता को कैसे बनाए रखा जाता है। तमिलनाडु की अपनी राजनीति है। उसको साधने के लिए केंद्र सरकार रास्ता निकाल लेगी।

मुख्यमंत्री मंगलवार को दिल्ली से लौटने के बाद पटना एयरपोर्ट पर संवाददाताओं से रूबरू थे। उन्होंने कहा कि तमिल भावना की इज्जत होनी चाहिए, इसका पूरे देश में सम्मान हो। यह भी ध्यान रहे कि श्रीलंका पड़ोसी मुल्क है, उसके साथ हमारा संबंध बना रहे।

मेरी निजी राय है कि लोकसभा चुनाव समय पर ही होंगे। नीतीश ने कहा, बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाए बिना न मैं चैन से बैठूंगा और न ही दिल्ली की सरकार को चैन से बैठने दूंगा। यह साढ़े दस करोड़ बिहारियों की मांग है। इस मसले पर विपक्ष [खासकर राजद] पर हमला करते हुए उन्होंने कहा-'मैं बिहार का हक दिलाने में लगा हूं और ये लोग [विपक्ष] हम पर रोड़े बरसा रहे हैं। असल में ये लोग नहीं चाहते कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिले।

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