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कारगिल के इन वीरों को सलाम, खून का आखिरी कतरा भी किया देश पर न्‍यौछावर

देश उन शहीदों को नमन कर रहा है जिन्होंने अपने प्राणों को न्‍यौछावर कर दिया। अदम्य साहस के बल पर पाकिस्तानी घुसपैठियों के छक्के छुड़ा दिए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 25 Jul 2019 04:15 PM (IST)Updated: Fri, 26 Jul 2019 09:53 AM (IST)
कारगिल के इन वीरों को सलाम, खून का आखिरी कतरा भी किया देश पर न्‍यौछावर
कारगिल के इन वीरों को सलाम, खून का आखिरी कतरा भी किया देश पर न्‍यौछावर

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। कारगिल युद्ध को दो दशक पूरे हो चुके हैं। इस युद्ध में भारत ने अपने 527 जवानों को खो दिया था जबकि 1363 जवान घायल हुए थे। चार भारतीय जवानों को इस युद्ध में अदम्य साहस के लिए सेना का सर्वोच्च पदक परमवीर चक्र प्रदान किया गया था। इनमें से दो को मरणोपरांत यह पदक दिया गया था जबकि दो हमारे बीच आज भी मौजूद हैं। ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव इस पदक को पाने वाले सबसे कम उम्र के जवान हैं। भारतीय जवानों ने इस युद्ध में अपने खून का आखिरी कतरा देश की रक्षा के लिए न्यौछावर कर दिया था। इन जांबाजों की कहानियां आज भी रोंगटे खड़े कर देती हैं।

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इस युद्ध में भारतीय सेना के कई रणबांकुरों ने अपने प्राणों की आहुति देकर अपने देश का मान बनाए रखा और दुश्मन को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। देश उन शहीदों को नमन कर रहा है जिन्होंने अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया। अदम्य साहस के बल पर पाकिस्तानी घुसपैठियों के छक्के छुड़ा दिए। विजय दिवस के मौके पर हम उन सूरमाओं के बारे में बता रहे हैं जो देश के लिए आन, बान और शान हैं।

कैप्टन मनोज कुमार पांडे

जन्म : 25 जून 1975, सीतापुर, उत्तर प्रदेश
शहीद हुए : 3 जुलाई 1999 (24 वर्षीय)
यूनिट : 11 गोरखा राइफल की पहली बटालियन (1/11 जीआर)
मरणोपरांत परम वीर चक्र 

शौर्य गाथा: कारगिल युद्ध के दौरान 11 जून को उन्होंने बटालिक सेक्टर से दुश्मन सैनिकों को खदेड़ दिया। उनके नेतृत्व में सैनिकों ने जुबार टॉप पर कब्जा किया। वहां दुश्मन की गोलीबारी के बीच भी आगे बढ़ते रहे। कंधे और पैर में गोली लगने के बावजूद दुश्मन के पहले बंकर में घुसे। हैंड-टू-हैंड कॉम्बैट में दो दुश्मनों को मार गिराया और पहला बंकर नष्ट किया। उनके साहस से प्रभावित होकर सैनिकों ने दुश्मन पर धावा बोल दिया। अपने घावों की परवाह किए बिना वे एक बंकर से दूसरे बंकर में हमला करते गए।

आखिरी बंकर पर कब्जा करने तक वे बुरी तरह जख्मी हो चुके थे। यहां वह शहीद हो गए। उनके आखिरी शब्द थे- ‘ना छोड़नूं’ (नेपाली भाषा में ‘उन्हें छोड़ना नहीं’)। कैप्टन पांडे की इस दिलेरी ने अन्य प्लाटून और बटालियन के लिए आधार तैयार किया, जिसके बाद ही खालूबार पर कब्जा किया गया। इस अदम्य साहस के लिए उन्हें मरणोपरांत सेना का सर्वोच्च मेडल परम वीर चक्र प्रदान किया गया। उन्हें ‘हीरो ऑफ बटालिक’ भी कहा जाता है।

राइफलमैन संजय कुमार 

जन्म: 3 मार्च, 1976 को विलासपुर हिमाचल
यूनिट :13 JAK RIF
परमवीर चक्र 

राइफलमैन संजय कुमार का जन्म 3 मार्च, 1976 को विलासपुर हिमाचल प्रदेश के एक गांव में हुआ था। मैट्रिक पास करने के तुरंत बाद वह 26 जुलाई 1996 को फौज में शामिल हो गए। कारगिल युद्ध के दाैरान संजय 4 जुलाई 1999 को फ्लैट टॉप प्वाइंट 4875 की ओर कूच करने के लिए राइफल मैन संजय ने इच्छा जताई की कि वह अपनी टुकड़ी के साथ अगली पंक्ति में रहेंगे।

