Move to Jagran APP

2600 वर्षों में आठ बार बदला यूपी के इस शहर का नाम, जानें अब क्‍यों है खास

आज का गोरखपुर 2600 वर्ष पूर्व रामग्राम कहलाता था। इस जगह का धार्मिक और सांस्‍कृतिक ताना-बाना बेहद मजबूत है। यही वजह है कि इस जगह की पूरी दुनिया में अलग पहचान है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 17 Jan 2019 04:09 PM (IST)Updated: Fri, 18 Jan 2019 08:23 AM (IST)
2600 वर्षों में आठ बार बदला यूपी के इस शहर का नाम, जानें अब क्‍यों है खास
2600 वर्षों में आठ बार बदला यूपी के इस शहर का नाम, जानें अब क्‍यों है खास

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासतों से समृद्ध है उत्तर प्रदेश। इन दिनों जहां प्रयागराज में कुंभ की रौनक है तो राप्ती नदी के किनारे बसे पूर्वांचल के गोरखपुर में शुरू हो गया है मशहूर खिचड़ी उत्सव (खिचड़ी मेला)। आज चलते हैं सतरंगी विविधताओं वाले शहर गोरखपुर के रोचक सफर पर...

loksabha election banner

यह मौसम है खास और इस मौसम में हर शहर में कोई न कोई ऐसा आयोजन हो रहा है, जो आपके मन को इस गुलाबी सर्दी में गर्मजोशी से भर दे। गोरखपुर में मकर संक्रांति पर बाबा गोरखनाथ के दरबार में खिचड़ी चढ़ाने की परंपरा महाउत्सव के रंग में रंग गई है। यहां नेपाल के राजपरिवार की ओर से भी खिचड़ी चढ़ाई जाती है। मंदिर प्रबंधन ने इस परंपरा में एक कड़ी और जोड़ दिया है। शाही परिवार से खिचड़ी आने के बाद अगले दिन राजपरिवार को विशेष रूप से तैयार किया गया ‘महारोट’ प्रसाद भेजा जाता है। देसी घी व आटे से बनाए जाने वाले इस प्रसाद को नाथ पंथ के योगी ही तैयार करते हैं।

रामग्राम से गोरखपुर तक: बीते 2600 वर्षों में गोरखपुर आठ नामों की पहचान का सफर तय कर चुका है। रामग्राम, पिप्पलीवन, गोरक्षपुर, सूबा-ए-सर्किया, अख्तरनगर, गोरखपुर सरकार, मोअज्जमाबाद और अब गोरखपुर। पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर इसे 2600 वर्ष पुराना कहा जा सकता है। आज का गोरखपुर ही तब का रामग्राम था, जो छठी शताब्दी ईसा पूर्व पांच गणराज्यों में से एक था, जहां महात्मा बुद्ध ने ठहरकर कोलियों और शाक्यों के बीच का नदी जल विवाद सुलझाया था। सांस्कृतिक दृष्टि से इसकी महत्ता योगमूलक है। इसके सूत्र हमें सातवीं-आठवीं शताब्दी में महायोगी गुरु गोरक्षनाथ की योग-सभ्यता, उनके तत्व ज्ञान और विपुल साहित्य में मिलते हैं।

मेले में समरसता का नजारा: मकर संक्रांति यानी खिचड़ी से गोरखनाथ मंदिर परिसर में लगने वाला विशाल मेला महाशिवरात्रि तक यानी एक माह चलता है। वैसे तो गोरखनाथ मंदिर हिंदुओं की आस्था का केंद्र है, लेकिन मुस्लिम समाज में भी इसके प्रति समान उत्साह रहता है। मेला-परिसर में आधा से ज्यादा दुकानें व ठेले मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा लगाए जाते हैं। इसके चलते मेले को सामाजिक समरसता की मिसाल के रूप में देखा जाता है।

साहित्य शिरोमणियों से नाता : यहां हिंदी, संस्कृत, फारसी, उर्दू, भोजपुरी आदि भाषाओं के साहित्य की समृद्ध परंपरा रही है। महान शायर रघुपति सहाय यानी फिराक गोरखपुरी का नाम तो देश के साहित्यिक क्षितिज पर चमकता ही है, कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कर्मस्थली भी यही रही है। शिक्षा विभाग में कार्यरत प्रेमचंद ने नौ साल यहीं गुजारे थे। महात्मा गांधी का भाषण सुनने के बाद वे यहां की सरकारी नौकरी छोड़ कर स्वतंत्र लेखन करने लगे थे। इनके अलावा, पं. विद्यानिवास मिश्र, परमानंद श्रीवास्तव, उमर कुरैशी, रियाज खैराबादी, गिरीश रस्तोगी, डॉ. विश्वनाथ तिवारी (साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष) जैसे नामचीन साहित्यकारों ने गोरखपुर का नाम देश-दुनिया में ऊंचा किया है।

