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अनुराग को याद आए वो दिन, राजपूतों के साथ बिताए पलों को किया याद

अनुराग कश्यप कहा कि मुझे गुस्सा इस बात पर आता था कि कोई मुझे अपनी गलतियां क्यों करने देता। लोग मुझे क्यों बताते हैं कि मेरे लिए सही क्या है।

By Manish NegiEdited By: Published: Fri, 26 Jan 2018 09:13 PM (IST)Updated: Fri, 26 Jan 2018 09:13 PM (IST)
अनुराग को याद आए वो दिन, राजपूतों के साथ बिताए पलों को किया याद
अनुराग को याद आए वो दिन, राजपूतों के साथ बिताए पलों को किया याद

जयपुर, जेएनएन। फिल्मकार अनुराग कश्यप मानते हैं कि फिल्मों पर हमने बहुत भार डाल दिया है। जो हम अपने समाज में देखने को तैयार हैं वो फिल्मों में देखने को तैयार नहीं हैं। हम यह मानते हैं कि एक फिल्म हमें खत्म कर देगी। गुरुवार से जयपुर में शुरू हुए लिटरेचर फेस्टिवल के दूसरे दिन वह अपनी फिल्मों और जीवन पर आयोजित सत्र 'द हिटमैन' में वाणी त्रिपाठी से बात कर हे थे।

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उन्होंने कहा कि मुझे गुस्सा इस बात पर आता था कि कोई मुझे अपनी गलतियां क्यों करने देता। लोग मुझे क्यों बताते हैं कि मेरे लिए सही क्या है। वाराणसी से मुम्बई आया। हिंदी अच्छी थी, इसलिए नाटकों में काम मिलने लगा। फिर कुछ बेहद खराब फिल्मों में काम किया जो गूगल पर भी नहीं मिलेगी। इसके बाद मैंने कैमरे के पीछे जाने का फैसला किया। अपनी फिल्म गुलाल की चर्चा करते हुए अनुराग ने कहा कि इसे बनाने में आठ साल लगे। राजस्थान में मैं कई लोगों से मिला। पता लगा कि यहां राजपूत समय से बहुत पीछे हैं। हर किसी की अपनी कहानी है। उनमें प्रिवी पर्स छिनने सहित कई बातों को लेकर गुस्सा है, लेकिन अपने आलस के कारण वो कुछ कर नही पा रहे हैं।

उन्होंने बताया कि वह खुद भी राजपूत हैं लेकिन उनके नाम का सिंह आपातकाल के समय पिता ने हटा दिया था क्योंकि उस समय राजपूतों को लेकर अलग ही तरह का सेंटीमेंट था। गैंग्स ऑफ वासेपुर के बारे में अनुराग ने कहा कि यह सात घंटे की फिल्म बन गई थी और किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि इसका क्या करें। कान फिल्म महोत्सव में इसे पूरा दिखाया गया और मैं बहुत नर्वस था लेकिन वहीं से सब कुछ बदल गया। सेंसर बोर्ड से अपने विवादों के बारे में कहा कि मेरा पहला विवाद सत्या में गालियों को लेकर हुआ था। मैं पूरी डिक्शनरी लेकर गया था, सेंसर बोर्ड में उन गालियों का मतलब समझाने के लिए।

निर्णय पसंद नहीं तो सरकार बदलो, हिंसा क्यों : विशाल भारद्वाज

एक अन्य सत्र में फिल्म पद्मावत को लेकर उठे विवाद पर फिल्मकार विशाल भारद्वाज ने कहा कि जनता को सरकार के निर्णय पसंद नहीं हैं तो सरकार बदलें, सड़कों पर हिंसा क्यों की जा रही है। इसका अधिकार किसी को नहीं है। देश सिस्टम से चलेगा। अगर सिस्टम ही नहीं होगा तो फिर देश कैसे चलेगा। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में मीडिया से बातचीत करते हुए विशाल ने कहा कि भारतीय फिल्मों को निशाना बनाया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी अगर लोग हिंसात्मक प्रदर्शन कर रहें हैं तो ये सरकारों की कमजोरी है। सरकारों को सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बाद जिम्मेदारी से काम करना चाहिए था।

मैं मुगले आजम में दिलीप कुमार का रोल करना चाहता हूं : सिद्धीकी

फिल्म अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने कहा कि मेरी इच्छा है कि मुगले आजम में दिलीप कुमार वाला किरदार करने को मिल जाए। मेरे व्यक्तित्व को बहुत कम करके आंका जाता है। माना जाता है कि मैं गैंगस्टर के रोल ही कर सकता हूं, लेकिन मैं दूसरे तरह के रोल भी कर सकता हूं। लिटरेचर फेस्टिवल में लेखक सआदत हसन मंटों पर आ रही फिल्म पर आधारित एक सत्र में नवाज ने कहा कि मंटो बहुत सच्चे इंसान थे, लेकिन मैं बहुत झूठ बोलता हूं, इसलिए फिल्म करने से पहले मुझे तीन महीने तक मंटो को समझना पड़ा और जब मैं मानसिक तौर पर तैयार हो गया तब शूटिंग शुरू की। अब शूटिंग खत्म होने के बाद मुझे मंटों को अपने में से निकालने में काफी मेहनत करनी पड़ रही है।

सेंसर बोर्ड हमारी समझ और आजादी पर सवाल है : नंदिता दास

सआदत हसन मंटों फिल्म पर आधारित सत्र में ही फिल्म निर्देशक नंदिता दास ने कहा कि सेंसर बोर्ड हमारी समझ और आजादी पर एक सवल है। आखिर चंद लोग कैसे यह तय कर सकते हैं कि पूरा देश क्या देखना चाहता है। मेरी नजर में सेंसर जैसी कोई चीज नहीं होनी चाहिए। कला तभी आगे बढे़गी, जब अभिव्यक्ति की आजादी मिलेगी। अब सेंसर बोर्ड ही नहीं बल्कि कई तरह के और संगठन भी हैं जो यह बताने में लगे हैं कि हमें क्या देखना चाहिए और क्या नहीं। उन्होंने कहा कि आज के समय में पीरियड फिल्म नहीं बना सकती। यह बहुत मुश्किल काम है। मंटो आज भी मेरे अंदर बैठे हुए हैं और मैं उनसे बाहर निकल नहीं पा रही हूं।

मैं अपने कॉलेज में अकेली लड़की थी, टॉप करने मिली स्वीकार्यता

प्रसिद्ध लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता सुधा मूर्ति अपने कॉलेज में अकेली लड़की थी और लड़के उन्हें एक अजूबे के रूप में देखते थे क्योंकि उस समय इंजीनियरिंग को लड़कों का क्षेत्र माना जाता था। लिटरेचर फेस्टिवल में अपनी किताबों, जिंदगी और काम की चर्चा करते हुए सुधा मूर्ति ने यह बात बताई। कहा कि लड़के मुझसे बात नहीं करते थे। कुछ मुझ पर कागज फेंका करते थे। लेकिन मैं रियेक्ट नहीं करती थी। जब मैंने टॉप किया तो मुझे स्वीकार किया गया। आप किसी की सहायता करना चाहते है तो बदले में किसी रिवॉर्ड की उम्मीद मत कीजिये।


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