चीन से कारोबारी रिश्ते खत्म करने से पहले करने होेंगे कुछ जरूरी उपाय, तभी दे सेकेंगे ड्रेगन को मात
वर्तमान में चीन भारतीयों के जीवन में काफी अंदर तक घुसा हुआ है। ऐसे में सिर्फ जनभावना को लेकर फैसला करना सही नहीं होगा।
प्रो सोमेश कुमार माथुर। चीन के खिलाफ पूरी दुनिया में माहौल बना हुआ है। सीमा पर उसने जो कुकृत्य दिखाया है, उससे हमारे यहां भी सबके मन गुस्सा है, उबाल है। बहुसंख्य का मत है कि चीन से तत्काल कारोबारी नाते-रिश्ते खत्म कर दिए जाएं। सरकार ने चीन से आयात पर शुल्क भी बढ़ा दिया है पर, मेरी राय में यह कतई उचित नहीं। यह तो उल्टा हमको ही भारी पड़ने वाला है क्योंकि चीन से मुकाबला इतना आसान नहीं है। आज चीन हमारे यहां किचन से लेकर बिस्तर तक और फोन से लेकर रेल इंजन तक किसी न किसी रूप में घुसा हुआ है।
लिहाजा, भावनाओं में बहने के पहले हमें चीन की स्थिति समझनी चाहिए। हमारे कुल आयात का 13 फीसद हिस्सा चीन से ही आता है, जबकि हम चीन को निर्यात करते हैं महज पांच फीसद। चीन के दुनियाभर से कुल आयात में भारत का हिस्सा सिर्फ एक फीसद है यानी, वह 99 फीसद चीजें दूसरे देशों से लेता है। चीन से आयात अधिक है, इसलिए हमारी उस पर निर्भरता भी अधिक है। हम चीन को 1600 करोड़ अमेरिकी डॉलर का निर्यात
करते हैं, जबकि आयात करते हैं 6000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का।
भारत में ऑटोमोबाइल, फार्मेसी, फर्टिलाइजर, आइटी व पावर सेक्टर का उत्पादन चीन के कच्चे माल पर टिका है। हमारे आइटी और टेलीकम्युनिकेशन सर्विसेज में भी चीन की बड़ी भागीदारी है। अगर हम इन सेवाओं को अचानक बंद करते हैं तो हम ही अधिक प्रभावित होंगे। चीन हमसे माल नहीं लेगा तो उसे वियतनाम, साउथ कोरिया और अमेरिका जैसे दूसरे देश दे देंगे।
चीन को सबक सिखाने के लिए जरूरी है कि चौथी औद्योगिक क्रांति पर मजबूती से आगे बढ़ा जाए। इंटरनेट ऑफ थिंग्स, रोबोटिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, मशीन लर्निंग के क्षेत्र में शोध बढ़ाएं। इंटरनेट ऑफ थिंग्स का प्रयोग करके टीकाकरण में शोध को बढ़ावा दें। चीन को पछाड़ने के लिए टेलीकम्युनिकेशन, बंदरगाह व सड़कों के ढांचे दुरुस्त करने की जरूरत है। ग्लोबल वैल्यू चेन और ग्रामीण क्षेत्रों में उद्यमिता के अवसरों को बढ़ाकर ही समृद्धि लाई जा सकती है। चीन ने यही मॉडल वर्ष 1978 में अपनाया और ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादकता बढ़ानी शुरू कर दी।
चीन ने 1980-90 के दौरान जीडीपी पर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का शेयर हमसे दोगुना कर लिया। हमारा शेयर बढ़ने के बजाय घटा। 1990 के बाद विश्व व्यापार संगठन का हिस्सा बना। थ्री-ई यानी इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग और इलेक्ट्रिकल्स के बूते ग्रामीण अर्थव्यवस्था खड़ी की। नतीजा यह कि वैश्विक बाजार में 1-2 फीसद की कारोबारी हिस्सेदारी रखकर हमारे साथ खड़ा चीन 13 फीसद शेयर पर पहुंच गया। हम 2-2.5 फीसद पर ही रह गए। हमारी निर्भरता बढ़ती गई और चीन आत्मनिर्भर बनता गया। अब भारत को भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत करनी होगी। कोरोना से जितना शहरी क्षेत्र प्रभावित है, उतना ग्रामीण नहीं। हम यहां हैंडलूम, डेयरी, मोबाइल रिपेयरिंग, रूरल बीपीओ जैसे उद्योगों को बढ़ावा दें।
अमेरिका, आस्ट्रेलिया, रूस, जापान, ब्रिटेन जैसे देशों के साथ मिलकर ग्लोबल एलायंस बनाएं। चीन से तौबा करके डी- ग्लोब्लाइजेशन की ओर जाना कतई बुद्धिमानी नहीं होगी। हमें हर हाल में डब्ल्यूटीओ और उससे जुड़ी संस्थाओं की तरफ आना होगा। इससे डरने की जरूरत नहीं कि टैरिफ घटा देंगे तो नुकसान होगा। मुक्त व्यापार शुरू करते वक्त भी बाहरी कंपनियों का डर था, लेकिन इसका हमारी अर्थव्यवस्था पर कोई बुरा असर नहीं पड़ा। लिहाजा, नए शुल्क थोप देने का शार्ट टर्म प्लान तो हो सकता है, लेकिन लंबे समय के लिए यह रणनीति कतई ठीक नहीं।
आज भी हमारी प्रतिव्यक्ति सालाना आय 2500 अमेरिकी डॉलर ही है, जबकि चीन में यही दर 10 हजार डॉलर है। चीन का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 132 अरब अमेरिकी डॉलर है, जबकि हमारा महज 28 अरब डॉलर ही है। चीन को बिजली की बहुत जरूरत अधिक है, इसलिए हमें सरसों, जैट्रोफा व मक्के की खेती को बढ़ावा देने की जरूरत है, जो कि ईंधन के बड़े स्नोत हैं। इससे हम ऊर्जा के क्षेत्र में सशक्त हो जाएंगे।
चीन से फ्री ट्रेड का घाटा रोकने के लिए भारत पहले ही रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनोमिक पार्टनरशिप रद कर चुका है। हमें चीनी उत्पादों पर अतिरिक्त शुल्क लगाने के बजाय संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व व्यापार संगठन व विश्व स्वास्थ्य संगठन को मिलाकर एक नया वल्र्ड ऑर्डर बनाने की जरूरत है, जिससे ट्रेड बढ़े। मौका अच्छा है कि चीन की स्थिति और साख ठीक नहीं है। अगर हम भावनात्मक रूप से नहीं, बल्कि धैर्यपूर्वक आगे बढ़ें तो निश्चय ही चीन को नाकों चने चबवा सकते हैं।
(आइआइटी, कानपुर ट्रेड इकोनॉमिस्ट )