दृष्टिकोणः इस बार बढ़ गई है बिहार में विकास की भूख
बिहार पर देश की नजर टिकी हुई है। गली नुक्कड़ ही सही, अगर वहां राजनीतिक चर्चा हो रही है तो बिहार केंद्र में है। चर्चा के दो मुख्य बिंदु हैं। पहला यह कि जो बिहार दस साल पहले ही विकास के मुद्दे को चुन चुका है और लगातार दूसरी बार
[दृष्टिकोण: प्रशांत मिश्र]
बिहार पर देश की नजर टिकी हुई है। गली नुक्कड़ ही सही, अगर वहां राजनीतिक चर्चा हो रही है तो बिहार केंद्र में है। चर्चा के दो मुख्य बिंदु हैं। पहला यह कि जो बिहार दस साल पहले ही विकास के मुद्दे को चुन चुका है और लगातार दूसरी बार उसी मुद्दे के सहारे अपनी नियति बदलने का संकल्प दिखा चुका है, क्या अब वह अपने मुद्दे से डिगेगा? विकास के प्रति उसकी आस्था क्या जातिवाद के नाम पर बदलेगी? दूसरा मुद्दा रोचक है। वह यह कि लालू प्रसाद क्या घोषणा करने के बावजूद नीतीश कुमार को चेहरा मानने के लिए तैयार नहीं हैं? अगर ऐसा नहीं है तो हर मौके बेमौके अपने बयानों से नीतीश और कांग्रेस को असहज क्यों करते फिर रहे हैं।
बिहार पर जातिवादी होने का आरोप लगता रहा है। कुछ हद तक यह किसी भी राज्य के लिए सही हो सकता है। लेकिन जहां तक मेरी नजर पड़ती है बिहार में विकास की ललक और भूख ज्यादा तेज है। लगातार दो बार से बिहार में विधानसभा के जो चुनावी नतीजे आए थे उसके बाद किसी को इस बाबत कोई भ्रम भी नहीं रहना चाहिए। लेकिन यह विडंबना है कि जिस जंगलराज की दुहाई देकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सत्ता की सीढ़ी चढ़े थे, इस बार वह चुनावी गणित से मजबूर होकर उसी जंगलराज को ओढऩे को तैयार हो गए। नीतीश कुमार की व्यक्तिगत छवि तो साफ-सुथरी है लेकिन जंगलराज की कालिख से दामन बचाना मुश्किल है।
2005 के चुनाव में भाजपा के साथ मिलकर नीतीश ने विकास को अपने चुनावी अभियान की धुरी बनाया था लेकिन आज जातिगत कार्ड ज्यादा खेले जा रहे हैं। लालू प्रसाद बैकवर्ड फॉरवर्ड की दरार पैदा करने में लगे हैं और नीतीश की मजबूरी है कि वह हां में सिर हिलाएं। लालू प्रसाद अपने परिवारवाद को बढ़ावा दें, कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज कर बेटों को टिकट दें और नीतीश की मजबूरी है कि वह इसका सम्मान करें। जाहिर है कि इसके बाद निष्पक्ष सुशासन की उम्मीद कम हो जाती है। बताते हैं कि लालू प्रसाद ने जिस तरह बैकवर्ड फॉरवर्ड का कार्ड खेलना शुरू किया है उससे जदयू और कांग्रेस दोनों असहज हैं। परोक्ष रूप से वह नीतीश के चेहरे को पीछे कर अपने चेहरे पर वोट मांग रहे हैं। इसका राजनीतिक अर्थ क्या है यह कोई भी समझ सकता है। बल्कि लालू प्रसाद और उनकी पार्टी तो यह बोलने से हिचक भी नहीं रही है कि राजद आगे होगा, जदयू पीछे। पहले चरण के मतदान में महज 12 दिन बचे हैं, लेकिन महागठबंधन के अंदर शीर्ष पर ही इतनी खींचतान है कि नीचे कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय मुश्किल है।
महागठबंधन की एक और विडंबना है। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस के खिलाफ संपूर्ण क्रांति की अलख जगाई गई थी। अब उसी संपूर्ण क्रांति के कई योद्धा कांग्रेस का हाथ थामे हैं। लेकिन यहां भी हिचक बरकरार है और महागठबंधन की एकजुटता पर सवाल उठता है। राहुल गांधी लालू के साथ मंच पर आने से इन्कार कर चुके हैं। लालू और नीतीश राहुल की रैली से दूरी बना चुके हैं। कांग्र्रेस को यह नागवार गुजर रहा है कि संयुक्त रैली में उसे उचित महत्व नहीं मिल रहा है। तीनों दल साथ भी हैं और अलग-अलग भी।
दूसरी ओर राजग के अंदर शुरुआती खींचतान दिखी। टिकट बंटवारे को लेकर कुछ कलह भी सतह पर आ रही है लेकिन चुनावी अभियान का मुख्य बिंदु विकास है। जबकि महागठबंधन अभी तक तय नहीं कर पाया है कि मुद्दा क्या है। जमीन पर प्रबंधन हर मोर्चे पर हो रहा है। टिकट बंटवारे में राजग और महागठबंधन दोनों ने समीकरण साधे हैं।
खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पटना में डेरा जमा लिया है। जाहिर तौर पर माइक्रो मैनेजमेंट का खूब जोर दिखेगा। लेकिन नारों में विकास ही मुख्य मुद्दा है। सवा लाख करोड़ के पैकेज पर राजनीति जरूर हो रही है। लेकिन आम बिहारी चाहता है कि वह पैकेज आए भी और उसका असर भी दिखे। आम बिहारी नहीं चाहता है कि पैकेज राजनीति की भेंट चढ़ जाए। केंद्र में राजग की सरकार है और यही भाजपा को बढ़त देता है। भाजपा विकास की इसी भूख को जिंदा रखना चाहती है। पिछले महीने चार क्षेत्रीय रैलियां कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वह काम कर दिया है। रैलियों में उनकी विश्वसनीयता दिख चुकी है। गांधी जयंती के दिन से वह बिहार की चुनावी सभाएं शुरू करने वाले हैं और शायद उसी दिन से यह भी तय हो जाएगा कि भाजपा अपनी बढ़त को कितना मजबूत कर पाती है।