Book Review: महानदी की धारा के साथ बहते सवालों से सामना
Book Review यह उपन्यास विकास योजनाओं के कारण विस्थापन की समस्या को दिखाता है लेकिन इसका एकतरफा विश्लेषण ही किया गया है। इसके बावजूद प्रशासनिक सेवा की अधिकारी और बांग्ला की मशहूर लेखिका अनिता अग्निहोत्री का उपन्यास महानदी पाठक को सोचने पर मजबूर करता है।
ब्रज बिहारी। झीलों, झरनों और हिमनदों से निकलकर नदियां पहाड़ों, घाटियों और पठारों के बीच ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए मैदानों में पहुंचती हैं और फिर कल-कल बहती हुई किसी दूसरी नदी में या फिर समुद्र में मिलकर विलीन हो जाती हैं। इनकी यह यात्रा अविरल और अविराम चलती रहती है। कभी न खत्म होने वाले इस सफर में वे अलग-अलग खान-पान, भाषा और वेशभूषा का प्रतिनिधित्व करती हुई चलती हैं। उनके किनारे महान सभ्यताओं ने जन्म लिया और अपने चरम पर पहुंचीं।
मानव सभ्यता के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को अपने अंदर समेटने वाली नदियों ने अपने विकराल रूप से विनाश की गाथाएं भी लिखी हैं, लेकिन आधुनिक काल में नदियों को बांधने की कोशिश के कारण उन पर निर्भर लोगों के जीवन पर सबसे अधिक असर पड़ा है। देश की सबसे बड़ी नदियों में शामिल महानदी के किनारे रहने वाले ऐसे ही लोगों के जीवन पर आधारित लेखिका अनिता अग्निहोत्री का उपन्यास 'महानदी' पाठक को सोचने पर मजबूर करता है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से सटे धमतरी जिले के सिहावा नामक पर्वत शृंखला से निकलने वाली महानदी छत्तीसगढ़ और ओडिशा में लगभग एक हजार किमी की दूरी तय कर ओडिशा के जगतसिंहपुर जिले के पास बंगाल की खाड़ी में गिरती है। प्राचीनकाल में चित्रोत्पला के नाम से जानी जाने वाली इस नदी को महानंदा और नीलोत्पला भी कहा जाता है। इसका एक नाम मंदवाहिनी भी था। आधा दर्जन सहायक नदियों को साथ लेकर अनथक बहने वाली इस नदी पर वैसे तो तीन बांध बनाए गए, लेकिन हीराकुंड डैम के कारण जहां कुछ लोगों को काफी फायदा हुआ, वहीं हाशिए पर खड़े लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बड़ी नदियों पर बहुद्देश्यीय परियोजनाओं की शुरुआत की गई और इसके तहत ओडिशा के संबलपुर में महानदी पर 1957 में हीराकुंड बांध बनाया गया। इसकी वजह से जिनका जीवन और आजीविका प्रभावित हुई, उनके पुनर्वास की कोई गंभीर कोशिश नहीं की गई।
लेखिका ने अपने इस उपन्यास में महानदी के किनारे रहने वाले तुलाराम, धुरू, मालती गोंड, नीलकांत, भानु, पार्वती एवं अन्य पात्रों के जरिए एक कथानक गढऩे का प्रयास किया है। ये पात्र भले ही कभी एक-दूसरे से न मिल पाए हों, लेकिन इन सभी के जीवन के संघर्षों की कहानी जिस धागे से गुंथी हुई है, उसका नाम महानदी है। यह उपन्यास हमें बताता है कि कैसे जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सामने हीराकुंड बांध की वजह से विस्थापित लोगों की पीड़ा बयान करते हुए उनके पुनर्वास का प्रश्न खड़ा किया गया तो उन्होंने कहा था कि प्रभावित लोगों को राष्ट्र के बृहत्तर हित में कष्ट तो सहना ही पड़ेगा।
पूरा उपन्यास विडंबनाओं से भरा हुआ है, जहां ऐसे पुलिसवाले हैं, जिनके लिए जनता की जान की कोई कीमत नहीं है, वहीं ऐसे पुलिसकर्मी भी हैं, जो नक्सलियों की निरुद्देश्य हिंसा का शिकार हो जाते हैं। कभी आपको उनसे घृणा होगी और कभी उनसे सहानुभूति। विकास योजनाओं के कारण विस्थापन की समस्या पहले भी थी और आज भी है, लेकिन इसका एकतरफा विश्लेषण हमें कहीं नहीं ले जाएगा। हर चीज की तरह इसके भी दो पहलू हैं। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि विस्थापन से प्रभावित लोगों का समुचित पुनर्वास होना चाहिए, लेकिन देश की लगातार बढ़ती आबादी के जीवन को बेहतर बनाने के लिए विकास योजनाओं की भी जरूरत है। हमें दोनों के बीच संतुलन बनाकर चलना होगा। लेखिका ने इस संतुलन के बजाय कहानी के सिर्फ एक पहलू को दिखाया है।
मूलत: बांग्ला भाषा में लिखने वाली अनिता अग्निहोत्री की इस पुस्तक का अनुवाद दिल्ली यूनिवर्सिटी के हंसराज कालेज में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाने वाली निवेदिता सेन ने किया है। कहना न होगा कि अनुवादक ने मूल भाषा के भाव को बनाए रखने की पूरी कोशिश की और इसमें वह सफल भी हुई हैं। वर्ष 1980 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल हुई अनिता अग्निहोत्री की बांग्ला में विपुल रचनाएं उपलब्ध हैं। उपन्यास, कहानी और कविता के साथ अन्य विधाओं में भी हाथ आजमा चुकीं अनिता को कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। भारतीय भाषाओं के अलावा उनकी कई रचनाओं का जर्मन और स्वीडिश भाषा में भी अनुवाद हो चुका है।
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पुस्तक का नाम : महानदी
लेखिका : अनिता अग्निहोत्री
प्रकाशक : नियोगी बुक्स
मूल्य : 595 रुपये