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इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट से कहा, गंभीर अपराधों में जमानत से पहले पीड़ित के अधिकारों पर हो विचार

हाई कोर्ट की रजिस्ट्री ने शीर्ष अदालत को अपने ये सुझाव पहले के आदेश के अनुसरण में दिए हैं जिसमें दोषी व्यक्तियों की अपीलों के लंबित रहने के दौरान जमानत आवेदनों के मामलों को विनियमित करने के लिए व्यापक मानदंड निर्धारित करने में मदद करने को कहा गया था।

By Dhyanendra Singh ChauhanEdited By: Published: Tue, 21 Sep 2021 10:38 PM (IST)Updated: Tue, 21 Sep 2021 10:44 PM (IST)
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट से कहा, गंभीर अपराधों में जमानत से पहले पीड़ित के अधिकारों पर हो विचार
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट को दिए अहम सुझाव

नई दिल्ली, प्रेट्र। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि गंभीर मामलों में आरोपित को जमानत देने से पहले पीडि़त और उसके परिवार के अधिकारों पर भी विचार किया जाना चाहिए। हाई कोर्ट ने शीर्ष अदालत को सुझाव दिया है कि पीड़ित या उसके परिवार से परामर्श के बाद 'पीड़ित प्रभाव आकलन' रिपोर्ट हासिल की जानी चाहिए। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से सभी चिंताओं के साथ-साथ अपराध के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक प्रभाव और पीडि़त पर जमानत के प्रभाव के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी होनी चाहिए।

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हाई कोर्ट की रजिस्ट्री ने शीर्ष अदालत को अपने ये सुझाव पहले के आदेश के अनुसरण में दिए हैं, जिसमें दोषी व्यक्तियों की अपीलों के लंबित रहने के दौरान जमानत आवेदनों के मामलों को विनियमित करने के लिए व्यापक मानदंड निर्धारित करने में मदद करने को कहा गया था।

इलाहाबाद हाई कोर्ट की रजिस्ट्री द्वारा दायर हलफनामे पर जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ बुधवार को विचार कर सकती है।

शीर्ष अदालत जघन्य अपराधों में दोषियों की 18 अपीलों पर सुनवाई कर रही है जिनमें इस आधार पर जमानत मांगी गई है कि वे सात या अधिक साल जेल में बिता चुके हैं और सजा केखिलाफ उनकी अपील हाई कोर्ट में नियमित सुनवाई के लिए सूचीबद्ध होना बाकी है।

हाई कोर्ट ने कहा है कि जब किसी व्यक्ति को दोषी ठहराया जाता है, तो निर्दोषता की धारणा गायब हो जाती है और अपराधबोध की धारणा उसे दबा देती है। हालांकि, अपराध का आरोपित व्यक्ति, जब तक कि उसे अंतिम तौर पर अदालत में दोषी नहीं ठहराया जाता है, उसे पूरी तरह से जेल में रखने या सजा भुगतने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। उसे सजा होने और अपील लंबित होने के बाद भी उसके जमानत आवेदन पर विचार किया जा सकता है।

हाई कोर्ट ने आगे कहा कि उन आपराधिक अपीलों की सुनवाई को प्राथमिकता दी जानी चाहिए जहां सीआरपीसी के प्रविधानों के मद्देनजर आरोपित आधी से ज्यादा सजा भुगत चुका हो।

हाई कोर्ट ने कहा कि राज्य और उसके नागरिकों के खिलाफ संगठित अपराधों और सफेदपोश गंभीर अपराधों को अंजाम देने वालों को जमानत देने के लिए एक अलग मानदंड विकसित करना होगा क्योंकि ये आदतन और कठोर अपराधी हैं जो योजनाबद्ध और परिष्कृत तरीके से अपराध करते हैं।

लंबित मामलों की बड़ी संख्या से निपटने के लिए, हाई कोर्ट ने सुझाव दिया कि लंबे समय से लंबित आपराधिक अपीलों की सुनवाई के लिए समर्पित पीठों का गठन किया जाना चाहिए।

हाई कोर्ट ने आगे कहा कि जैसा कि शीर्ष अदालत ने विभिन्न मामलों में माना है कि उम्रकैद का मतलब पूरी उम्र है, इसे वैसे ही लिया जाना चाहिए जैसे यह है। यदि कोई व्यक्ति कुछ वर्ष जेल में बिताने के बाद रिहा हो जाता है तो आजीवन कारावास की सजा का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। यदि जघन्य अपराधों के एक आरोपी को जेल में कुछ साल बिताने के बाद जमानत पर रिहा किया जाता है, तो वह कभी भी अपनी अपील पर जल्दी निर्णय लिए जाने का प्रयास नहीं करेगा।

हाई कोर्ट ने कहा कि अक्सर अपराधी अपनी अपील दायर करवाते हैं और जमानत की अर्जी लंबे समय तक लंबित रखते हैं, ताकि अदालत उनके प्रति की सहानुभूति दिखा सके। इसलिए जमानत देते समय दोषी के इस तरह के आचरण को ध्यान में रखा जाना चाहिए क्योंकि ऐसे व्यक्ति बड़े पैमाने पर समाज के लिए गंभीर प्रतिकूल परिणाम पैदा कर सकते हैं।


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