विदेशी जमीन पर पले-बढ़े नायपॉल ने भारत पर जो वर्षों पहले लिखा वहीं आज भी जिंदा
मूल रूप से त्रिनिदाद एंड टोबैगो में जन्मे वीएस नायपॉल के पूर्वज गोरखपुर से गिरमिटिया मजदूर के रूप में त्रिनिदाद पहुंचे थे।
मुकुल श्रीवास्तव। हिंदी में पढ़ने-लिखने के कारण नोबेल पुरस्कार विजेता सर वीएस नायपॉल से मेरा परिचय जरा देरी से हुआ। नायपॉल की लेखनी से मेरा पहला वास्ता उस समय पड़ा जब मैं उनकी भारत यात्रा का आधार बना कर लिखी गई पुस्तक- एन एरिया ऑफ डार्कनेस का हिंदी अनुवाद कर रहा था। तब मैंने उनको पहली बार पढ़ा था। जैसे-जैसे किताब का काम आगे बढ़ता गया, मैं उनकी लेखन प्रतिभा का कायल होता गया। फिर मैंने खोज-खोज कर उनकी किताबें पढ़नी शुरू की। वह चाहे ‘वुंडेड सिविलाइजेशन’, जो उनकी भारत को आधार बना कर लिखी गई एक और किताब थी या ‘हाउस ऑफ मिस्टर बिस्वास’, जिसने उन्हें ख्याति दिलाई। यह किताब उनके पिता सीपेरसाद नायपॉल के जीवन पर आधारित है जो ‘त्रिनिदाद गार्जियन’ में रिपोर्टर के तौर पर भी काम करते थे।
हालांकि ये सभी किताबें हिंदी अनुवाद थीं, पर एक पाठक के तौर पर मुझे जो कुछ अपने लेखक से चाहिए था वह सब उनकी किताबों में मिल रहा था। इंटरनेट के आने से मेरे जैसे हिंदी के पाठकों को दुनिया के श्रेष्ठ साहित्य को जानने समझने का मौका मिला, क्योंकि अब हिंदी में अनुवाद का बाजार विस्तार ले रहा है। मूल रूप से त्रिनिदाद एंड टोबैगो में जन्मे वीएस नायपॉल के पूर्वज गोरखपुर से गिरमिटिया मजदूर के रूप में त्रिनिदाद पहुंचे थे। भारतीय परिस्थितियों से अलग जहां लेखकों को जीविकोपार्जन के लिए कोई अलग व्यवसाय या काम करना पड़ता है, वीएस नायपॉल ने जीवनभर लेखन ही किया और इसे ही अपनी जीविका का साधन बनाया।
एन एरिया ऑफ डार्कनेस का हिंदी अनुवाद इसके प्रकाशन से ठीक पचास वर्ष बाद हुआ। 1964 में जब वह भारत आये थे तब से लेकर अब तक उनकी लिखी बातें आज भी हमें सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि किसी लेखक को महान उसकी दृष्टि ही बनाती है। उनका भारत को देखने का नजरिया एक आम भारतीय जैसा नहीं था। वह भले ही भारतीय मूल के थे पर भारत को देखने के लिए जिस तटस्थता की उम्मीद की जानी चाहिए उन्होंने वह तटस्थता काफी निर्मम तरीके से दिखाई। जैसे वह लिखते हैं- भारतीय हर जगह मल त्याग करते हैं। ज्यादातर वे रेलवे की पटरियों को इस कार्य के लिए इस्तेमाल करते हैं। हालांकि वे समुद्र-तटों, पहाड़ों, नदी के किनारों और सड़कों को भी इस कार्य के लिए इस्तेमाल करते हैं और कभी भी आड़ न होने की परवाह नहीं करते हैं।