प्रेमचंद के किरदार रहे हैं यहां : प्रेमचंद ने यहां पर प्रवास के दौरान कई कालजयी उपन्यासों और कहानियों की रचना की। ‘ईदगाह’, ‘नमक का दारोगा’, ‘रामलीला’, ‘बूढ़ी काकी’ और ‘गोदान’ के चित्रण के साथ-साथ किरदार भी यहीं से चुने। ये किरदार गोरखपुर के ही माने जाते हैं। ‘ईदगाह’ की रचना उन्होंने नार्मल रोड स्थित मुबारक खां शहीद की दरगाह पर लगने वाले मेले को केंद्र में रखकर की तो ‘नमक का दारोगा’ ‘राप्ती’ नदी पर बने राजघाट पुल पर केंद्रित मानी जाती है। ‘बूढ़ी काकी’ मोहल्ले में बर्तन मांजने वाली एक बूढ़ी महिला की कहानी है। ‘गोदान’ भी अंग्रेजी हुकूमत में किसानों के दर्द की तस्वीर खींचती है, जिसके किरदार गोरखपुर के इर्दगिर्द के लगते हैं। आज यहां प्रेमचंद साहित्य संस्थान प्रेमचंद को जानने- समझने का बेहतरीन केंद्र है।

चौरीचौरा कांड : ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचारों से त्रस्त भारतीयों ने असहयोग आंदोलन के दौरान 5 फरवरी, 1922 को यहां एक पुलिस चौकी को आग के हवाले कर दिया था, जिससे वहां छिपे 22 पुलिस कर्मी जिंदा जल गए थे। इस घटना से आहत होकर महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था। चौरीचौरा कांड के कथित दोषियों का मुकदमा पं. मदन मोहन मालवीय ने लड़ा।

गीता प्रेस की लोकप्रियता: कोलकाता के सेठ जयदयाल गोयंदका ने शुद्धतम गीता के प्रकाशन के लिए 1923 में यहां प्रेस की स्थापना की, जो गीता प्रेस के नाम से मशहूर है। यहां हिंदी, संस्कृत, बांग्ला, मराठी, गुजराती, तमिल, कन्नड़, असमिया, उड़िया, उर्दू, मलयालम, पंजाबी, अंग्रेजी और नेपाली में धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन होता है। यहां से अब तक 66 करोड़ से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है, जिसमें करीब 14 करोड़ गीता का प्रकाशन शामिल है।

दर्शनीय गोरखनाथ मंदिर

आस्था का महती केंद्र गुरु गोरक्षनाथ की तपोस्थली गोरखनाथ मंदिर योग-साधना का प्राचीनतम स्थान है। यह मंदिर रेलवे स्टेशन से पांच किलोमीटर दूर स्थित है। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा से परिभ्रमण करते हुए गुरु गोरक्षनाथ ने इसी स्थान पर दिव्य समाधि लगाई थी। इसी वजह से जिले को भी उन्हीं का नाम मिला। शुरुआती दौर में यह स्थल तपोवन के स्वरूप में था, लेकिन बाद में पीठ के ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ ने मंदिर को भव्य स्वरूप देना शुरू किया।

ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ के संरक्षण में मंदिर ही नहीं, बल्कि 52 एकड़ में फैला यह पूरा परिसर ही रमणीक हो गया है। वर्तमान पीठाधीश्वर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं। मंदिर में गुरु गोरक्षनाथ की चरण पादुकाएं भी प्रतिष्ठित हैं, जिनकी प्रतिदिन पूरे विधि-विधान से पूजा-अर्चना की जाती है। गुरु गोरक्षनाथ द्वारा जलाई गई अखंड धूनी के प्रति भी लोगों में गहरी आस्था है। परिसर के भीम सरोवर में आरंभ लाइट ऐंड साउंड शो के तहत 33 फीट की वाटर स्क्रीन पर नाथ पंथ के बारे में प्रामाणिक जानकारी दी जाती है।

300 साल से जल रही इमामबाड़ा में धूनी, सोने- चांदी के ताजिये हैं आकर्षण गोरखपुर शहर के मियां बाजार स्थित मियां साहब के इमामबाड़ा में रखे हुए हैं सोने-चांदी के ताजिए। केवल मोहर्रम के दिनों में इन्हें देखा जा सकता है। इन्हें अवध के नवाब आसफुद्दौला की बेगम ने सूफी संत रोशन अली शाह को भेंट किया था। यह एशिया में सुन्नी संप्रदाय का सबसे बड़ा इमामबाड़ा है।17वीं सदी के इस मियां साहब इमामबाड़ा का इतिहास 300 साल पुराना है, जहां आज भी धूनी जलती रहती  है।

