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खतरे में गंगा के जलीय जीव-जंतु

गंगा नदी में कई दुर्लभ प्रजातियां मिलती हैं जैसे- डॉल्फिन (प्लाटोनिस्टा गंगेटिका), गंगा शार्क (ग्लेफिस गंगेटिकस), कछुए (अस्पिडरेट्स गंगेटिकस) और घड़ियाल (गविआलिस गंगेटिकस)। इसके अलावा गंगा के किनारे तमाम तरह के पक्षी और दूसरे जीवजंतु भी रहते हैं। गंगा में मछलियों की 265 प्रजातियां मिलती हैं।

By Edited By: Published: Thu, 03 Jul 2014 07:03 PM (IST)Updated: Thu, 03 Jul 2014 07:03 PM (IST)
खतरे में गंगा के जलीय जीव-जंतु

गंगा नदी भारतीय सभ्यता का पालना है। गंगा नदी अपने आसपास के क्षेत्र में मानव समाज और अन्य जीवों के साथ-साथ ही अपनी धारा में हजारों प्रजातियों के जलीय जीव-जंतुओं का भी पालन-पोषण करती रही है।

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गंगा नदी में कई दुर्लभ प्रजातियां मिलती हैं जैसे- डॉल्फिन (प्लाटोनिस्टा गंगेटिका), गंगा शार्क (ग्लेफिस गंगेटिकस), कछुए (अस्पिडरेट्स गंगेटिकस) और घड़ियाल (गविआलिस गंगेटिकस)। इसके अलावा गंगा के किनारे तमाम तरह के पक्षी और दूसरे जीवजंतु भी रहते हैं। गंगा में मछलियों की 265 प्रजातियां मिलती हैं। इसके अलावा नदी में कई अतिसूक्ष्म ऐसे जीव भी होते हैं जो गंगाजल की शुद्धता को कायम रखते हैं।

गंगा के उपजाऊ मैदान में अच्छी खेती होती है जिसके चलते ऐतिहासिक काल से ही गंगा नदी के इलाके में बस्तियों का विकास हुआ है। आज दस लाख की आबादी से अधिक के कई शहर गंगा के किनारे बसे हुए हैं। लेकिन विकास की इस प्रक्रिया में गंगा को काफी नुकसान हुआ है, खासकर वनोन्मूलन, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, रासायनिक और जैविक प्रदूषण जैसे कारकों के चलते गंगा की धारा में पलने वाले जीव-जंतुओं को खतरा पैदा हो गया है।

गंगा में डॉल्फिन, घड़ियाल, कछुओं और पक्षियों को सबसे बड़ा खतरा अवैध शिकार से है। डॉल्फिन हमारी राष्ट्रीय जलीय जीव है। लेकिन शिकारी तेल निकालने के लिए इसकी हत्या कर देते हैं। डॉल्फिन के इस तेल का इस्तेमाल शिकारी आर्थिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण मछली की दो प्रजातियों- घेरुआ ( क्लूपिसोमा घेरुआ) और बचावा ( यूट्रोपिचथ्स वचा) को पकड़ने के लिए करते हैं। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर की मदद से हमने डॉल्फिन तेल का विकल्प खोजा जोकि गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों में मछली पकड़ने में सहायक है। यह खोज लंदन से प्रकाशित होने वाले एक जर्नल बॉयोलॉजिकल कंजरवेशन में छपी। इसके बाद बिहार और असम में मछुआरों को इस वैकल्पिक उपाय के बारे में हमने समझाने को कई कार्यक्रम किए ताकि वे डॉल्फिन को मारना छोड़ दें।

घड़ियाल को उनकी खाल से बैग बनाने के लिए मार दिया जाता है। इसी तरह नरम त्वचा वाले कछुओं को समाज के संभ्रान्त वर्ग के लोगों के भोजन के लिए मारा जाता है। कछुए का मांस और अन्य अंगों की विदेशों में भी मांग है। इस तरह के कछुओं का शिकार गंगा और उसकी सहायक नदियों से बिहार, विशेषकर पटना के आसपास होता है। ये छोटे कछुए कचरा और जैविक अवशेष को खाते हैं, इस तरह ये नदी को स्वच्छ रखने में मदद करते हैं। गंगा नदी से प्रवासी पक्षियों का शिकार भी आम बात है। उत्तर प्रदेश में हमने कई स्थानों पर देखा कि लोग पक्षियों को मारने के लिए जहर का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसके अलावा नदी में चलने वाली बड़ी नौकाएं भी जलीय जीव-जंतुओं को नुकसान पहुंचाती हैं। अक्सर इन नौकाओं से डॉल्फिन टकरा जाती हैं। दरअसल डॉल्फिन को दिखाई नहीं देता, वे आवाज के सहारे अपनी गतिविधियां पूरी करती हैं। सितंबर 2005 में हमें पटना में गंगा से एक डॉल्फिन के अवशेष मिले जिससे पता चलता है कि गर्भावस्था में ही एक डॉल्फिन की इसी तरह की दुर्घटना में मौत हुई। इसके अलावा बांध और बैराज बनने से भी गंगा में जलीय जीव जंतुओं को खतरा पैदा हुआ है।

गंगा में रहने वाले जलचरों को सबसे ज्यादा नुकसान रासायनिक प्रदूषण से हुआ है। गंगा धारा में हर साल करीब 15 लाख मीट्रिक टन रासायनिक खाद और तकनीकी ग्रेड के कीटनाशक हर साल गंगा में प्रवाहित होते हैं। गंगा के अवसाद में डीडीटी और पारा जैसी भारी धातुएं भी देखी गयी हैं। ये रसायन इतने खतरनाक हैं कि इनसे कैंसर होने का खतरा होता है।

इसके अलावा नदी के आसपास खनन तथा अन्य गतिविधियों के चलते भी जलीय जीव जंतुओं को नुकसान हो रहा है। इसलिए अब वक्त आ गया है कि हमें गंगा को निर्मल बनाने का प्रयास करना चाहिए ताकि उसकी गोद में पलने वाले जीव जंतुओं को बचाया जा सके।

(प्रो आरके सिन्हा-विशेषज्ञ सदस्य, राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण)

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