नायपॉल साहब कई बरस पहले जो लिख चुके हैं उस वाकये से हम सब आज भी रोज दो-चार होते हैं लेकिन यह हमारे लिए कोई समस्या की बात नहीं है, क्योंकि हमारा समाजीकरण इस तरह के दृश्यों को देखते हुए ही होता है और इसमें हमें कुछ गलत नहीं दिखता। तभी तो आजादी के सत्तर साल बाद भी सरकार को स्वच्छ भारत अभियान चलाना पड़ रहा है। शायद इसी कारण जहां नायपॉल के उपन्यासों में भारत को काफी महत्व मिला लेकिन भारत को लेकर उनका नजरिया काफी विवादित भी माना जाता रहा। वीएस नायपॉल अपनी इस किताब के सिलसिले में करीब एक साल तक भारत में रहे और लगभग पूरा भारत जिसमें कश्मीर से लेकर दक्षिण भारत के कई राज्य शामिल थे, वहां का हाल उन्होंने अपनी इस किताब में लिखा। मुंबई में उतरते ही जब उनकी विदेशी शराब कस्टम द्वारा जब्त कर ली गई और उसे हासिल करने के लिए उन्हें किस तरह बाबुओं के चक्कर लगाने पड़े, उनकी काम को टालने की आदत जैसी कई घटनाओं को उन्होंने अपनी किताब में समेटा।
उन दिनों के कश्मीर के हालात का भी चित्रण उन्होंने अपनी किताब में बखूबी किया है। बिटवीन फादर एंड सन- वीएस नायपॉल और उनके पिता सीपेरसाद नायपॉल के बीच हुए पत्रचार का संकलन है, जिसमें हमें एक चिंतित पिता की झलक मिलती है जो खुद भी एक अच्छा लेखक था पर परिस्थितियों के कारण अपने लेखन कार्य को जारी न रख पाया। वीएस नायपॉल के पिता सीपेरसाद नायपॉल का निधन उनकी सफलता को देखने से पहले ही हो गया था। अपने पिता के साथ उनके संबंध अपने परिवार में सबसे मधुर थे। उनके पिता उन्हें लगातार घर की चिंताओं से मुक्त होकर अपनी पढ़ाई और लेखन कार्य में लगे रहने की सलाह दिया करते थे। इस किताब में सहेजे गए सारे पत्र अपने वक्त के महत्वपूर्ण दस्तावेज भी हैं पर एक पारिवारिक इंसान होने के नाते मैं नायपॉल के अपने पिता के अंतिम संस्कार में न पहुंचने के निर्णय से सहमत नहीं हो पाता हूं। वे अपनी पढ़ाई के सिलसिले में एक बार जो लंदन गए फिर वे घर न लौटे।
बियोंड बिलीफ भी उनकी एक और प्रसिद्ध किताब रही है जिसमें उन्होंने धर्मांतरित मुसलमानों के हालात का जायजा लिया और इसके लिए उन्होंने दुनिया के कई इस्लामिक देशों का दौरा किया। एक भारतीय के रूप में सर वीएस नायपॉल ने हमें अपने ऊपर गर्व करने का मौका दिया पर उनकी भारत पर लिखी गई किताबों में एक गुस्सा भी दिखता है कि यह देश ऐसा क्यों है? अपनी जड़ों की तलाश में वह अपनी पहली भारत यात्रा में पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित अपने पूर्वजों के गांव भी गए, जिसे वे दुबे का गांव कह कर संबोधित करते हैं। इसका बड़ा रोमांचक वर्णन उन्होंने अपनी किताब- एन एरिया ऑफ डार्कनेस में किया है। वर्ष 1964 से भारत प्रेम का यह सिलसिला उनकी मृत्यु तक जारी रहा।
आलोचक भले ही उन्हें दक्षिणपंथी साहित्यकार मानते हों पर यह उनकी स्पष्टवादिता ही थी जो उन्हें अपने समकालीन लेखकों से अलग करती है। वीएस नायपॉल भले ही आज हमारे बीच में न रहे हों पर उनके द्वारा छोड़ी गई साहित्य की थाती पाठकों के हृदय में उन्हें हमेशा जिंदा रखेगी। यकीनन वह शब्दों के जादूगर थे जिनकी कमी साहित्य के आकाश पर जरूर खलेगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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