रामगढ़ ताल : गोरखपुर में मरीन ड्राइव का एहसास गोरखपुर शहर भले ही समुद्र के किनारे नहीं बसा है, लेकिन समुद्री बीच पर खड़े होकर प्रकृति की अद्भुत छटा का एहसास अब यहां भी होने लगा है। रेलवे स्टेशन से महज तीन किलोमीटर की दूरी पर 1700 एकड़ में फैला अति प्राचीन रामगढ़ ताल है, जो अब पिकनिक स्पॉट का रूप ले चुका है। ताल के किनारे मुंबई के मरीन ड्राइव जैसा एहसास होता है। रामगढ़ ताल के किनारे कुछ ऐसे स्पॉट भी विकसित किए जा चुके हैं, जो वहां पूरा दिन गुजारने के लिए मजबूर करते हैं। खूबसूरत जेटी से नौकायन का लुत्फ उठाने का मौका यहां मिलता है तो पास में ही मौजूद बौद्ध संग्रहालय की कलाकृतियों और धरोहरों से ऐतिहासिक ज्ञान बढ़ता है। ताल से महज 200 मीटर की दूरी पर वीर बहादुर सिंह नक्षत्रशाला यहां आने का एक अन्य आकर्षण है। ताल के किनारे वाटर स्पोर्ट्स कॉम्लेक्स का निर्माण कराया जा रहा है, जिसमें न केवल वाटर स्पोर्ट्स के अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी तैयार होंगे, बल्कि वाटर रोविंग, केनोइंग, कयाकिंग, स्कीइंग, पैरा ग्लाइडिंग का लुत्फ भी उठाया जा सकेगा। ताल के बगल में ही जल्द ही शेर की दहाड़ भी सुनाई पड़ेगी, क्योंकि यहां चिड़ियाघर का निर्माण भी तेजी से हो रहा है।

विश्व का सबसे लंबा प्लेटफॉर्म

पूर्वोत्तर रेलवे के मुख्यालय स्टेशन गोरखपुर में विश्व का सबसे लंबा प्लेटफॉर्म है। प्लेटफॉर्म नंबर एक और दो को मिलाकर कुल लंबाई 1366.33 मीटर है। लिम्का बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड ने इसे विश्व के सबसे लंबे प्लेटफॉर्म का प्रमाण-पत्र भी दे दिया है।

औरंगाबाद गांव का टेराकोटा शिल्प

गोरखपुर शहर से महज 15 किलोमीटर दूर औरंगाबाद गांव अपने टेराकोटा हस्तशिल्प के लिए भारत में ही नहीं, विदेश में भी प्रसिद्ध है। यहां तैयार होने वाली विभिन्न कलाकृतियों और देवी-देवताओं की मूर्तियों की मांग विदेश में भी खूब है। यहां के शिल्पकारों को ब्रिटेन की महारानी भी सम्मानित कर चुकी हैं।

कपिलवस्तु: तथागत की क्रीड़ा स्थली

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक तथागत गौतम बुद्ध की क्रीड़ास्थली कपिलवस्तु है। शाक्य वंश की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध यह नगर, सिद्धार्थ नगर जनपद मुख्यालय से 20 किलोमीटर और गोरखपुर से 97 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां भगवान बुद्ध ने अपना बचपन सिद्धार्थ के रूप में बिताया था और 29 वर्ष की आयु में घर छोड़कर 12 वर्ष बोधगया से ज्ञान प्राप्त करके लौटे थे। वर्तमान में, पिपरहवा और गनवरिया जैसे खूबसूरत गांव कपिलवस्तु का सौंदर्य बढ़ाते हैं।

कुशीनगर : बुद्ध की महापरिनिर्वाण स्थली

गोरखपुर जिला मुख्यालय से 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कुशीनगर भगवान बुद्ध की महापरिनिर्वाण स्थली के रूप में विश्व मानचित्र पर स्थापित है। इतिहासकारों का मानना है कि 483 ईसा पूर्व भगवान बुद्ध यहां आए और महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए थे। कुशीनगर में भगवान बुद्ध के 4 प्राचीन दर्शनीय स्थल हैं। मुख्य मंदिर, जहां तथागत ने अपने प्राण त्यागे थे। उस मंदिर में भगवान बुद्ध की 21.6 फीट लंबी लेटी हुई प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा मथुरा शैली की है, जो 1876 में खुदाई से प्राप्त हुई थी। इस लेटी प्रतिमा की सबसे खास बात यह है कि यह तीन मुद्राओं में दिखाई देती है। पैर की तरफ से देखने पर शांतचित्त मुद्रा (महापरिनिर्वाण मुद्रा), बीच से देखने पर चिंतन मुद्रा और सामने से देखने पर मुस्कुराती मुद्रा में दिखाई देती है।