संजय जब हमले के लिए आगे बढ़े तो एक जगह से दुश्मन ओटोमेटिक गन ने जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी और टुकड़ी का आगे बढ़ना कठिन हो गया। ऐसे में स्थिति की गंभीरता को देखते हुए संजय ने तय किया कि उस ठिकाने को अचानक कमले से खामोश करा दिया जाए। इस इरादे से संजय ने एकाएक उस जगह हमला करके आमने-सामने की मुठभेड़ में तीन दुश्मन को मार गिराया और उसी जोश में गोलाबारी करते हुए दूसरे ठिकाने की ओर बढ़े।

राइफल मैन इस मुठभेड़ में खुद भी लहूलुहान हो गए थे, लेकिन अपनी ओर से बेपरवाह वह दुश्मन पर टूट पड़े। इस आकस्मिक आक्रमण से दुश्मन बौखला कर भाग खड़ा हुआ और इस भगदड़ में दुश्मन अपनी यूनीवर्सल मशीनगन भी छोड़ गया। संजय कुमार ने वह गन भी हथियाई और उससे दुश्मन का ही सफाया शुरू कर दिया।

संजय के इस चमत्कारिक कारनामे को देखकर उसकी टुकड़ी के दूसरे जवान बहुत उत्साहित हुए और उन्होंने बेहद फुर्ती से दुश्मन के दूसरे ठिकानों पर धावा बोल दिया। इस दौर में संजय कुमार खून से लथपथ हो गए थे लेकिन वह रण छोड़ने को तैयार नहीं थे और वह तब तक दुश्मन से जूझते रहे थे, जब तक वह प्वाइंट फ्लैट टॉप दुश्मन से पूरी तरह खाली नहीं हो गया। इस तरह राइफल मैन संजय कुमार ने अपने अभियान में जीत हासिल की।

ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव 

जन्म: 10 मई 1980, उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर 
यूनिट : 18वीं ग्रेनेडियर्स
ग्रेनेडियर, बाद में सूबेदार मेजर
परमवीर चक्र

सबसे कम आयु में ‘परमवीर चक्र’ प्राप्त करने वाले इस वीर योद्धा योगेंद्र सिंह यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के औरंगाबाद अहीर गांव में 10 मई, 1980 को हुआ था। 27 दिसंबर, 1996 को सेना की 18 ग्रेनेडियर बटालियन में भर्ती हुए योगेंद्र की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी सेना की ही रही है, जिसके चलते वो इस ओर तत्पर हुए। उनके पिता भी करन सिंह यादव भी भूतपूर्व सैनिक थे वह कुमायूं रेजिमेंट से जुड़े हुए थे और 1965 तथा 1971 की लड़ाइयों में हिस्सा लिया था।

कारगिल युद्ध में योगेंद्र का बड़ा योगदान है। उनकी कमांडो प्लाटून 'घटक' कहलाती थी। उसके पास टाइगर हिल पर कब्जा करने के क्रम में लक्ष्य यह था कि वह ऊपरी चोटी पर बने दुश्मन के तीन बंकर काबू करके अपने कब्जे में ले। इस काम को अंजाम देने के लिए 16,500 फीट ऊंची बर्फ से ढकी, सीधी चढ़ाई वाली चोटी पार करना जरूरी था।

इस बहादुरी और जोखिम भरे काम को करने का जिम्मा स्वेच्छापूर्णक योगेंद्र ने लिया और अपना रस्सा उठाकर अभियान पर चल पड़े। वह आधी ऊंचाई पर ही पहुंचे थे कि दुश्मन के बंकर से मशीनगन गोलियां उगलने लगीं और उनके दागे गए राकेट से भारत की इस टुकड़ी का प्लाटून कमांडर तथा उनके दो साथी मारे गए। स्थिति की गंभीरता को समझकर योगेंद्र ने जिम्मा संभाला और आगे बढ़ते बढ़ते चले गए। दुश्मन की गोलाबारी जारी थी। योगेंद्र लगातार ऊपर की ओर बढ़ रहे थे कि तभी एक गोली उनके कंधे पर और दो गोलियां जांघ व पेट के पास लगीं लेकिन वह रुके नहीं और बढ़ते ही रहे। उनके सामने अभी खड़ी ऊंचाई के साठ फीट और बचे थे।

