नक्सलियों के बीच बीते सात दिनों की रोमांचक गाथा, निकट से समझने का एक प्रयास
पुस्तक में मुख्य तौर पर नक्सलियों के बीच बिताए गए सात दिनों की कहानी को प्रस्तुत किया गया है। इसमें प्रशांत ज्ञानजी कोहली विकास और सोमवारी के रूप में पांच पात्र कहानी के केंद्र में रखे गए हैं।
अमित तिवारी। नक्सलवाद देश की बड़ी समस्या है। अधिकारों और समतामूलक समाज के नाम पर हिंसा और हत्या की राह पर चलते नक्सलियों को सही और गलत के पैमाने पर परखना बहुत सरल नहीं है। अलग-अलग छोर से देखने पर इनकी अलग-अलग तस्वीरें दिखाई देती हैं। अल्पा शाह की लिखी 'नक्सलियों के बीच मेरे बीते दिनों की रोमांचक गाथा' भी ऐसा ही एक पहलू सामने रखती है।
लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स एंड पालिटिकल साइंस की एसोसिएट प्रोफेसर अल्पा शाह ने 'नाइटमार्च' के नाम से नक्सलियों के बीच के अपने अनुभव पर किताब लिखी थी। यह हिंदी संस्करण इसी का अनुवाद है। इस लिहाज से यदि भाषा की बात करें, तो निस्संदेह अनूदित संस्करण बहुत हद तक मूल के निकट बन पड़ा है। कहानी का तार और भाव टूट नहीं पाता।
अल्पा शाह ने फरवरी, 2010 में कुछ समय नक्सलियों के गढ़ में उनके साथ बिताया था। यह पुस्तक उसी अनुभव को शब्द देती है। इसमें आदिवासियों के बीच पनपती नक्सली विचारधारा के बीजों को समझने का प्रयास किया गया है। साथ ही यह पुस्तक पिछड़ा कहे जाने वाले आदिवासियों के जीवन में स्थापित स्त्री-पुरुष समता के आदर्श मानकों से लेकर कई अन्य तथ्यों को भी सामने रखती है। वस्तुत: एक कालखंड में जुटाए गए अपने अनुभवों को सामने रखने की अल्पा शाह की यह कोशिश एक रोमांचक उपन्यास का भी अनुभव देती है। साहित्य की दृष्टि से यह पुस्तक की बड़ी विशेषता है। मूलत: मानव विज्ञानी के रूप में अकादमिक अनुभव के लिए किए गए सफर की गाथा को किसी उपन्यास जैसा बना देना निश्चित तौर पर लेखन की श्रेष्ठता को दर्शाता है। पुस्तक में मुख्य तौर पर नक्सलियों के बीच बिताए गए सात दिनों की कहानी को प्रस्तुत किया गया है। इसमें प्रशांत, ज्ञानजी, कोहली, विकास और सोमवारी के रूप में पांच पात्र कहानी के केंद्र में रखे गए हैं। इन पात्रों को मूल में रखते हुए ही अल्पा शाह ने नक्सलियों के गढ़ में बिताए उन रोमांचक पलों को सामने रखा है। इन्हीं के बहाने से कहानी कुछ अन्य पात्रों और पुरानी घटनाओं को भी छूती है।
इस बात में कोई संदेह नहीं कि सुरक्षाबलों के अभियान के कारण डर के साये में जीते इन आदिवासियों की कहानी उनके प्रति सहानुभूति भी पैदा करती है। कई बार ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं समाज का एक वर्ग यदि अपनी ही सरकार के खिलाफ हथियार उठा रहा है, तो निस्संदेह यह सरकार और लोकतंत्र की विफलता है। उस डर के बीच उनके जीवन का रोमांच और उनकी विवशता दोनों की साफ झलक दिखती है। हालांकि किताब नक्सलियों के तौर-तरीकों को सही साबित करने का प्रयास भी नहीं करती है।
लेखिका ने मौजूदा दौर में नक्सलियों की परिपाटी पर सवाल भी उठाया है। यह सवाल सही भी है कि जिन अधिकारों और समता के नाम पर नक्सली आदिवासियों को कथित क्रांति की राह पर ले जा रहे हैं, असल में उससे आदिवासियों के जीवन पर कितना सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। क्या नक्सलियों के हमले में मारे जाने वाले जवान भी वैसे ही गरीब परिवार से नहीं आते हैं, जिन गरीब परिवारों को कथित क्रांति की राह पर नक्सली ले जाना चाहते हैं? जिस पूंजीवाद से लड़ने के लिए नक्सली क्रांति कर रहे हैं, क्या उस लड़ाई के लिए उन्हें उसी पूंजी की आवश्यकता नहीं पड़ती है? किताब के आखिर में लेखिका ने इस क्रांति के कुछ विरोधाभासों को भी सामने रखा है।
वह लिखती हैं, 'महत्वपूर्ण बात यह है कि आदिवासी इलाकों में, जो न तो सामंतवादी थे और न ही पूंजीवादी मूल्यों का उन पर प्रभाव था, वहां भी माओवादियों ने अर्धसामंतवाद की विचारधारा और पूंजीवादी विकास के दृष्टिकोण का ही अनुसरण किया और इससे एक और विरोधाभास पैदा हुआ। किताब भले ही 11 साल पुरानी पृष्ठभूमि पर लिखी गई है, लेकिन इसकी बातें प्रासंगिक हैं। सहमति या असहमति, दोनों ही दृष्टि से इसे पढ़ा जाना चाहिए।'
पुस्तक : नक्सलियों के बीच मेरे बीते दिनों की रोमांचक गाथा
लेखिका : अल्पा शाह
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
मूल्य : 700 रुपये