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फिर आबाद होने लगे हैं नक्सलियों के बंद कराए गए हाट बाजार, बदल रही है सूरत

बस्तर के अलावा संभाग के दंतेवाड़ा, बीजापुर व सुकमा जैसे जिलों में आदिवासी ग्रामों में हाट बाजारों का चलन फिर से लौट आया है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 22 May 2018 09:15 AM (IST)Updated: Tue, 22 May 2018 11:59 AM (IST)
फिर आबाद होने लगे हैं नक्सलियों के बंद कराए गए हाट बाजार, बदल रही है सूरत
फिर आबाद होने लगे हैं नक्सलियों के बंद कराए गए हाट बाजार, बदल रही है सूरत

जगदलपुर [संतोष सिंह]। विदेशी धन और दुराग्रह के प्रभाव में फंसे कुछ लोग, जिन्हें अब देशद्रोही से अधिक कुछ नहीं माना जा रहा है, नक्सलवाद के नाम पर अस्तित्व की खोखली लड़ाई लड़ रहे हैं। इन्होंने जमीन खो दी है। आदिवासी जनता इनके साथ नहीं है। इस बात के दो बड़े प्रमाण छत्तीसगढ़ के बस्तर में देखे जा सकते हैं। कभी नक्सलियों द्वारा बंद कराए गए अनेक हाट बाजार फिर आबाद हो गए हैं। यह दर्शाता है कि नक्सलवाद के लिए यहां कोई जगह नहीं बची है। वहीं, बस्तरिया बटालियन में बस्तर के सैकड़ों आदिवासी युवक-युवतियों का शामिल होना भी इस बात का जीवंत प्रमाण है।

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अप्रासंगिक हुआ नक्सलवाद
सच्चाई यही है कि नक्सलवाद अपनी जमीन खो चुका है। आदिवासियों और उनके प्राकृतिक वास को बाहरी दखल से बचाने और इसके लिए विकास को जंगलों तक न पहुंचने देने जैसे कुतर्कों को खुद आदिवासी भी स्वीकार नहीं करते हैं। आधुनिक युग में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत जरूरतों से वंचित रह कर घोर वन्यजीवन जीना उन्हें गैरवाजिब जान पड़ता है। लिहाजा नक्सलवाद की मूल विचारधारा अब पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुकी है।

खत्म हुआ खौफ
बस्तर के अलावा संभाग के दंतेवाड़ा, बीजापुर व सुकमा जैसे जिलों में आदिवासी ग्रामों में हाट बाजारों का चलन फिर से लौट आया है। हाट बाजारों के शुरू हो जाने से यहां के हजारों ग्रामीणों को फिर से जीविका मिल गई है। नक्सलियों ने हाट बाजारों पर प्रतिबंध लगा दिया था। 2005 में नक्सल विरोधी आंदोलन सलवा जुड़ुम शुरू होने के बाद एक ओर जहां दक्षिण बस्तर की आदिवासी आबादी का राहत शिविरों में विस्थापन हुआ, वहीं दूसरी ओर इसका असर हाट बाजारों पर भी पड़ा।

नक्सली फरमान के चलते हाट बाजार बंद हो गए। इससे आदिवासियों की पूरी अर्थव्यवस्था ही डगमगा गई। स्थानीय बाजारों में उनकी वनोपज की बिक्री बंद हो जाने से उपज बेचने उन्हें कई किलोमीटर दूर के किसी बाजार में जाना पड़ता था, लेकिन पिछले तीन-चार साल में स्थिति में क्रांतिकारी बदलाव आया है। ग्रामीणों ने धीरे-धीरे हौसला जुटाना शुरू किया।

नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में प्रशासन व फोर्स की पहुंच बढ़ते जाने से भी इनके हौसले को बल मिलता गया। एक-एक कर बाजार शुरू होने लगे, आज बाजारों में फिर वही पुरानी रौनक है। आदिवासी वनोपज लेकर इन बाजारों में पहुंच रहे हैं। व्यापारी भी दुकानें लगा रहे हैं। आज दंतेवाड़ा जिले के पोटाली, सुकमा के बड़ेसट्टी, बीजापुर जिले के बासागुड़ा जैसे बाजार फिर से गुलजार हो चुके हैं।

राह का रोड़ा बने थे नक्सली
दरअसल, नक्सलियों ने न केवल खौफ दिखाकर, बल्कि इन बाजारों तक पहुंचने के रास्तों को ही क्षतिग्रस्त कर आदिवासियों को विकास से वंचित करने का प्रयास किया। सुकमा जिले के जगरगुंडा से लेकर नारायणपुर जिले के माड़ क्षेत्र तक कई बाजारों में अब भी सन्नाटा रहता है। सड़क और रास्ते क्षतिग्रस्त होने के कारण व्यापारी यहां नहीं पहुंच पाते। ग्रामीण 40-50 किलोमीटर पैदल चलकर वनोपज के साथ इन बाजारों तक पहुंचते भी हैं तो निराश होकर लौटना पड़ता है। नारायणपुर जिले के कुतुल की भी यही कहानी है।

देशद्रोहियों के खिलाफ आदिवासी युवा
केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) की बस्तारिया बटालियन में 534 आदिवासी युवा शामिल हैं, जिसमें 189 युवतियां भी हैं। बटालियन को बस्तर के सुकमा, दंतेवाड़ा और बीजापुर जैसे इलाकों में तत्काल नक्सल रोधी अभियानों में शामिल किया जाएगा। बटालियन में शामिल ये आदिवासी युवा इन्हीं जिलों के ही निवासी हैं। यह बटालियन इस बात का प्रमाण है कि आदिवासी युवा अपने समाज को विकास की राह पर आगे बढ़ते हुए देखना चाहता है। जहां नक्सलवाद जैसे कुतर्क के लिए कहीं कोई जगह नहीं है।

हाट बाजार आदिवासियों की जीविका और जरूरतों के केंद्र रहे हैं। इनके सामाजिक ताने- बाने और मेल-जोल के केंद्र के रूप में भी इन बाजारों की अपनी भूमिका रही है। इनके फिर से खुल जाने से हमारी परेशानियां कम हुई हैं।
- चैतराम अटामी, पूर्व अध्यक्ष, जिला लघु वनोपज संघ, दंतेवाड़ा 


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