उन्होंने हिम्मत करके वह चढ़ाई पूरी की और दुश्मन के बंकर की ओर रेंगकर गए और एक ग्रेनेड फेंक कर उनके चार सैनिकों को वहीं ढेर कर दिया। अपने घावों की परवाह किए बिना यादव ने दूसरे बंकर की ओर रुख किया और उधर भी ग्रेनेड फेंक दिया। उस निशाने पर भी पाकिस्तान के तीन जवान आए और उनका काम तमाम हो गया। तभी उनके पीछे आ रही टुकड़ी उनसे आकर मिल गई।

आमने-सामने की मुठभेड़ शुरू हो चुकी थी और उस मुठभेड़ में बचे-खुचे जवान भी टाइगर हिल की भेंट चढ़ गए। टाइगर हिल फतह हो गया था और उसमें योगेंद्र सिंह का बड़ा योगदान था। अपनी वीरता के लिए ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह ने परमवीर चक्र का सम्मान पाया और वह अपने प्राण देश के भविष्य के लिए भी बचा कर रखने में सफल हुए यह उनका ही नहीं देश का भी सौभाग्य है। 

कैप्टन विक्रम बत्रा

जन्म: 9 सितंबर, 1974, पालमपुर, हिमाचल प्रदेश
शहीद हुए : 7 जुलाई, 1999 (24 वर्ष)
यूनिट : 13 जेएंडके राइफल
परम वीर चक्र

शौर्य गाथा: इंडियन मिलिट्री एकेडमी से पासआउट होने के बाद 6 दिसंबर, 1997 को लेफ्टिनेंट के तौर पर सेना में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान उनकी बटालियन 13 जम्मू एंड कश्मीर रायफल 6 जून को द्रास पहुंची। 19 जून को कैप्टन बत्रा को प्वाइंट 5140 को फिर से अपने कब्जे में लेने का निदेश मिला। ऊंचाई पर बैठे दुश्मन के लगातार हमलों के बावजूद उन्होंने दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए और पोजीशन पर कब्जा किया। उनका अगला अभियान था 17,000 फीट की ऊंचाई पर प्वाइंट 4875 पर कब्जा करना। पाकिस्तानी फौज 16,000 फीट की ऊंचाई पर थीं और बर्फ से ढ़कीं चट्टानें 80 डिग्री के कोण पर तिरछी थीं।

7 जुलाई की रात वे और उनके सिपाहियों ने चढ़ाई शुरू की। अब तक वे दुश्मन खेमे में भी शेरशाह के नाम से मशहूर हो गए थे। साथी अफसर अनुज नायर के साथ हमला किया। एक जूनियर की मदद को आगे आने पर दुश्मनों ने उनपर गोलियां चलाईं, उन्होंने ग्रेनेड फेंककर पांच को मार गिराया लेकिन एक गोली आकर सीधा उनके सीने में लगी। अगली सुबह तक 4875 चोटी पर भारत का झंडा फहरा रहा था। इसे विक्रम बत्रा टॉप नाम दिया गया। उन्हें परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

कैप्टन अनुज नायर

जन्म : 28 अगस्त, 1975 दिल्ली
शहीद हुए : 7 जुलाई, 1999 (24 वर्ष)
यूनिट : 17 जाट रेजीमेंट
मरणोपरांत महावीर चक्र

शौर्य गाथा: इंडियन मिलिट्री एकेडमी से पासआउट होने के बाद जून, 1997 में जाट रेजिमेंट की 17वीं बटालियन में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान उनका पहला अभियान था प्वाइंट 4875 पर कब्जा करना। यह चोटी टाइगर हिल की पश्चिमी ओर थी और सामरिक लिहाज से बेहद जरूरी। इसपर कब्जा करना भारतीय सेना की प्राथमिकता थी। अभियान की शुरुआत में ही नैयर के कंपनी कमांडर जख्मी हो गए। हमलावर दस्ते को दो भागों में बांटा गया। एक का नेतृत्व कैप्टन विक्रम बत्रा ने किया और दूसरे का कैप्टन अनुज ने। कैप्टन अनुज की टीम में सात सैनिक थे, जिनके साथ मिलकर उन्होंने दुश्मन पर चौतरफा वार किया।

कैप्टन अनुज ने अकेले नौ पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया और तीन दुश्मन बंकर ध्वस्त किए। चौथे बंकर पर हमला करते समय दुश्मन ने उनकी तरफ रॉकेट से चलने वाली ग्रेनेड फेंका जो सीधा उनपर गिरा। बुरी तरह जख्मी होने के बाद भी वे बचे हुए सैनिकों का नेतृत्व करते रहे। शहीद होने से पहले उन्होंने आखिरी बंकर को भी तबाह कर दिया। दो दिन बाद दुश्मन सेना ने फिर से चोटी पर हमला किया जिसका जवाब कैप्टन विक्रम बत्रा की टीम ने दिया। कैप्टन नायर को मरणोपरांत महावीर चक्र प्रदान किया गया।

