Ayodhya Case Verdict 2019 : सहमति-असहमति के बीच 2010 में क्या था इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला
Ayodhya Case Verdict 2019 आठ हजार से ज्यादा पन्नों में दिए इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ के फैसले में कहा गया था कि मस्जिद का निर्माण इस्लाम के मूल्यों के खिलाफ हुआ था।
मुकेश पांडेय, अयोध्या। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने 30 सितंबर, 2010 को अपने ऐतिहासिक फैसले में अयोध्या के विवादित स्थल को रामजन्मभूमि घोषित किया था। फैसला सुनाने वाली जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एसयू खान व जस्टिस धर्मवीर शर्मा की विशेष पीठ ने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट को आधार माना। अपने फैसले में विवादित 2.77 एकड़ भूमि को तीन बराबर हिस्सों में विभाजित कर दिया। इस वक्त जहां रामलला की मूर्ति स्थापित है वह रामलला विराजमान के हिस्से आई, जबकि राम चबूतरा व सीता रसोई वाला हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को मिला।
इस मुकदमे के एक पक्ष सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड के हाथ तीसरा हिस्सा लगा। अदालत ने भगवान राम के जन्मस्थान होने की धार्मिक मान्यता को निर्णय का अहम बिंदु स्वीकार किया। तीनों जजों ने मुसलमानों की ओर से सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के दावे को समय सीमा से बाहर ठहरा तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया। तीनों जजों ने यह भी माना कि विवादित स्थल के भीतर भगवान राम की मूर्तियां 22-23 दिसंबर, 1949 को रखी गईं। हालांकि, हिंदू- मुस्लिम पक्ष ने फैसले को न्यायिक नहीं, बल्कि सुलह का फॉर्मूला माना।
सहमति के बिंदु
- विवादित परिसर में मूर्तियां 22-23 की रात रखी गईं।’
- हिंदू विवादित स्थल को रामजन्म स्थान मानते रहे हैं।
- 1855 से पहले राम चबूतरा और सीता रसोई अस्तित्व में आ चुके थे।
- मंदिर के अवशेषों पर मस्जिद बनाई गई।
- विवादित स्थल पर 1992 तक इमारत बाबरी मस्जिद थी।
असहमति के बिंदु
- जस्टिस डीबी शर्मा इस एक तिहाई के बंटवारे के फॉर्मूले से सहमत नहीं थे।
- जस्टिस यूएस खान ने मस्जिद बनाने के लिए मंदिर ढहाने के दावे को खारिज किया।
- विवादित परिसर पर्र हिंदुओं-मुसलमानों का बराबर का हक रहा है।
- बाबर के शासनकाल में उसके आदेश पर 1528 में मस्जिद बनवाई गई।
इन अदालतों से होकर गुजरा और आखिर में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा सबसे बड़ा विवाद
1885 मामला पहली बार अदालत में पहुंचा। महंत रघुवरदास ने विवादित इमारत से लगे रामचबूतरा पर राममंदिर के निर्माण की इजाजत के लिए फैजाबाद सिविल जज के यहां अपील दायर की।
1950, 16 जनवरी: गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद के सिविल जज जूनियर डिवीजन के यहां मुकदमा दाखिल कर रामलला की मूर्ति न हटाने और पूजा करने के हिंदुओं के अधिकार को बरकरार रखने की मांग की।
05 दिसंबर: रामचंद्रदास परमहंस ने सिविल जज की अदालत में वाद दाखिल कर रामलला के पूजन एवं दर्शन का अधिकार मांगा।
1959, 17 दिसंबर: निर्मोही अखाड़ा ने विवादित स्थल रिसीवर से अपने हक में हस्तांतरित करने के लिए सिविल जज के यहां मुकदमा दायर किया।
1961, 18 दिसंबर: उप्र सुन्नी वक्फ बोर्ड ने मालिकाना हक के लिए सिविल जज की अदालत में मुकदमा दायर किया।
1989, 01 जुलाई: भगवान रामलला विराजमान नाम से सिविल कोर्ट में पांचवां मुकदमा दाखिल किया गया।
2002 अप्रैल: अयोध्या के विवादित स्थल पर मालिकाना हक को लेकर उच्च न्यायालय के तीन जजों की पीठ ने सुनवाई शुरू की।
2010, 30 सितंबर: इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया।
13 बार बदली विशेष पीठ
