यूपी के दंगल में अखिलेश के पास भी है कुछ हथियार
यूपी के चुनावी दंगल से पहले सपा में मचे घमासान में अखिलेश का पलड़ा कुछ ज्यादा भारी मालूम होता है। वह इस दंगल में अपने पिता को चित कर सकते हैं।
नई दिल्ली [माला दीक्षित]। समाजवादी पार्टी से छह वर्ष के लिए निष्कासित किये गये उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भले ही खाली हाथ दिख रहे हों लेकिन संविधानविदों की निगाह में अखिलेश का तरकस खाली नहीं है, उसमें ऐसे कई तीर हैं जो राजनीतिक दंगल में प्रवीण पिता मुलायम सिंह को भी मात दे सकते हैं। संविधानविदों का मानना है कि निष्कासन अखिलेश को सदन की सदस्यता से अयोग्य नहीं करता ऐसे मे उनका मुख्यमंत्री पद पर रहना असंवैधानिक नहीं है। संविधान कहता है कि विधायक दल का नेता मुख्यमंत्री होगा और अगर संख्या बल अखिलेश के साथ है तो अखिलेश मुख्यमंत्री बने रह सकते हैं भले ही पार्टी से निकाल दिये गये हों और अगर ऐसा नहीं है तो अखिलेश राज्यपाल से विधानसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर तुरुप का पत्ता खेल सकते हैं।
देश के जानेमाने संविधान विशेषज्ञ सोली सोराबजी अखिलेश को मजबूत पाते हैं। उनका कहना है कि पार्टी से निष्कासन अखिलेश को सदन की सदस्यता से अयोग्य नहीं बनाता। कोई भी पार्टी सदन को शर्ते डिक्टेट नहीं कर सकती। जबतक कि सदस्य की अयोग्यता का मुद्दा न शामिल हो। आगे की रणनीति पर सोराबजी का कहना है कि वो इस पर निर्भर करेगा कि राज्यपाल के पास कौन क्या शिकायत लेकर जाता है। जबकि वरिष्ठ कानूनविद हरीश साल्वे इसके आगे भी नजर डालते हैं। वे कहते हैं कि जो भी हो रहा है उसके दूरगामी परिणाम होंगे। उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं।
सिर्फ मजबूत चेहरे का ही दिखा दम
आज की स्थिति में अखिलेश के पास दो विकल्प मौजूद हैं। पहला तो अगर उन्हें लगता है कि उनके पास पर्याप्त बहुमत है तो वे राज्यपाल से कह सकते हैं कि सदन बुला लिया जाए और वे अपना बहुमत साबित कर देंगे। हालांकि ये थोड़ा रिस्की है क्योंकि अगर मतदान में उन्हें बहुमत नहीं मिला तो मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ेगा। दूसरी तरफ प्रदेश में दो तीन महीने में चुनाव होने वाले हैं ऐसे में अखिलेश मुख्यमंत्री की हैसियत से राज्यपाल से विधानसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर सकते हैं और चुनाव होने तक राज्य में राष्ट्रपति शासन लग जाएगा।
असली दंगल से पहले ही पहलवान लहूलुहान
आज जो स्थिति उत्तर प्रदेश में वैसी ही स्थिति बिहार में मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के कार्यकाल में आयी थी। अरुणाचल प्रदेश में भी दो दिन पहले मुख्यमंत्री को पार्टी से निष्कासित किया गया है। हालांकि संविधानविद सुभाष कश्यप का मत एकदम साफ है। उनका कहना है कि ये सपा का अंदरूनी पार्टी और पारिवारिक मसला है इसका संवैधानिक तौर पर कोई मतलब नहीं है और न ही इसका मुख्यमंत्री की हैसियत पर कोई फर्क पड़ता है। राज्यपाल मुख्यमंत्री नियुक्त करते हैं क्योंकि उसे सदन का बहुमत प्राप्त होता है। ऐसे में जबतक बहुमत है मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे। अगर कोई राज्यपाल से शिकायत करता है या राज्यपाल को संदेह होता है तो वे मुख्यमंत्री बहुमत साबित करने को कह सकते हैं।
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जब्त हो सकता है चुनाव चिन्ह
पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी कहते हैं कि अगर असली पार्टी और चुनाव चिन्ह पर दो पक्षों में झगड़ा बढ़ता है और दोनों पक्ष चुनाव चिन्ह पर अपना अपना दावा करती हैं तो चुनाव आयोग इस पर सुनवाई करके निर्णय लेगा जो कि अर्धन्यायिक प्रक्रिया होती है जिसमें कुछ वक्त लगता है ऐसे में अगर झगड़ा ज्यादा बढ़ता है तो चुनाव आयोग पार्टी का चुनाव चिन्ह जब्त कर दोनों पार्टियों को चुनाव लड़ने के लिए अलग अलग चुनाव चिन्ह दे सकता है। ऐसा एक बार कांग्रेस के बारे में हुआ था। कांग्रेस का दो बैलों की जोड़ी का चुनाव चिन्ह जब्त हुआ था।
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