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धराशाई होती न्यायप्रदान प्रणाली का नमूना है अयोध्या मामला: मुकुल रोहतगी

पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने न्याय मिलने में होने वाली देरी पर निशाना साधते हुए कहा कि एक-एक मुकदमे में दस-बीस-पचास साल लग जाते हैं।

By Ravindra Pratap SingEdited By: Published: Sat, 08 Dec 2018 10:02 PM (IST)Updated: Sat, 08 Dec 2018 10:02 PM (IST)
धराशाई होती न्यायप्रदान प्रणाली का नमूना है अयोध्या मामला: मुकुल रोहतगी
धराशाई होती न्यायप्रदान प्रणाली का नमूना है अयोध्या मामला: मुकुल रोहतगी

जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। न्याय में देरी वर्तमान न्यायप्रदान प्रणाली का सबसे बड़ा दोष है। न्याय में देरी और मुकदमों के ढेर की समस्या के लिए जजों की भी जवाबदेही तय होनी चाहिए। वर्षो से लटका अयोध्या का मामला धराशाई होती न्यायप्रदान प्रणाली का ही नमूना है। जघन्य मामलों में ट्रायल के जल्द निपटारे की व्यवस्था होनी चाहिए। दैनिक जागरण की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर आयोजित जागरण फोरम में कानूनविदों और न्याय प्रणाली से जुड़े लोगों ने यह राय दी।

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पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने न्याय मिलने में होने वाली देरी पर निशाना साधते हुए कहा कि एक-एक मुकदमे में दस-बीस-पचास साल लग जाते हैं। एक जज दो केस निपटाता है, तो दूसरा उतने ही वक्त में 50 केस निपटाता है। दो केस निपटाने वाला कहता है कि उसने ज्यादा गहराई से केस सुना और निपटाया। इस सबकी कोई तो जवाबदेही होनी चाहिए। कार्यपालिका की जवाबदेही संसद के प्रति है और संसद की जवाबदेही जनता के प्रति है। जब तक इन मुद्दों का हल नहीं निकाला जाएगा, समस्या बनी रहेगी चाहे तीन-चार गुना जज क्यों न नियुक्त हो जाएं।

न्याय प्रदान प्रणाली धराशाई होने के कगार पर है और अयोध्या इसका जीता जागता उदाहरण है। इस समस्या का निवारण करने के लिए रफ एंड रेडी सिस्टम होना चाहिए। इसके लिए ऐसी ही व्यवस्था होनी चाहिए जैसे ट्रेन दुर्घटना के मामले में सरकार पीड़त को तत्काल मुआवजा देती है। सुप्रीम कोर्ट की सेवानिवृत न्यायाधीश ज्ञानसुधा मिश्रा ने दिल्ली सामूहिक दुष्कर्म कांड का जिक्र करते हुए कहा कि जघन्य अपराधों में जल्द न्याय की व्यवस्था होनी चाहिए। आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है, अन्यथा हम आंख पर पट्टी बांधकर हल ढूंढते रह जाएंगे।

समलैंगिकता मानसिक विकार है, इसका इलाज हो

हाल में समलैंगिकता पर आए सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले पर भी फोरम में चर्चा हुई। समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर रखने के फैसले पर कानूनविदों में एक राय दिखी लेकिन समलैंगिकता के विषय पर सब एकमत नहीं थे। जस्टिस ज्ञानसुधा ने कहा, 'आप जो करते हैं वो आपका निजी मामला है। इसकी समाज से मान्यता मांगना उचित है या अनुचित, इस पर हर व्यक्ति की अलग राय हो सकती है। मेरी समझ से समलैंगिकता मानसिक विकार है।

अगर ये विकार है तो उसकी काउंसलिंग हो सकती है। मेरा मानना है कि फैसला तो ठीक है लेकिन ऐसे लोगों को चिकित्सा की आवश्यकता है।' समलैंगिकता को लेकर समाज की सोच पर पूर्व अटार्नी जनरल रोहतगी का कहना है कि भारतीय समाज 20 साल में धीरे-धीरे तैयार हो गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसी बदलती सोच पर फैसला दिया था। समाज को फैसले के हिसाब से नहीं चलना है, बल्कि फैसला समाज के बदलाव को देखते हुए आया। फैसला देने वाली पीठ में शामिल रहे पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने व्यक्तिगत आजादी, व्यक्तिगत पसंद को संवैधानिक अधिकार के तौर मान्यता देने वाले इस फैसले के लिए न्यायपालिका की पीठ थपथपाई।

पीआइएल का दुरुपयोग रुकना चाहिए

जनहित याचिकाओं के बढ़ते दुरुपयोग पर कानूनविद एक नजर आए। रोहतगी ने कहा कि आज के दौर में जनहित याचिका निजीहित याचिका बन चुकी है। इनके चलते कोर्ट के समय की बर्बादी होती है। बेवजह की जनहित याचिकाओं पर जुर्माना लगना चाहिए ताकि लोगों में इसे दाखिल करने को लेकर भय पैदा हो।


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