अगर 30 सितंबर, 2010 को फैसला न आता तो एक दिन बाद एक अक्टूबर को तीन सदस्यीय बेंच में शामिल जस्टिस धर्मवीर शर्मा रिटायर हो जाते और पूरे मामले की सुनवाई फिर से करनी पड़ती। इससे पूर्व 21 साल की अवधि में कभी जजों के स्थानांतरण तो कभी रिटायर होने के कारण 13 बार हाई कोर्ट की विशेष पीठ बदली जा चुकी थी।
हाई कोर्ट का निर्णय सुनाने वाले तीन जज
न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा
न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाने के बाद सेवानिवृत्त हो गए। कानून के पल्ले से तो वह बंध गए, मगर अविवाहित रहे। अपना खाना वह खुद बनाते और यदाकदा दोस्तों को भी बुलाकर खिलाते। वह 1972 में न्यायिक अधिकारी के पद पर नियुक्त हुए। जुलाई 1989 से 1991 तक फाइनेंशियल कॉरपोरेशन कानपुर नगर के मुख्य न्यायिक अधिकारी रहे। सितंबर 1994 से 1997 तक प्रदेश सरकार में संयुक्त सचिव व संयुक्त विधि परामर्शी के रूप में काम किया। फिर उन्हें 1997 से फरवरी 2002 तक विशेष सचिव अतिरिक्त विधि परामर्शी उत्तर प्रदेश बनाया गया।
इसके बाद 2002 में मई से जुलाई तक प्रदेश के प्रमुख सचिव न्याय विधि परामर्शी के रूप में कार्य किया। अगस्त 2004 से अक्टूबर 2005 तक प्रमुख सचिव न्याय के पद पर कार्यरत रहे। 20 अक्टूबर, 2005 को उन्हें इलाहाबाद हाई कोर्ट में अपर न्यायाधीश बनाया गया, जबकि 17 सितंबर 2007 को स्थायी न्यायमूर्ति बने। राम मंदिर का फैसला सुनाने के अगले दिन एक अक्टूबर, 2010 को सेवानिवृत्त हो गए।
न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल
इलाहाबाद हाई कोर्ट के वरिष्ठ न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर निर्णय सुनाकर ख्याति अर्जित की। मूलरूप से फीरोजाबाद के रहने वाले न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने स्नातक की शिक्षा आगरा विवि तथा मेरठ विवि से विधि में स्नातक किया। पांच अक्टूबर, 1980 को इलाहाबाद हाई कोर्ट में वकालत से कॅरियर की शुरुआत की। वह उप्र पावर कॉरपोरेशन के स्टैंडिंग काउंसिल भी रहे। 19 सितंबर, 2003 को प्रदेश सरकार के अपर महाधिवक्ता नियुक्त किए गए।
अप्रैल 2004 को उनको वरिष्ठ अधिवक्ता नामित किया गया। न्यायमूर्ति अग्रवाल ने पांच अक्टूबर, 2005 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के अपर न्यायाधीश के तौर पर शपथस ली। इसके बाद 10 अगस्त, 2007 को वह हाई कोर्ट के नियमित जज नियुक्त किए गए। न्यायमूर्ति अग्रवाल ने 15 साल के कार्यकाल में 31 अक्टूबर 2019 तक कुल 1,30,418 मुकदमों का निस्तारण किया। वह देश के एकमात्र न्यायाधीश हैं, जिन्होंने इतने मुकदमों के निस्तारण का कीर्तिमान बनाया है।
न्यायमूर्ति एसयू खान
न्यायमूर्ति एसयू खान बेंच और बार में जितना अपने विनोदी स्वभाव और मुकदमों की सुनवाई में ऐतिहासिक दृष्टिकोण के लिए जाने जाते रहे, उतना ही मध्यस्थता के जरिये विवादों के हल के पक्षधर के रूप में भी। उनका जन्म 31 जनवरी, 1952 को प्रयागराज में हुआ। शुरुआती पढ़ाई प्रयागराज में करने के बाद 1971 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से बीएससी ऑनर्स की डिग्री हासिल की। यहीं से 1975 में एलएलबी की पढ़ाई पूरी की।
इसके बाद 1975 में यूपी बार काउंसिल में पंजीकरण कराकर जिला न्यायालय अलीगढ़ में वकालत करने लगे। दो साल तक अलीगढ़ में वकालत करने के बाद 1977 में प्रयागराज आ गए। जल्द ही इन्हें सिविल सेवा व राजस्व मामलों से जुड़े केस में ख्याति मिली। 21 दिसंबर, 2002 को उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में न्यायमूर्ति के पद पर शपथ ली। न्यायमूर्ति के रूप में उन्होंने हजारों मामलों की सुनवाई करते हुए त्वरित फैसला दिया। न्यायमूर्ति खान 30 जनवरी, 2014 को सेवानिवृत्ति हो गए।
यह भी पढ़ें: Ayodhya Case Verdict 2019 Photos: सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले अयोध्या समेत देशभर में सुरक्षा सख्त
यह भी पढ़ें: Ayodhya Case Verdict 2019: हिंदू और मुस्लिम पक्ष की दलीलों के मुख्य बिंदुओं पर एक नजर...