एक समय राजनीति में विद्धान, विचारक और चिंतकों का था दबदबा, अब बाहुबलि व अपराधी हो रहे हावी
देश के राजनीतिक दलों के अंदर पारदर्शिता आंतरिक लोकतंत्र और स्वच्छ छवि आधारित नेतृत्व विकसित करने की जरूरत है।
नई दिल्ली [प्रो गुरु प्रकाश]। स्वतंत्रता आंदोलन के समय की बात है। जवाहरलाल नेहरू ने एक सभा के दौरान कहा कि लोकतांत्रिक प्रणाली शासन की दूसरी सबसे बेहतर व्यवस्था है। इस पर वहां मौजूद लोगों ने उनसे पूछा कि सबसे बेहतर व्यवस्था क्या है फिर। इस पर नेहरू का जवाब था कि उसका पता अभी तक नहीं लगाया गया है लेकिन भविष्य में लोकतांत्रिक प्रणाली से भी बेहतर शासन प्रणाली हो सकती है इसकी संभावना सदैव बरकरार है।
एक समय था, जब राजनीति में विद्वान, विचारक और चिंतकों का दबदबा हुआ करता था। इस फेहरिस्त में वो नेता थे जो जनप्रिय होने के साथ समय-समय पर अपने बुद्धिजीवी होने का भी परिचय दिया करते थे। आंबेडकर, लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देशमुख के विचारों से हमारा पूरा समाज सिर्फ परिचित ही नहीं बल्कि प्रभावित भी है।
वर्तमान में ऐसे नेताओं को शायद जीपीएस नेविगेशन प्रणाली भी नहीं ढूंढ़ पाए। देश के सर्वोच्च अदालत ने गुरुवार को राजनीति में अपराधियों की बढ़ती संख्या पर चिंता जताई और अनुच्छेद 129 और 142 का उपयोग कर राजनीतिक पार्टियों को दिशा निर्देश जारी किया है।
राजनीति में धनबल, बाहुबल, परिवार, कारोबार और शृंगार हावी हो गया है। राजनीति कभी भी इस देश में अर्थार्जन की स्नोत नहीं रही। राजनीति में सादगी और वैचारिक पृष्ठभूमि से मजबूत लोगों की सख्त आवश्यकता महसूस हो रही है। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स की मानें तो पिछले डेढ़ दशक में संसद में दागियों की संख्या में पुरजोर वृद्धि हुई है।
2004 में जो आंकड़े 24 प्रतिशत के थे वह 2019 में बढ़कर 43 प्रतिशत के आसपास पहुंच चुके हैं। प्रश्न ये भी खड़ा होता है कि इस दयनीय स्थिति के लिए सिर्फ राजनीतिक दल दोषी है या फिर हमें समाज के रूप में भी एक सामूहिक आत्ममंथन की दरकार है। मैं आशा करता हूं कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से राजनीतिक दल कुछ सीख लेने का प्रयास करेंगे।
आपस में आत्ममंथन करके कुछ मापदंड तय करेंगे। राजनीतिक दलों को अपने सामूहिक काल्पनिक क्षमता और वैश्विक स्तर पर सर्वश्रेष्ठ प्रक्रियाओं का अध्ययन कर के एक समावेशी राय बनानी होगी। क्या राजनीतिक दलों के लिए एक नियामक संस्था बनाने की आवश्यकता है? इस प्रश्न का उत्तर इन दलों के नेतृत्व और कार्यकर्ताओं को साथ मिलकर लेना चाहिए। क्या इन दलों के सांगठनिक व्यवस्था में पर्याप्त रूप में सामाजिक, लैंगिक, क्षेत्रीय और धार्मिक विविधता है?
भारतीय जनता पार्टी और वामदलों को छोड़ दें तो बाकी दल विचार आधारित ना होकर जाति आधारित या परिवार आधारित हैं। वंशवाद को चुनौती देना भी आज की जरूरत है। तमाम राजनीतिक दलों का उदाहरण हमारे सामने है। बात जमात से शुरू हुई, जाति पर आई और अंततोगत्वा परिवार पर रुक गई। कई दलों को चलाने वाले परिवार के अधिकतर सदस्य संसद पहुंचे हैं। प्रमुख पदों पर भी इनके परिवार की ही मौजूदगी होती है। सदन और संगठन में एक ही परिवार की भूमिका चिंता का विषय है। इस निर्णय का हम सभ्य समाज को स्वागत करना चाहिए।
ये सुनिश्चित भी करना चाहिए कि पार्टियों के अंदर पारदर्शिता, आंतरिक लोकतंत्र और स्वच्छ छवि आधारित नेतृत्व कैसे विकसित हो। एक सूचकांक भी डेवलप करना चाहिए जो विभिन्न मापदंडों के आधार पर राजनीतिक दलों का निष्पक्ष मूल्यांकन करे। इसका स्वरूप सामाजिक हो या सरकारी, इसकी चर्चा की जा सकती है। इसी आशा और सकारात्मकता के साथ भविष्य की स्वच्छ राजनीति की तरफ एक मजबूत कदम हम बढ़ा सकते है। सुप्रीम कोर्ट बधाई का पात्र है।
(विजिटिंग फेलो, इंडिया फाउंडेशन)