कैराना चुनाव में गठबंधन की गांठ कसने को बढ़ी कवायद
पिछले चुनाव में सपा दूसरे नंबर पर थी, जिसके लिए इस उपचुनाव में प्रत्याशी उतारने का उसका दावा स्वाभाविक है।
सुरेंद्र प्रसाद सिंह, नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश के कैराना संसदीय व नूरपुर विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव की घोषणा के बाद राजनीतिक दलों में हलचल शुरू हो गई है। भारतीय जनता पार्टी की सांगठनिक तैयारियां जहां पहले से ही चल रही हैं वहीं समाजवादी पार्टी ने भी चुनाव में अपना प्रत्याशी उतारने के लिए बांहें चढ़ानी शुरू कर दी हैं। लेकिन राज्य के बाकी सियासी दलों के लिए सपा का पश्चिम में मजबूती से उभरना रास नहीं आएगा।
गोरखपुर और फूलपुर संसदीय क्षेत्रों में बसपा के मौन समर्थन से समाजवादी पार्टी की जीत को कैराना में भी दोहराने को लेकर संदेह है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जातिगत आधार न होने के बावजूद लोकसभा के पिछले चुनाव में सपा मुस्लिम मतों के बूते दूसरे नंबर थी। जाट व दलितों के बीच बढ़ी दूरी का सबसे ज्यादा नुकसान राष्ट्रीय लोकदल व बसपा को हुआ था। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से यहां का सियासी गणित बदल गया है, जिसे लेकर गठबंधन के प्रत्याशी का चयन सबसे अहम होगा। माना जा रहा है कि कैराना उपचुनाव को लेकर फिलहाल बसपा प्रमुख की चुप्पी के निहितार्थ कुछ और ही निकाले जा रहे हैं।
दरअसल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा सीटों के उपचुनाव में बसपा गठबंधन के भविष्य का आंकलन करेगी। यहां के चुनावी प्रदर्शन के आधार पर घटक दलों से आगे की बातचीत हो सकती है। इन्हीं चुनावों में पश्चिम की मुस्लिम मतों के मिजाज समझना चाहती है। जाट दलित के बीच बढ़े मनमुटाव में संभावित नरमी के रुख भी भांपेगी।
उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नेता इमरान ने गैर भाजपा दलों से रालोद नेता जयंत चौधरी को संयुक्त प्रत्याशी बनाने की अपील करके पार्टी की मंशा जाहिर कर दी है। राज्य में सपा की बढ़ती राजनीतिक ताकत को लेकर ये दल आशंकित हैं। इसका असर 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए बनने वाले गठबंधन पर पड़ सकता है। दूसरी ओर, सपा की नजर बसपा प्रमुख के ताजा रुख पर होगी। पिछले चुनाव में सपा दूसरे नंबर पर थी, जिसके लिए इस उपचुनाव में प्रत्याशी उतारने का उसका दावा स्वाभाविक है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर काबिज रहने वाले राष्ट्रीय लोकदल की हालत राजनीतिक सूझ बूझ की कमी के चलते धीरे-धीरे पस्त हो गई। भाजपा ने अपनी पैठ बढ़ानी शुरू की तो यहां तक पहुंच गई। कैराना में पिछले चुनाव में रालोद को मात्र 50 हजार वोटों पर संतोष करना पड़ा। ऐसे में गठबंधन रालोद को यह सीट कैसे सौंप सकते हैं।