कैप्टन नीकेजाकुओ कैंगुरूसे

जन्म: 15 जुलाई, 1974 नरहेमा, कोहिमा जिला, नगालैंड
शहीद हुए : 28 जून, 1999
यूनिट : 2 राजपूताना राइफल
मरणोपरांत महावीर चक्र

शौर्य गाथा: 12 दिसंबर, 1998 में सेना में भर्ती हुए। जब कारगिल युद्ध शुरू हुआ, वे राजपूताना रायफल बटालियन में जूनियर कमांडर थे। उनकी दृढ़ता और दिलेरी के कारण उन्हें अपनी बटालियन के घातक प्लाटून का नेतृत्व सौंपा गया। 28 जून की रात कैप्टन कैंगुरूसे के प्लाटून को ब्लैक रॉक नामक टीले से दुश्मन को खदेड़ने की जिम्मेदारी मिली। टीले पर चढ़ाई के दौरान ऊपर से दुश्मन के लगातार हमले में कई सैनिक शहीद हुए और खुद कैप्टन को कमर में गोली लगी, लेकिन वे रुके नहीं।

ऊपर पहुंचकर वे एक पत्थर की आड़ में टीले के किनारे लटके रहे। 16,000 फीट ऊंचाई और -10 डिग्री तापमान में बर्फ पर लगातार उनके जूते फिसल रहे थे। लौटकर नीचे आना ज्यादा आसान था, लेकिन वे अपने जूते उतारकर नंगे पैर टीले पर चढ़े और आरपीजी रॉकेट लांचर से सात पाकिस्तानी बंकरों पर हमला किया। दो दुश्मनों को कमांडो चाकू से मार गिराया और दो को अपनी रायफल से। दुश्मनों की गोलियों से छलनी होकर वे टीले से नीचे आ गिरे, लेकिन इतना कर गए कि उनके प्लाटून ने टीले पर कब्जा कर लिया। इस दिलेरी के लिए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। 

स्क्वाड्रन लीडर अजय आहूजा

जन्म: 22 मई, 1963 कोटा, राजस्थान
शहीद हुए : 27 मई 1999
यूनिट : गोल्डन ऐरोज, स्क्वाड्रन नंबर 17
मरणोपरांत वीर चक्र

शौर्य गाथा: नेशनल डिफेंस एकेडमी से पासआउट होने के बाद 14 जून, 1985 को फाइटर पायलट के तौर पर भारतीय वायु सेना में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान नियंत्रण रेखा के इस तरफ की स्थिति का जायजा लेने के लिए ऑपरेशन सफेद सागर लांच किया गया। इसमें शामिल फ्लाइट लेफ्टिनेंट नचिकेता के मिग-27एल विमान के इंजन में आग लगने के बाद वह उसमें से बाहर कूदे।

स्क्वाड्रन लीडर आहूजा अपने मिग-21एमएफ विमान में दुश्मन की पोजीशन के ऊपर उड़ान भरते रहे ताकि बचाव दल को नचिकेता की लोकेशन की जानकारी देते रहें। उन्हें अच्छी तरह पता था कि दुश्मन कभी भी उन पर सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल दाग सकता है। हुआ भी ऐसा ही, कुछ ही देर में उनके विमान पर एमआइएम-92 स्ट्रिंगर से वार हुआ। वे अपने विमान से बाहर कूदे। अब वायु सेना को एक नहीं दो बचाव अभियानों को अंजाम देना था। लेकिन वायु सेना को उनकी लोकेशन की जानकारी नहीं मिली। पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें बंदी बनाकर बेरहमी से उनकी हत्या कर दी। उनके पार्थिव शरीर पर कई गंभीर घावों के निशान दिखे। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया। 

हवलदार यश वीर सिंह तोमर

जन्म: 04 जनवरी, 1960 सिरसाली, उत्तर प्रदेश
शहीद हुए : 13 जून, 1999
यूनिट : 2 राजपूताना राइफल
मरणोपरांत वीर चक्र

शौर्य गाथा: कारगिल युद्ध के दौरान 18 ग्रेनेडियर्स को तोलोलिंग चोटी पर कब्जा करने का निर्देश मिला। ग्रेनेडियर्स के कई विफल प्रयासों के बाद राजपूताना रायफल की दूसरी बटालियन को हमले के लिए आगे किया गया। ग्रेनेडियर्स ने तीन प्वाइंट से राजपूताना को कवर दिया। मेजर विवेक गुप्ता के नेतृत्व में 90 सैनिक अंतिम हमले के लिए आगे बढ़े। इसी पलटन में यश वीर भी शामिल थे। यह पलटन प्वाइंट 4950 को अपने कब्जे में लेने के आखिरी चरण में थी।

