उपचुनाव के नतीजे भाजपा के लिए चेतावनी
[प्रशांत मिश्र]नरेंद्र मोदी लहर पर सवार होकर केंद्रीय सत्ता में पहुंचे भाजपा नेताओं की ढिलाई और दंभ को जनता ने एक झटके में ही आईना दिखा दिया। वैसे तो उपचुनाव के नतीजों के बहुत सियासी निहितार्थ निकालना समझदारी नहीं माना जाता, लेकिन उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात के नतीजे भाजपा के लिए एक चेतावनी हैं। राजस्थान में
[त्वरित टिप्पणी : प्रशांत मिश्र]
नरेंद्र मोदी लहर पर सवार होकर केंद्रीय सत्ता में पहुंचे भाजपा नेताओं की ढिलाई और दंभ को जनता ने एक झटके में ही आईना दिखा दिया। वैसे तो उपचुनाव के नतीजों के बहुत सियासी निहितार्थ निकालना समझदारी नहीं माना जाता, लेकिन उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात के नतीजे भाजपा के लिए एक चेतावनी हैं। राजस्थान में अंतर्कलह, गुजरात में ढिलाई और उत्तर प्रदेश में भितरघात और चेहरों का गलत चयन सत्ताधारी दल को ले डूबा। वहीं, उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव परिणामों से पस्त सपा को इन नतीजों ने मुस्कराने का मौका जरूर दे दिया है। कांग्रेस के लिए तो ये नतीजे प्राणवायु से कम नहीं। ऐतिहासिक हार के बोझ तले कसमसा रही देश की सबसे पुरानी पार्टी को सिर उठाने का मौका मिल गया है।
ये नतीजे ऐसे समय आए हैं, जब हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में चुनाव सिर पर हैं। पूरी तरह मोदी पर आश्रित हो गई भाजपा को यह समझना होगा कि प्रदेश के चुनावों में लापरवाही और कार्यकर्ताओं एवं जनता से कटकर किसी लहर पर चुनाव नहीं जीते जा सकते। भले ही दोनों राज्यों में फिलहाल सियासी हवा भाजपा और उसके सहयोगी दलों के पक्ष में दिख रही हो, लेकिन चुनाव में जरा सी लापरवाही और जमीन से कटना कैसा भारी पड़ता है, यह इन नतीजों से साफ है। खासतौर से उत्तर प्रदेश के नतीजों को देखें तो यहां पर भाजपा का हर दांव उल्टा पड़ा। उपचुनाव के लिए जिन योगी आदित्यनाथ को भाजपा ने जिम्मेदारी सौंपी, उनकी उग्र सियासत के पीछे जुटने से जनता ने इन्कार कर दिया।
यही नहीं भाजपा का आपसी मनमुटाव इतना है कि फिलहाल प्रदेश में जमे विनय कटियार या ओमप्रकाश सिंह जैसे लोग चुनाव में निकले ही नहीं। प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी व योगी आदित्यनाथ ही पूरे दौरे करते रहे। यूपी में मिली प्रचंड विजय से जहां प्रदेश के नेता अहंकार में थे, वहीं शीर्ष स्तर से भी जैसा संदेश जाना था, वह नहीं हुआ। मसलन, पिछले दिनों मथुरा में हुई प्रदेश की भाजपा कार्यकारिणी में शीर्ष स्तर से न तो पार्टी अध्यक्ष अमित शाह जा सके और न ही गृह मंत्री राजनाथ सिंह। जाहिर है कि इस आयोजन से जैसा संदेश जाना चाहिए था, वह नहीं जा सका। इसके अलावा मोदी लहर में लोकसभा पहुंचे उन भाजपा सांसदों के लिए भी चेतावनी है, जिनके क्षेत्रों में उपचुनाव थे। शीर्ष स्तर से चुनावों के लिए पूरी जिम्मेदारी क्षेत्रीय सांसद पर ही डाली गई थी।
उत्तर प्रदेश की बदहाली के बावजूद समाजवादी सरकार नतीजों से मुस्करा सकती है। दावे भी किए जा रहे हैं, लेकिन तथ्य यह है कि बसपा मैदान में नहीं थी। बसपा के न होने का भी सपा को फायदा मिला। इसके बावजूद सपा के लिए भी एक चेतावनी है कि पूरी ताकत लगाने के बावजूद शहरी क्षेत्रों में उसका जनाधार नहीं बन पा रहा। लखनऊ में पूरी ताकत लगाने और कम मतदान के बावजूद भाजपा के गोपाल टंडन जीत गए। एक तथ्य यह भी है कि ज्यादा मतदान में हमेशा फायदे में रहने वाली भाजपा को कम पोलिंग ने भी मारा। उपचुनावों में भाजपा अपने मतदाताओं को घरों से निकालने में भी नाकाम रही।
राजस्थान और गुजरात के नतीजे भाजपा के लिए सबसे बड़ा झटका और कांग्रेस के लिए बड़ी उपलब्धि है। इन दोनों राज्यों ने लोकसभा चुनाव में भाजपा को सभी सीटें दी थीं। नतीजों ने इस ज्वार को भी उतार दिया। राजस्थान की चार सीटों पर में तीन कांग्रेस ने जीती हैं। कांग्रेस के युवा नेता सचिन पायलट की मेहनत वसुंधरा राजे सरकार और संगठन पर भारी पड़ी। वास्तव में भाजपा के भीतर सबसे ज्यादा चिंता भी इन्हीं नतीजों को लेकर है। गुजरात में कांग्रेस की तीन सीटों पर जीत से जाहिर तौर पर उसके हौसले बुलंद होंगे। यूं तो यहां छह सीटें भाजपा ने जीती हैं, लेकिन ये तीन सीटें ऐसी हैं जो मोदी के मुख्यमंत्री रहते कभी भी कांग्रेस नहीं जीत सकी थी। भाजपा के लिए प. बंगाल और असम जैसे राज्यों में पसरती सफलता संतोष का विषय हो सकता है, लेकिन वास्तव में इन नतीजों में सबसे बड़ा सबक उसी के लिए छिपा है।
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