बाबरी विध्वंस मामला: 17 साल पहले किस्मत से ही छूटे थे अडवाणी जोशी
जिस कानूनी तकनीकी खामी के आधार पर वे आरोप मुक्त हुए थे वह तो वास्तव में थी ही नहीं।
माला दीक्षित, नई दिल्ली। अयोध्या में विवादित ढांचा ढहने के आरोपों से 17 साल पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह आदि का आरोपमुक्त होना महज किस्मत की ही बात कही जाएगी क्योंकि जिस कानूनी तकनीकी खामी के आधार पर वे आरोप मुक्त हुए थे वह तो वास्तव में थी ही नहीं।
गुरुवार को वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने सुप्रीमकोर्ट को बताया कि अभियुक्तों को इस तकनीकी आधार पर आरोपमुक्त किया गया कि रायबरेली के मुकदमें को लखनऊ की अदालत स्थानांरित करते समय हाईकोर्ट से परामर्श नहीं किया गया था लेकिन इसकी जरूरत ही नहीं थी क्योंकि यूपी में संबंधित कानून 1976 में ही संशोधित हो गया है। संशोधन के बाद हाईकोर्ट से परामर्श जरूरी नहीं रह गया है। गुरुवार को ढांचा विध्वंस मामले में अभियुक्तों पर आपराधिक साजिश का मुकदमा चलाने पर बहस के दौरान हस्तक्षेपकर्ता हाजी महबूब अहमद की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कोर्ट के सामने ये तथ्य रखा।
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कोर्ट ने सिब्बल को सिर्फ कानूनी पहलू पर बहस करने की छूट दी थी। सिब्बल ने कहा कि उत्तर प्रदेश में 1976 में सीआरपीसी की धारा 11 (1) को संशोधित कर धारा 11 (1)(ए)जोड़ी गई जिसके मुताबिक हाईकोर्ट से परामर्श की जरूरत नहीं रह गई है। बात ये है कि सीआरपीसी की मूल धारा 11(1) कहती है कि समान क्लास के अपराध के लिए मजिस्ट्रेट कोर्ट बनाने के लिए हाईकोर्ट से परामर्श किया जाएगा लेकिन यूपी में सीआरपीसी में संशोधन के बाद हाईकोर्ट से परामर्श करने की बात नहीं है। सिब्बल द्वारा ये पहलू ध्यान दिलाने जाने पर पीठ के न्यायाधीश आरएफ नारिमन ने कहा हां इसके मुताबिक तो यूपी सरकार को अधिसूचना से पहले हाईकोर्ट से अनुमति लेने की जरूरत ही नहीं थी।
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ये संशोधन तो हाईकोर्ट का फैसला आने के पहले का है। मुद्दा तो यही है कि हाईकोर्ट से परामर्श जरूरी था कि नहीं और इस हिसाब से तो ये मामला ही खतम हो गया। जब कोर्ट ने इस बारे में अडवाणी के वकील केके वेणुगोपाल की प्रतिक्रिया जाननी चाही तो वेणुगोपाल ने कहा कि ये इतिहास की पुरानी बात हो चुकी है क्योकि हाईकोर्ट का वह फैसला आज की तारीख में अंतिम हो चुका है। इस दलील पर जस्टिस नारिमन ने कहा कि हां यही तो समस्या है कि वह फैसला अंतिम हो चुका है।
बात ये है कि नेताओं को आरोपमुक्त करने के 2001 के फैसले को सीबीआई ने तो सुप्रीमकोर्ट में चुनौती नहीं दी थी लेकिन तीसरे पक्षकार असलम भूरे ने फैसले के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट में इसके बाद भूरे की पुनर्विचार और क्यूरेटिव याचिका भी खारिज हो गई थी। इस तरह वह आदेश अंतिम और बाध्यकारी हो चुका है। सीबीआइ ने इस मामले में 20 मई 2010 के आदेश को चुनौती दी है जिसमें हाईकोर्ट ने 2001 के फैसले पर मुहर लगा दी थी।