12 जून को पाकिस्तान की तरफ से भारी गोलाबारी के बीच जब भारतीय सैनिक एक एक कर शहीद हो रहे थे, तो हवलदार यश वीर सिंह ने ग्रेनेड लेकर पाकिस्तानी बंकरों पर धावा बोला। उन्होंने बंकरों पर 18 ग्रेनेड फेंके और दुश्मनों को मार गिराया। उनके साहस को देखकर दुश्मनों के छक्के छूट गए। उनके पैर उखड़ने शळ्रू ही हुए थे कि इस दौरान वे गंभीर रूप से जख्मी हुए और शहीद हो गए। जब उनका शरीर मिला तो उसके एक हाथ में रायफल और दूसरे में ग्रेनेड थे। तोलोलिंग फतह करने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया। 

कैप्टन सौरभ कालिया
जन्म: 29 जून, 1976 अमृतसर, पंजाब
शहीद हुए : 9 जून, 1999
यूनिट : 4 जाट रेजीमेंट

शौर्य गाथा: कंबाइंड डिफेंस सर्विसेज के जरिए दिसंबर, 1998 में इंडियन मिलिट्री एकेडमी में भर्ती हुए। जाट रेजिमेंट की चौथी बटालियन में पहली पोस्टिंग कारगिल में मिली। जनवरी, 1999 में उन्होंने कारगिल में रिपोर्ट किया। मई के शुरुआती दो हफ्तों में कारगिल के ककसर लांग्पा क्षेत्र में गश्त लगाते हुए उन्होंने बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिकों और विदेशी आतंकियों को एलओसी के इस तरफ देखा।

15 मई को अपने पांच साथियों- सिपाही अर्जुन राम, भंवर लाल बगारिया, भीका राम, मूला राम और नरेश सिंह के साथ लद्दाख की पहाड़ियों पर बजरंग पोस्ट की तरफ गश्त लगाने गए। वहां पाकिस्तानी सेना की तरफ से अंधाधुंध फार्यंरग का जवाब देने के बाद उनके गोला- बारूद खत्म हो गए। इससे पहले की भारतीय सैनिक वहां मदद लेकर पहुंच पाते, पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें बंदी बना लिया। पाकिस्तानी रेडियो स्कार्दू ने खबर चलाई कि कैप्टन सौरभ कालिया को बंदी बना लिया गया है। उन्हें 15 मई से 7 जून (23 दिन) तक बंदी रखा गया और घृणित अमानवीय बर्ताव किया गया। 9 जून को उनके शरीर को भारतीय सेना को सौंपा गया।

मेजर राजेश सिंह अधिकारी

जन्म: 25 दिसंबर, 1970 नैनीताल, उत्तराखंड
शहीद हुए : 30 मई, 1999 (उम्र 28 वर्ष)
यूनिट : 18 ग्रेनेडियर्स
मरणोपरांत वीर चक्र 

शौर्य गाथा: इंडियन मिलिट्री एकेडमी से 11 दिसंबर, 1993 को सेना में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान 30 मई को उनकी यूनिट को 16,000 फीट की ऊंचाई पर तोलोलिंग चोटी पर कब्जा करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। यह पोजीशन भारतीय सेना के लिए बेहद अहम थी क्योंकि यहीं पर भारतीय सेना बंकर बनाकर टाइगर हिल पर बैठे दुश्मनों पर निशाना साध सकती थी। जब मेजर अधिकारी अपने सैनिकों के साथ लक्ष्य की ओर बढ़ रहे थे तो दुश्मनों ने दो बंकरों से उनपर हमला करना शुरू किया। 

12 जून को पाकिस्तान की तरफ से भारी गोलाबारी के बीच जब भारतीय सैनिक एक एक कर शहीद हो रहे थे, तो हवलदार यश वीर सिंह ने ग्रेनेड लेकर पाकिस्तानी बंकरों पर धावा बोला। उन्होंने बंकरों पर 18 ग्रेनेड फेंके और दुश्मनों को मार गिराया। उनके साहस को देखकर दुश्मनों के छक्के छूट गए। जब उनका शरीर मिला तो उसके एक हाथ में रायफल और दूसरे में ग्रेनेड थे। तोलोलिंग फतह करने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया।


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