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हिंदुस्तान की 'परी' ने करा दिया हिंदी से इश्क

तोमिओ मीजोकामी जापान के हैं, लेकिन जुबान पर हिंदी ऐसे जैसे पड़ोस के हों। हिंदी चिंतन भी है और चिंता भी। जीविका भी हिंदी और जलवा भी हिंदी का ही देखना चाहते हैं। बाली उमर में हिंदी से मुहब्बत हुई और पढ़ने से लेकर पढ़ाने तक का सफर हिंदी में।

By Sanjay BhardwajEdited By: Published: Fri, 11 Sep 2015 08:40 AM (IST)Updated: Fri, 11 Sep 2015 08:55 AM (IST)
हिंदुस्तान की 'परी' ने करा दिया हिंदी से इश्क

ओम द्विवेदी, भोपाल(मध्यप्रदेश)। तोमिओ मीजोकामी जापान के हैं, लेकिन जुबान पर हिंदी ऐसे जैसे पड़ोस के हों। हिंदी चिंतन भी है और चिंता भी। जीविका भी हिंदी और जलवा भी हिंदी का ही देखना चाहते हैं। बाली उमर में हिंदी से मुहब्बत हुई और पढ़ने से लेकर पढ़ाने तक का सफर हिंदी में। 74 साल के हैं, लेकिन हिंदी के लिए नौजवानों-सा जोश। जापान में 600 छात्रों को हिंदी सिखा-पढ़ा चुके हैं और 300 फिल्मों गीतों का जापानी में अनुवाद कर चुके हैं। सुनकर अचरज होगा, लेकिन सुन लीजिए...जिन शुभा मुद्गल का जादू हिंदुस्तानी संगीतप्रेमियों पर चलता है, उन्हें बचपन में जापानी में लोरी मीजोकामी ने सुनाई थी।

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हिंदी से इश्क भी इन्हें एक हिंदुस्तानी युवती का हुस्न देखकर हुआ। उनके शब्दों में वो 'परी थी। दसवीं जमात में पढ़ते थे। पार्क में बैठे थे। 'परी' आई और दीवाना करके चली गई। कहां गई पता नहीं, लेकिन हिंदी से प्रेम करना सिखा गई। उसी समय जापान में जवाहरलाल नेहरू आए। उनका भाषण सुना। ऑडियो आज भी रखा है मेरे पास। लगा जिस देश का पीएम इतना आदर्श है, वह देश और उस देश की भाषा कितनी अच्छी होगी। इस तरह हिंदी के पीछे चल पड़ा। पढ़ाई की। वासेदा यूनिवर्सिटी से 1965 में हिंदी में बीए कर डाला।

फिर भारत सरकार से ढाई सौ रुपए की छात्रवृत्ति लेकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एमए करने आ गया। यहां मैं जिसके घर में रहता था, वह बहुत नेक परिवार था। उनकी छोटी-सी बेटी शुभा को मैं जापानी में लोरी सुनाता था। वही बेटी जब बड़ी हुई तो संसार ने उसके सुर को शुभा मुद्गल के नाम से पहचाना। यह केवल एक संयोग था। तो आप पैदा कब हुए? '1941 में। इतिहास की दृष्टि से बहुत उथल-पुथल का साल था। दुखद ये था कि इसी साल रवींद्रनाथ टैगोर चले गए थे। हिंदुस्तानी साहित्यकारों से कितना जुड़ाव। है न!

हिंदी को लेकर है दोहरा रवैया

हिंदी पढ़ने और 30 साल तक हिंदी पढ़ाने के बाद अब मेरी हिंदी की उपासना चल रही है। दुखद यह है कि यहां हिंदी को लेकर दिखावा ज्यादा है, जमीन पर काम कम। पीएम और विदेशमंत्री तो हिंदी में बोलते हैं, लेकिन विदेश मंत्रालय के सारे अधिकारी अंग्रेजी में ही बात करते हैं। हिंदुस्तानी अपने रुतबे के लिए अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं। अपने बच्चों को अंगे्रजी स्कूलों में पढ़ाते हैं। सबसे पहले बच्चों को हिंदी स्कूलों में पढ़ाना शुरू करो, फिर हिंदी की चिंता करो।

मैं शायद पिछले जन्म में भारतवासी था

इतना हिंदी प्रेम? शायद मैं पिछले जन्म में भारतीय रहा होऊंगा। तभी तो जब जापान में सारे लोग विदेशी भाषा के नाम पर अंग्रेजी सीख रहे थे मैंने भारतीय भाषा और भारत के बारे में जानने की ठानी। फिर हिंदुस्तान आ गया और यहां की संस्कृति में डूब गया। हम जैसे हिंदीप्रेमियों की प्रबल इच्छा है कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र की भाषा सूची में शामिल हो, लेकिन इसके लिए दो-तिहाई बहुमत चाहिए। मुझे लगता है कि पाकिस्तान इसका विरोध कर सकता है। हमें इस दिशा में प्रयास करना चाहिए क्योंकि इससे हिंदी की शक्ति का एहसास दुनिया को होगा।

हंगरी की मारिया को असगर वजाहत से मिली हिंदी

हंगरी की मारिया नेज्यैशी को हिंदी के लेखक असगर वजाहत ने न केवल हिंदी प्रेमी, बल्कि हिंदी की प्रोफेसर भी बना दिया। हर साल 40 बच्चों का बैच हंगरी में इनसे हिंदी पढ़ता है। हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचंद पर इनकी पीएचडी है। डंके की चोट पर कहती हैं कि दृढ़ इच्छा शक्ति सीखने की क्षमता हो तो आदमी कोई भी भाषा सीख सकता है। मारिया ने चहक कर कहा, असगर साहब हमें हंगरी में हिंदी पढ़ाते थे। उनका अंदाज निराला था।

उनका नाटक ' जिन लाहौर नहीं देखा ते जनम्या ही नहीं देखा तो और भी मजा आया। उनके बहाने मैं हिंदी के संसार में उतरी और हिंदी ने मुझे अपना बनाया। जैसे मोदी जी कहते हैं कि चाय बेचते-बेचते मैं हिंदी सीख गया, इसी तरह मैं भारत के ऑटो वालों से बात-बात कर-करके हिंदी सीख गई। जब फिल्मों की बात चली तो हंसते हुए बोलीं, बूढ़ी हो गई हूं इसलिए पुरानी फिल्में ही पसंद हैं। उमराव जान का गाना अक्सर गुनगुनाती हूं-'दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए, बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए।


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