मगहर: संत कबीर का समाधि स्थल

मध्ययुगीन साधक संत कबीर की निर्वाण स्थली मगहर देश के प्रमुख आध्यात्मिक स्थलों में शुमार है। गोरखपुर से करीब 28 किमी. दूर गोरखपुर-लखनऊ राष्ट्रीय राजमार्ग पर संतकबीर नगर जिले के अंतर्गत स्थित है मगहर। हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के तौर पर याद किए जाने वाले संत कवि कबीर धार्मिक सामंजस्य और भाई- चारे की जो विरासत छोड़कर गए हैं, उसे इस परिसर में जीवंत रूप में देखा जा सकता है। दिलचस्प है कि परिसर में एक ओर कबीर की समाधि है तो दूसरी ओर उनकी मजार।

अद्वितीय है यह रेल संग्रहालय

रेलवे संग्रहालय और मनोरंजन पार्क आज के गोरखपुर में बड़े आकर्षण का केंद्र है। इसे वर्ष 2007 में जनता के लिए खोला गया था। इस संग्रहालय का विशेष आकर्षण लॉर्ड लॉरेंस का भाप इंजन है। इसे सन् 1874 में लंदन में बनाया गया था और एक जहाज द्वारा भारत लाया गया था। इसके अलावा, यहां एक फोटो गैलरी, वर्दी, पुरानी घड़ियां और कई अन्य इंजन भी हैं। बच्चों के मनोरंजन के लिए यहां एक खिलौना ट्रेन भी है। आप यहां आना चाहते हैं तो आपको इस पूरे संग्रहालय का भ्रमण करने में लगभग दो घंटे लग सकते हैं।

लुभा लेंगे खानपान के ये ठीहे

केवल ऐतिहासिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक मजबूती ही गोरखपुर की पहचान नहीं है, बल्कि आप यहां के स्वाद के भी दीवाने हो जाएंगे। घोष कंपनी चौक पर 100 बरस पहले से स्थापित ‘कन्हई’ और घंटाघर में ‘भगेलू’ की जलेबी की दुकान पर लंबी कतार लगती है तो ‘संतू’ और ‘पोले’ का समोसा दशकों से लोगों की पसंद बना हुआ है। बालापार का ‘मोछू का छोला’ और ‘बरगदवा की बुढ़ऊ चाचा की बर्फी’ मिठाई अपनी गुणवत्ता की वजह से गोरखपुर की पहचान बने हुए हैं। ‘भगवती की चाट’, ‘बनारसी का कचालू’ और ‘बंसी की कचौड़ी’ का कोई जोड़ नहीं है। यही वजह है कि दशकों पहले खुली ये दुकानें आज ब्रांड बन चुकी हैं। अग्रवाल की आइसक्रीम, गणेश व चौधरी का डोसा, कुमार की कुल्फी और शेरे पंजाब के लजीज मांसाहारी व्यंजनों की

मांग बखूबी बरकरार है। हालांकि आज की तारीख में गोरखपुर में खानपान के हर उस आधुनिक ब्रांड की भी मौजूदगी है, जिसके लिए कुछ समय पहले तक मेट्रो शहरों की ओर रुख करना पड़ता था।

ऐतिहासिक बाजार और मोहल्ले

शहर में स्थित मोहल्लों के नाम और उनकी बसावट इन्हें मुगलकाल से जोड़ते हैं। कुछ वर्षों तक गोरखपुर को ‘मोअज्जमाबाद’ के नाम से भी जाना जाता रहा है। शहर के उर्दू बाजार, रेती चौक, नखास चौक, बक्शीपुर, इलाहीबाग, खूनीपुर, जाफरा बाजार, छोटे काजीपुर, बड़े काजीपुर, दीवान बाजार, अलीनगर, इस्माइलपुर, नसीराबाद, अलीनगर, तुर्कमानपुर मोहल्ले न केवल अपने नाम से, बल्कि अपने वजूद से भी यहां की ऐतिहासिकता बयां करते हैं। सिनेमा रोड पर कभी आसपास छह सिनेमा हाल हुआ करते थे। विजय, यूनाइटेड, इंद्रलोक, मेनका, राज सिनेमा हॉल अब भी इस रोड की प्रासंगिकता बनाए हुए हैं। हालांकि विजय को छोड़ अन्य व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स में तब्दील होने की ओर हैं। रेलवे व बस स्टेशन के करीब स्थित गोलघर शहर का मुख्य बाजार है, जिसकी रौनक सुबह से देर रात तक बरकरार रहती है। गोलघर की तुलना लखनऊ के हजरतगंज से भी की जाती है।

[इनपुट सहयोग: गोरखपुर से शैलेन्द्र श्रीवास्तव, डॉ.

राकेश राय, क्षितिज पांडेय।

फोटो सहयोग: संगम दुबे]


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.