कोरोना वायरस पर सभी बातें पूरी तरह सही नहीं, प्री-प्रिंट के शोध पत्रों से रहे सावधान
आइये जानते हैं कि कैसे कुछ वैज्ञानिक अवधारणाएं समाज में फैल रही हैं जबकि अभी उन पर काफी काम होना बाकी होता है।
नई दिल्ली। कोरोना वायरस के बारे में लगभग हर रोज कोई न कोई नई बात सामने आती है। मानो सभी शोध इस समय कोरोना पर केंद्रित हैं। इसके बावजूद कई ऐसी बातें हैं जो पूरी तरह सही नहीं होती हैं। कई बार किसी अवधारणा के चलते कोई बात कही जाती है, जिस पर अभी शोध शुरू ही हुआ होता है, लेकिन आम लोगों तक वह बात इस तरह से पहुंती है कि मानो वैज्ञानिक रूप से साबित हो चुकी है। हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन का मामला हो या कोरोना पर तापमान के प्रभाव का। बिना पूरे वैज्ञानिक तथ्यों के ये बात पूरे समाज में फैल गईं। सीएनएन के अनुसार यह बात सही है कि हर अवधारणा के पीछे कुछ पुख्ता वजह होती हैं, लेकिन उन पर मोहर लगना बाकी होता है। आइये जानते हैं कि कैसे कुछ वैज्ञानिक अवधारणाएं समाज में फैल रही हैं, जबकि अभी उन पर काफी काम होना बाकी होता है।
जर्नल करते हैं दावों की स्वतंत्र पुष्टि : हर शोध पत्र को कुछ प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल प्रकाशित करते हैं। इन शोध पत्रों के प्रकाशन से पहले शोध पत्र में किए गए दावों को वैज्ञानिक आधार पर जांचा जाता है। सीएनएन के अनुसार कई वरिष्ठ एक्सपर्ट शोध पत्र को जांचते हैं और उस पर अपनी समीक्षा देते हैं। इस काम में काफी समय लग जाता है। सामान्य परिस्थिति में सात से आठ हफ्ते का समय इस प्रक्रिया में आसानी से लग जाता था। हालांकि इसके प्रकाशित शोध पत्र को पुख्ता वैज्ञानिक प्रमाण माना जाता था।
प्री-प्रिंट ने बदल दी तस्वीर : लगभग सालभर पहले मेडिकल जर्नल पर प्रकाशन के लिए जगह नहीं पा सक रहे शोध पत्रों को प्री-प्रिंट पर डालने के लिए दो सर्वर बनाए गए। बायोरेक्सिव और मेडिरेक्सिव सर्वर इस काम के लिए समर्पित हैं। ताकि शोध पत्र में कही गई बातों को जांचा जा सके, क्योंकि यह एक ओपन प्लेटफॉर्म है। हालांकि शायद ही कभी इन दावों की समीक्षा की जाती है। ऐसे में इन शोध पत्रों को दावा कहना ही उचित होगा। इन पर कोई बैलेंसिंग एक्ट (दावों पर प्रति दावे) भी नहीं होता है। प्री-प्रिंट के सह संस्थापक जॉन इंग्लिश के मुताबिक शोध पत्र दाखिल करने की पूरी प्रक्रिया है। हां, हम मेडिकल जर्नल की तरह काम नहीं कर सकते।
लोगों को चाहिए तेजी से जानकारी : यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में मेडिसिन विभाग की प्रोफेसर रीटा रेडबर्ग बताती हैं कि कोरोना वायरस बहुत नया है और बहुत अंचभित करने वाला है। तमाम लोग इस पर शोध कर रहे हैं। हम सभी तेजी से इसके बारे में अधिक जानकारी चाहते हैं। मगर कोई भी जानकारी पुख्ता होनी चाहिए। प्रोफेसर रीटा रेडबर्ग कहती हैं कि मेरे सहयोगियों के पास अक्सर ऐसे लोग आते हैं जिनके पास प्रीप्रिंट से निकाले गए प्रिंट होते हैं। इनमें दावा किया होता है कि शोध पत्र में लिखी गई दवा का कोरोना वायरस पर चमत्कारिक प्रभाव पड़ता है। हालांकि इन पर कभी शोध ही नहीं हुआ होता है।
बड़ी दुर्घटना का बन सकते हैं कारण : डॉ. रीटा यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के मेडिकल जर्नल जेएएमए की एडिटर-इन-चीफ भी हैं। वह बताती हैं कि प्री-प्रिंट में दावा किया जाता है कि इन पर शोध किया गया है लेकिन, ऐसे दावे की कोई पुष्टि नहीं होती है। समीक्षा की बहुत अहमियत होती है। प्री-प्रिंट पर यही काम नहीं होता है। प्री-प्रिंट पर किए गए दावे बड़ी समस्या है। यह बड़ी दुर्घटना का कारण भी बन सकते हैं। प्री-प्रिंट पर मेडिकल जर्नल के सर्वर बनाने वाले जॉन इंग्लिश बताते हैं कि कोरोना के 3,300 शोध पत्र प्री-प्रिंट पर उपलब्ध हैं।
औसतन हर दिन 100 शोध पत्र हमारे सर्वर पर डाले जा रहे हैं। जनवरी के बाद से ही यह ट्रेंड बना हुआ है। सालभर पहले लॉन्च किए गए सर्वर पर पहले आठ माह में हल्की, लेकिन सतत विकास दर से शोध पत्र डाले जा रहे थे। कोरोना के बाद सबकुछ बदल गया और कोरोना वायरस पर किए गए दावों की बाढ़ सी आ गई। मई माह में ही 2,200 शोध पत्र प्री-प्रिंट पर डाले जा सकते हैं। जॉन कहते हैं कि इस समय ज्यादा से ज्यादा जानकारी मेडिकल एक्सपर्ट के बीच साझा करने की जरूरत होती है। प्री-प्रिंट सर्वर यही काम करने की कोशिश कर रहा है।
प्री-प्रिंट पर हमारे दोनों प्लेटफॉर्म खुले हुए हैं। हम सभी वैज्ञानिक जानकारियों को सभी के साथ साझा करना चाहते हैं। हम वैज्ञानिक दृष्टि से न्यूनतम मानकों का पालन करते हैं, ताकि आधारहीन शोधपत्र हमारे सर्वर पर जगह न पा सके।
जॉन इंग्लिश, बायोरेक्सिव और मेडिरेक्सिव के सह संस्थापक